बुधवार, 22 जनवरी 2014

438. उफ़! माया

उफ़! माया

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"मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है... 
मेरा वो सामान लौटा दो...!"
'इजाज़त' की 'माया',
उफ़ माया!
तुम्हारा सामान लौटा कि नहीं, नहीं मालूम 
मगर तुम लौट गई, इतना मालूम है 
पर मैं?
मेरा तो सारा सामान...!
क्या-क्या कहूँ लौटाने
मेरा वक़्त, मेरे वक़्त की उम्र 
वक़्त के घाव, वक़्त के मलहम 
दिन-रात की आशनाई 
भोर की लालिमा, साँझ का सूनापन 
शब के अँधियारे, दिन के उजाले 
रोज़ की इबादत, सपनों की हकीकत
हवा की नरमी, धूप की गरमी 
साँसों की कम्पन, अधरों के चुम्बन 
होंठों की मुस्कान, दिल नादान 
सुख-दुःख, नेह-देह...!
सब तुम्हारा, सब के सब तुम्हारा 
अपना सब तो उस एक घड़ी सौंप दिया 
जब तुम्हें ख़ुदा माना 
इनकी वापसी...?
फिर मैं कहाँ? क्या वहाँ?
जहाँ तुम हो माया?

- जेन्नी शबनम (22. 1. 2014)
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13 टिप्‍पणियां:

  1. कोमल भावसिक्त बेहद भावपूर्ण रचना...
    http://mauryareena.blogspot.in/
    :-)

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  2. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति गुरुवारीय चर्चा मंच पर ।।

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  3. 'मेरा' कुछ था ही कहाँ ...? यही तो माया है... :-)

    ~सादर

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  4. बहुत सुंदर, बेहतरीन....

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  5. अपना सब तो उस एक घड़ी सौंप दिया
    जब तुम्हें खुदा माना
    इनकी वापसी...
    फिर मैं कहाँ?
    ...वाह...बहुत प्रभावी और भावपूर्ण रचना...

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (25-1-2014) "क़दमों के निशां" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1503 पर होगी.
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
    सादर...!

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  7. ...वाह...
    ...वाह...
    बहुत प्रभावी और भावपूर्ण रचना..

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