शुक्रवार, 1 मार्च 2013

386. कतर दिया

कतर दिया

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क्या-क्या न कतर दिया   
कभी सपने   
कभी आवाज़   
कभी ज़िन्दगी   
और तुम हो कि   
किसी बात की कद्र ही नहीं करते   
हर दिन एक नए कलेवर के साथ   
एक नई शिकायत   
कभी मेरे चुप होने पर   
कभी चुप न होने पर   
कभी सपने देखने पर   
कभी सपने न देखने पर   
कभी तहज़ीब से ज़िन्दगी जीने पर   
कभी बेतरतीब ज़िन्दगी जीने पर   
हाँ, मालूम है   
सब कुछ कतर दिया   
पर तुम-सी बन न पाई   
तुम्हारी रंजिश बस यही है।    

- जेन्नी शबनम (1. 3. 2013) 
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14 टिप्‍पणियां:

  1. कभी तहजीब से ज़िंदगी जीने पर
    कभी बेतरतीब ज़िंदगी जीने पर----sunder bhawpur rachna badhai

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  2. इसी ख्याल ने उन्मुक्त होने का, किसी की परवाह बगैर जीवन को सार्थकता के साथ जीने के लिए प्रोत्साहित किया है... और तब आपकी सब सुनते हैं, सबको ख्याल होता है आपका .. अजीब दुविधा है ज़िन्दगी की!

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  3. khoobshurat rachna,aap ki rachna ka in panktio se swagat hai,"kabhi tum hath malte ho,kabhi tum par ko karte ho,hamare khwab me aa aa ke,sikayat mujhse karte ho,kabhi tum dhoop bante ho ,kabhi tum chaw lagte ho,batao jingi ko aaj tum kyo itne pas lagte ho(madhu "muskan")

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  4. वाकई ...शिकायत का सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होता ......बहुत सुन्दर उकेरा है रिश्तों की उधेड़ बुन को

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  5. जिसको सन्तुष्ट नहीं होना , वह किसी के सब कुछ त्याग करने पर भी सन्तुष्ट नहीं होता । आपकी यह कविता भी अन्य कविताओं की तरह अव्यक्त व्यथा और विवशता को बहुत ही सधी हुई भाषा में अभिव्यक्त करती है । आपकी इस तरह की कविताओं को पढ़कर एक आश्वस्ति ज़रूर मिलती है कि अभी भी ऐसी कविताएँ रची जा रही हैं, जो कविता के भविष्य का निर्माण कर रही हैं।

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  6. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,अदरेया.

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  7. खुद के अस्तित्व में रहना बुराई तप नहीं ... फिर भी अपने जैसा बनाने की जिद्द क्यों ...

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  8. तुम सी बनने की चाहत में
    धीरे धीरे खुद को ही खो दिया
    तुमसी ना बन पायी फिर भी,
    दो बूंद ढलके और रो दिया.
    अपने अरमानो की चिता जलाई
    फिर भी तुमसा बन ना पाई .
    ....
    ....
    .....


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  9. kyaa baat... kyaa baat... kyaa baat...

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  10. यही तो जोरी सीना है दुराग्रह मूलक संबंधों की .बढ़िया प्रस्तुति मोहतरमा .शुक्रिया आपकी ब्लोगिया टिपण्णी का .

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  11. शुक्रिया शबनम जी . मेरी कविता को पसंद करने के लिए
    आपकी ये नज़्म पढ़ी . बहुत सुन्दर लिखा है .. बधाई स्वीकार करिए
    अक्सर ऐसा ही होता है . लेकिन आपने बखूबी अपने शब्दों से उस दर्द को सार्थक कर दिया . HATS OFF TO YOU.

    विजय
    www.poemsofvijay.blogspot.in

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  12. पर तुम-सी बन न पाई
    तुम्हारी रंजिश बस यही है ! koi kisi ke jaesa to ban hi nahi sakta ..nice poem sis

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