पूर्ण विराम
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एक पूरा वजूद, धीमे-धीमे जलकर
राख़ में बदलके चेतावनी देता-
यही है अंत, सबका अंत
मुफ़लिसी में जियो या करोड़ों बनाओ
चरित्र गँवाओ या तमाम साँसें लिख दो
इंसानियत के नाम
बस यही पूर्ण विराम, यही है पूर्ण विराम।
- जेन्नी शबनम (20. 1. 2014)
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बेहद सटीक बात....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना.
अनु
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (21-01-2014) को "अपनी परेशानी मुझे दे दो" (चर्चा मंच-1499) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शायद जीवन का यही सत्य कटूक्ति!
जवाब देंहटाएंअंत में राख में बदलता वजूद ही पूर्णविराम है..!!!
जवाब देंहटाएंhttp://bulletinofblog.blogspot.in/2014/01/blog-post_21.html
जवाब देंहटाएंएक कड़वा सच!! आज का सच!!!
जवाब देंहटाएंjiwan ka saty
जवाब देंहटाएंkavita - utam -***
ek matr sach
जवाब देंहटाएंutam- ***
चंद शब्दों में ही जीवन के सार को बड़े प्रभावी ढंग से निचोड़ दिया आपने अपनी रचना में ! आभार एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंएज यूजवल! बेहतरीन !!
जवाब देंहटाएंजीवन का यह सत्य हमें हर पल को सजगता के साथ जीना सिखाता है..
जवाब देंहटाएंसच लिखा है .. कोरा सपाट सच ...
जवाब देंहटाएंगहन भाव ...यथार्थ कहती बेहतरीन पंक्तियाँ ....!!
जवाब देंहटाएंसत्य को कहती बेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंati sundar bhav prawah
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