इम्म्युन
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अब तक ग़ैरों से छुपती थी
अब ख़ुद से बचती हूँ
अपने वजूद को
अलमारी के उस दराज़ में रख दी हूँ
जहाँ गैरों का धन रखा होता है
चाहे सड़े या गले पर नज़र न आए
यूँ भी, मैं इम्म्युन हूँ
हमारी क़ौमें ऐसी ही जन्मती हैं
बिना सींचे पनपती हैं,
इतना ही काफ़ी है
मेरा 'मैं' दराज़ में महफ़ूज़ है,
चाहे सड़े या गले पर नज़र न आए
यूँ भी, मैं इम्म्युन हूँ
हमारी क़ौमें ऐसी ही जन्मती हैं
बिना सींचे पनपती हैं,
इतना ही काफ़ी है
मेरा 'मैं' दराज़ में महफ़ूज़ है,
ग़ैरों के वतन में
इतनी ज़मीन नहीं मिलती कि
'मैं हूँ' ये सोच सकूँ
और ख़ुद को
इतनी ज़मीन नहीं मिलती कि
'मैं हूँ' ये सोच सकूँ
और ख़ुद को
अपने आईने में देख सकूँ।
- जेन्नी शबनम (7. 7. 2014)
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SASHAKT BHAVABHIVYAKTI KE LIYE AAPKO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA
जवाब देंहटाएंअब कौन सा वतन अपना है, कौन सा ग़ैरों का- ये सोचना भी मुश्क़िल जान पड़ता है। अपना वास्तविक 'मैं' तो अब दराजों में बंद ही पड़ा है चाहें हम कहीं भी रहें! शायद वक़्त ही कुछ ऐसा है!
जवाब देंहटाएंगहन अर्थ भरी पंक्तियाँ ...बहुत सुंदर लिखा जेन्नी जी ....!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : अपेक्षाओं के बोझ तले सिसकता बचपन
कैसा अवसाद जैसे सब जम गया हो !
जवाब देंहटाएंमन को छूती पोस्ट ....
जवाब देंहटाएंअपने वजूद को ... अपने मैं को गहरे दाल देना कहाँ सुकून देता है ... उसको उसका मान देना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंहालात से जूझती रचना ...
संवेदनशील अभिव्यक्ति वास्तव मे अपना क्या है विचारणीय विषय
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पंक्तियाँ हैं ..... आपकी स्वीकार्यता हम सभी सच है
जवाब देंहटाएंमैं अगर बंद है तो कौन है जो उसे देख रहा है...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ! बधाई स्वीकार करें...|
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