गुरुवार, 24 मई 2012

346. कभी न मानूँ (पुस्तक - 48)

कभी न मानूँ

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जी चाहता है, विद्रोह कर दूँ 
अबकी जो रूठूँ, कभी न मानूँ
मनाता तो यूँ भी नहीं कोई 
फिर भी बार-बार रूठती हूँ 
हर बार स्वयं ही मान जाती हूँ
जानती हूँ कि मेरा रूठना 
कोई भूचाल नहीं लाता 
न तो पर्वत को पिघलाता है 
न प्रकृति कर जोड़ती है 
न जीवन आह भरता है 
देह की सभी भंगिमाएँ
यथावत रहती हैं 
दुनिया सहज चलती है
मन रूठता है, मन टूटता है 
मन मनाता है, मन मानता है 
और ये सिर्फ़ मेरा मन जानता है 
हर बार रूठकर, ख़ुद को ढाढ़स देती हूँ 
कि शायद इस बार, किसी को फ़र्क पड़े 
और कोई आकार मनाए 
और मैं जानूँ कि मैं भी महत्वपूर्ण हूँ
पर अब नहीं 
अब तो यम से ही मानूँगी  
विद्रोह का बिगुल 
बज उठा है। 

- जेन्नी शबनम (24. 5. 2012)
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22 टिप्‍पणियां:

  1. अरे इतना गुस्सा????
    मान जाइए.....

    कहाँ यम को कष्ट दे रहीं हैं...
    :-)

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  2. बहुत सुंदर तरह से मन के उद्गार व्यक्त किये हैं ...!!
    मन ही मन का सच्चा मीत है |स्वयम से भला कौन रूठता है ...?

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  3. बहुत खुबसूरत रचना..जेन्नी जी...

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  4. यह रूठना और मनाना...जिन्दगी के साथ यु ही चलता रहता हैं ..

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  5. दुनिया सहज चलती है
    मन रूठता है
    मन टूटता है
    मन मनाता है
    मन मानता है
    और ये सिर्फ मेरा मन जानता है
    Sach! Aisahee hota hai!

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  6. यही नियति है जी ....क्या करें ...रूठते भी हैं तो खुद ही मानना भी पड़ता है

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  7. अब तो यम से ही मानूंगी विद्रोह का बिगुल बज उठा है !
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,बढ़िया रचना,

    MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,

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  8. मनाता तो यूँ भी नहीं कोई
    फिर भी बार बार रूठती हूँ
    हर बार स्वयं ही मान जाती हूँ
    जानती हूँ कि मेरा रूठना
    कोई भूचाल नहीं लाता
    न तो पर्वत को पिघलाता है ......... फिर भी मन करता है कोई मनाये और मैं न मानूं

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  9. फिर भी बार बार रूठती हूँ
    हर बार स्वयं ही मान जाती हूँ....मन की भावनाओ को बहुत सुन्दर ठंग से व्यक्त किया है और ये भाव सभी में निहित होती है.....खुबसूरत प्रस्तुति...

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  10. सच ! कभी कभी रूठने को दिल सिर्फ इसीलिए करता है की कोई मनाये ..बहुत सुन्दर जिद्द !

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  11. बहुत बढ़िया प्रस्तुति!
    आपकी प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
    चर्चा मंच सजा दिया, देख लीजिए आप।
    टिप्पणियों से किसी को, देना मत सन्ताप।।
    मित्रभाव से सभी को, देना सही सुझाव।
    शिष्ट आचरण से सदा, अंकित करना भाव।।

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  12. मन के भावो को शब्दों में उतर दिया आपने.... बहुत खुबसूरत.....

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  13. इतना सीधा कोई नहीं होता आखिर एक दिन तो बगावत करता ही है और रूठने का फायदा भी तभी है जब कोई मनाने वाला हो ...बहुत खूब जेन्नी जी बहुत अच्छा लगा पढ़ के

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  14. widroh zaroori hai....apne apko zinda rakhne ke liye....uttam rachana

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  15. पर अब नहीं
    अब तो यम से ही मानूंगी
    विद्रोह का बिगुल
    बज उठा है !

    ओह !
    कवि का विद्रोह ऐसा ही होता है।
    बढि़या कविता।

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  16. आपकी अभिव्यक्ति में विद्रोह के स्वर का प्रस्फुटन स्वभाविक है। मेरे जहन में एक बात हमेशा कौंधती रहती है या कहें मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि रूठना उस समय अच्छा लगता है जब कोई मनाने वाला होता है,अन्यथा यह अर्थहीन हो जाता है एवं स्थिति उस समय करवट लेती सी प्रतीत होती है जब एक फिल्मी गीत की कुछ पक्तियां-

    रूठे रब को मनाना आसान है,
    रूठे दिल को मनाना मुश्किल.

    जैसी स्थिति से साक्षात्कार हो जाता है । प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट'कबीर" पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  17. मन रूठता है
    मन टूटता है
    मन मनाता है
    मन मानता है
    और ये सिर्फ मेरा मन जानता है
    ये मन ही सब-कुछ है....
    इस मन को प्यार भी आता है
    और व्यथित भी उसी से होता है
    उत्तम रचना
    सादर

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  18. बहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने ....बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन रचना.....आभार !

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  19. हर भावनात्मक इंसान को कभी न कभी ऐसे ख़याल ज़रूर आते हैं.. मुझे भी लगता है..बिलकुल ऐसा ही...फिर क्या...मना लेना पड़ता है खुद को.. खुद ही.. !!

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