गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

479. एक सांता आ जाता

एक सांता आ जाता 

***

मन चाहता  
भूले-भटके
मेरे लिए तोहफ़ा लिए
काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता।  

गहरी नींद से मुझे जगाकर 
अपनी झोली से निकालकर थमा देता
मेरे हाथों में परियों वाली जादू की छड़ी
और अलादीन वाला जादुई चिराग़। 

पूरे संसार को छू लेती
जादू की उस छड़ी से
और भर देती सबके मन में
प्यार-ही-प्यार, अपरम्पार। 

चिराग़ के जिन्न से कहती
पूरी दुनिया को दे दो 
कभी ख़त्म न होने वाला अनाज का भण्डार 
सबको दे दो रेशमी परिधान   
सबका घर बना दो राजमहल
न कोई राजा, न कोई रंक
फिर सब तरफ़ दिखेंगे ख़ुशियों के रंग।  

काश! आज मेरे घर 
एक सांता आ जाता

-जेन्नी शबनम (25.12.2014)
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गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

478. सपनों के झोले

सपनों के झोले  

*******

मुझे समेटते-समेटते    
एक दिन तुम बिखर जाओगे  
ढह जाएगी तुम्हारी दुनिया  
शून्यता का आकाश 
कर लेगा अपनी गिरफ़्त में तुम्हें  
चाहकर भी न जी सकोगे न मर सकोगे तुम, 
जानते हो
जैसे रेत का घरौंदा भरभराकर गिरता है  
एक झटके में  
कभी वैसे ही चकनाचूर हुआ सब  
अरमान भी और मेरा आसमान भी  
उफ़ के शब्द गले में ही अटके रह गए  
कराह की आवाज़ को आसमान ने गटक लिया  
और मैं ठंडी ओस-सी सब तरफ़ बिखर गई,  
जानती हूँ 
मेरे दर्द से कराहती तुम्हारी आँखें  
रब से क्या-क्या गुज़ारिश करती हैं    
सूनी ख़ामोश दीवारों पे 
तुम्हें कैसे मेरी तस्वीर नज़र आती है  
जाने कहाँ से रच लेते हो ऐसा संसार  
जहाँ मेरे अस्तित्व का एक कतरा भी नहीं  
मगर तुम्हारे लिए पूरी की पूरी मैं वहाँ होती हूँ,  
तुम चाहते हो  
बिंदास और बेबाक जीऊँ  
मर-मरकर नहीं जीकर जिन्दगी जीऊँ  
सारे इंतज़ाम तुम सँभालोगे, मैं बस ख़ुद को सँभालूँ  
शब्दों की लय से जीवन गीत गुनगुनाऊँ,  
बड़े भोले हो    
सपनों के झोले में जीवन समाते हो   
जान लो  
अरमान आसमान नहीं देते
बस भ्रम देते हैं।    

- जेन्नी शबनम (11. 12. 2014)  
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सोमवार, 1 दिसंबर 2014

477. झाँकती खिड़की (पुस्तक - 67)

झाँकती खिड़की

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परदे की ओट से
इस तरह झाँकती है खिड़की
मानो कोई देख न ले
मन में आस भी और चाहत भी
काश! कोई देख ले।

परदे में हीरे-मोती हो, या हो कई पैबन्द
हर परदे की यही ज़िंदगानी है
हर झाँकती नज़रों में वही चाह
कच्ची हो, कि पक्की हो
हर खिड़की की यही कहानी है।

कौन पूछता है, खिड़की की चाह
अनचाहा-सा कोई
धड़धड़ाता हुआ पल्ला ठेल देता है
खिड़की बाहर झाँकना बंद कर देती है
आस मर जाती है
बाहर एक लम्बी सड़क है
जहाँ आवागमन है, ज़िन्दगी है
पर, खिड़की झाँकने की सज़ा पाती है
अब वह न बाहर झाँकती है
न उम्र के आईने को ताकती है।

- जेन्नी शबनम (1. 12. 2014)
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गुरुवार, 27 नवंबर 2014

476. उम्र के छाले (12 हाइकु) पुस्तक 67,68

उम्र के छाले  

*******

1.
उम्र की भट्टी 
अनुभव के भुट्टे 
मैंने पकाए। 

2.
जग ने दिया 
सुकरात-सा विष 
मैंने जो पिया। 

3.
मैंने उबाले 
इश्क़ की केतली में 
उम्र के छाले। 

4.
नहीं दिखता 
अमावस का चाँद, 
वो कैसा होगा? 

5.
कौन अपना? 
मैंने कभी न जाना 
वे मतलबी। 

6.
काँच से बना 
फिर भी मैंने तोड़ा 
अपना दिल। 

7.
फूल उगाना 
मन की देहरी पे 
मैंने न जाना। 

8.
कच्चे सपने 
रोज़ उड़ाए मैंने 
पास न डैने। 

9.
सपने पैने 
ज़ख़्म देते गहरे, 
मैंने ही छोड़े। 

10.
नहीं जलाया 
मैंने प्रीत का चूल्हा, 
ज़िन्दगी सीली। 

11.
मैंने जी लिया
जाने किसका हिस्सा 
कर्ज़ का किस्सा। 

12.
मैंने ही बोई 
तज़ुर्बों की फ़सलें 
मैंने ही काटी। 

- जेन्नी शबनम (20. 11. 2014)
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गुरुवार, 20 नवंबर 2014

475. इंकार है

इंकार है 

******* 

तूने कहा   
मैं चाँद हूँ   
और ख़ुद को आफ़ताब कहा।   

रफ़्ता-रफ़्ता   
मैं जलने लगी   
और तू बेमियाद बुझने लगा।   

जाने कब कैसे   
ग्रहण लगा   
और मुझमें दाग़ दिखने लगा।   

हौले-हौले ज़िन्दगी बढ़ी   
चुपके-चुपके उम्र ढली  
और फिर अमावस ठहर गया।   

कल का सहर बना क़हर   
जब एक नई चाँदनी खिली   
और फिर तू कहीं और उगने लगा।   

चंद लफ़्ज़ों में मैं हुई बेवतन   
दूजी चाँदनी को मिला वतन   
और तू आफ़ताब बन जीता रहा।   

हाँ, यह मालूम है   
तेरे मज़हब में ऐसा ही होता है   
पर आज तेरे मज़हब से ही नहीं   
तुझसे भी मुझे इंकार है।   

न मैं चाँद हूँ   
न तू आफ़ताब है   
मुझे इन सबसे इंकार है।   

- जेन्नी शबनम (20. 11. 2014) 
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सोमवार, 17 नवंबर 2014

474. कोई तो दिन होगा

कोई तो दिन होगा

*** 

कोई तो दिन होगा 
जब गीत आज़ादी के गाऊँगी 
बीन बजाते भौंरे नाचेंगे 
मैं पराग-सी बिखर जाऊँगी  
आसमाँ में सूरज दमकेगा 
मैं चन्दा-सी सँवर जाऊँगी।  

कोई तो दिन होगा 
जब गीत ख़ुशी के गाऊँगी 
चिड़िया फुदकेगी डाल-डाल 
मैं तितली-सी उड़ जाऊँगी 
फूलों से बगिया महकेगी 
मैं शबनम-सी बिछ जाऊँगी। 

कोई तो दिन होगा 
जब गीत प्रीत के गाऊँगी 
प्रेम प्यार के पौध उपजेंगे 
मैं ज़र्रे-ज़र्रे में खिल जाऊँगी 
भोर सुहानी अगुवा होगी 
मैं आसमाँ पर चढ़ जाऊँगी। 

कोई तो दिन होगा 
जब गीत आनन्द के गाऊँगी 
यम बुलाने जब आएगा 
मैं हँसती-हँसती जाऊँगी 
कथा-कहानी जीवित रहेगी 
मैं अमर होकर मर जाऊँगी।

-जेन्नी शबनम (16.11.2014)
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शनिवार, 1 नवंबर 2014

473. तारों का बाग़ (दिवाली के 8 हाइकु) पुस्तक 66,67

तारों का बाग़  

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1.
तारों के गुच्छे 
ज़मीं पे छितराए 
मन लुभाए।  

2.
बिजली जली  
दीपों का दम टूटा  
दीवाली सजी। 

3.
तारों का बाग़ 
धरती पे बिखरा 
आज की रात।  
 
4.
दीप जलाओ 
प्रेम प्यार की रीत 
जी में बसाओ।  

5.
प्रदीप्त दीया  
मन का अमावस्या  
भगा न सका।  

6.
रात ने ओढ़ा  
आसमाँ का काजल  
दीवाली रात।  

7.
आतिशबाज़ी 
जुगनुओं की रैली  
तम बेचारा।  

8.
भगा न पाई 
दुनिया की दीवाली 
मन का तम।   

- जेन्नी शबनम ( 20. 10. 2014) 
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सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

472. कविता (कविता पर 20 हाइकु) पुस्तक 64-66

कविता 

*******

1. 
कण-कण में  
कविता सँवरती  
संस्कृति जीती। 

2.
अकथ्य भाव 
कविता पनपती 
खुलके जीती।  

3.
अक्सर रोती  
ग़ैरों का दर्द जीती, 
कविता-नारी। 

4.
अच्छी या बुरी, 
न करो आकलन 
मैं हूँ कविता। 

5.
ख़ुद से बात 
कविता का संवाद 
समझो बात। 

6.
शब्दों में जीती, 
अक्सर ही कविता 
लाचार होती। 

7.
कविता गूँजी, 
ख़बर है सुनाती 
शोर मचाती। 

8.
मन पे भारी 
समय की पलटी, 
कविता टूटी। 

9.
कविता देती   
गूँज प्रतिरोध की   
जन-मन में। 

10.
कविता देती 
सवालों के जवाब,  
मन में उठे। 

11.
ख़ुद में जीती  
ख़ुद से ही हारती,  
कविता गूँगी। 

12.
छाप छोड़ती,   
कविता जो गाती  
अंतर्मन में। 

13.
कविता रोती, 
पूरी कर अपेक्षा  
पाती उपेक्षा। 

14.
रोशनी देती  
कविता चमकती  
सूर्य-सी तेज़। 

15.
भाव अर्जित  
भाषा होती सर्जित  
कविता-रूप। 

16.
अंतःकरण 
ज्वालामुखी उगले  
कविता लावा। 

17. 
मन की पीर   
बस कविता जाने,  
शब्दों में बहे। 

18.
ख़ाक छानती 
मन में है झाँकती 
कविता आती। 

19.
शूल चुभाती  
नाज़ुक-सी कविता,   
क्रोधित होती। 

20.
आशा बँधाती 
जब निराशा छाती,  
कविता सखी। 

- जेन्नी शबनम (22. 8. 2014)
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शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

471. रंग-बेरंग

रंग

***

काजल थककर बोला-
मुझसे अब और न होगा 
नहीं छुपा सकता
उसकी आँखों का सूनापन,
बिंदिया सकुचा कर बोली-
चुक गई मैं उसे सँवारकर
अब न होगा मुझसे
नहीं छुपा सकती
उसके चेहरे की उदासी,
होंठों की लाली तड़पकर बोली-
मेरा काम अब हुआ फ़िजूल
कितनी भी गहरी लगूँ
अब नहीं सजा पाती 
उसके होंठों पर खिलती लाली,
सिन्दूर उदास मन से बोला-
मेरी निशानी हुई बेरंग
अब न होगा मुझसे
झूठ-मूठ का दिखावापन  
नाता ही जब टूटा उसका  
फिर रहा क्या औचित्य भला मेरा, 
सुनो!
बिन्दी-काजल-लिपिस्टिक लाल 
आओ चल चलें हम
अपने-अपने रंग लेकर उसके पास
जहाँ हम सच्चे-सच्चे जीएँ
जहाँ हमारे रंग गहरे-गहरे चढ़े
खिल जाएँ हम भी जी के जहाँ
विफल न हो हमारे प्रयास जहाँ
करनी न पड़े हमें कोई चाल वहाँ, 
हम रंग हैं
हम सजा सकते हैं 
पर रंगहीन जीवन में नहीं भर सकते
अपने रंग। 

- जेन्नी शबनम (11. 10. 2014)
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शनिवार, 27 सितंबर 2014

470. दूध-सी हैं लहरें (हाइगा लेखन का प्रथम प्रयास - 8 हाइगा)

दूध-सी हैं लहरें 
(हाइगा लेखन का प्रथम प्रयास - 8 हाइगा)

*******

1. 
सूरज झाँका - 
सागर की आँखों में 
रूप सुहाना । 
1







2. 
मिट जाएँगे 
क़दमों के निशान,  
यही जीवन । 
2 (2)

























3. 
अद्भुत लीला -
दूध-सी हैं लहरें, 
सागर नीला । 
3














4.
अथाह नीर 
आसमां ने बहाई 
मन की पीर । 

4















5.
सूरज लाल 
सागर में उतरा 
देखने हाल । 

5















6.
पाँव चूमने 
लहरें दौड़ी आई, 
मैं सकुचाई । 

6


























7.
उतर जाऊँ -
सागर में खो जाऊँ 
सागर सखा । 

7















8.
क्षितिज पर, 
बादल व सागर 
आलिंगनबद्ध । 

8

















- जेन्नी शबनम (20. 9. 2014)
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शनिवार, 20 सितंबर 2014

469. सागर तीरे (30 हाइकु) पुस्तक 61-64

सागर तीरे 

*******

1. 
दम तोड़ती 
भटकती लहरें 
सागर तीरे। 

2. 
सफ़ेद रथ 
बढ़ता बिना पथ 
रेत में गुम। 

3. 
उमंग-भरी 
लहरें मचलतीं  
क़हर ढातीं। 

4. 
लहरें दौड़ी 
शिला से टकराई  
टूटी बिखरी। 

5. 
नभ या धरा 
किसका सीना बिंधा, 
बहते आँसू। 

6.  
पाँव चूमने 
लहरें दौड़ी आईं,  
मैं सकुचाई। 

7. 
टकराती हैं 
पर हारती नही,
लहरें योद्धा। 

8. 
बेचैनी बढ़ी 
चाँद पूरा जो उगा 
सागर नाचा। 

9. 
कोई न जाना, 
अच्छा किया मिटाके 
रेत पे नाम। 

10. 
फुफकारतीं 
पर काटती नहीं 
लहरें नाग। 

11. 
दिन व रात 
सागर जागता है,  
अनिद्रा रोगी।  

12. 
डराता नित्य 
दहाड़ता दौड़ता 
सागर दैत्य। 

13. 
बड़ा लुभातीं, 
लहरें करतीं ज्यों 
अठखेलियाँ। 

14.
उतर जाऊँ- 
सागर में खो जाऊँ,  
सागर सखा। 

15. 
बहती धारा 
झुमकर पुकारे 
बाँहें पसारे।

16. 
हाहाकारतीं  
साहिल से मिलतीं 
लहरें भोली। 

17. 
किसका शाप   
क्षणिक न विश्राम  
दिन या रात। 

18. 
फन उठाके 
बेतहाशा दौड़ता 
सागर-नाग। 

19. 
बेमक़सद 
दौड़ता ही रहता 
आवारा पानी। 

20. 
क्षितिज पर,  
बादल व सागर 
आलिंगन में। 

21.
सोचता होगा 
सागर जाने क्या-क्या 
कोई न जाने। 

22. 
सागर रोता 
कौन चुप कराता  
सगा न सखा। 

23
कभी-कभी तो   
घबराता ही होगा 
सागर का जी। 

24.
पानी का मेला 
हर तरफ़ रेला 
है मस्तमौला। 

25. 
जल की माया 
धरा व गगन की 
समेटे काया। 

26. 
अथाह नीर 
आसमाँ ने बहाई 
मन की पीर। 

27. 
मिट जाएँगे 
क़दमों के निशान,  
यही जीवन। 

28. 
अद्भुत लीला- 
दूध-सी हैं लहरें 
सागर नीला। 

29.  
सूरज झाँका- 
सागर की आँखों में 
रूप सुहाना। 

30. 
सूरज लाल 
सागर में उतरा 
देखने हाल। 

- जेन्नी शबनम (20. 9. 2014)
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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

468. जीवन-बोध (शिक्षक दिवस पर 10 हाइकु) पुस्तक 60,61

जीवन-बोध 

*******

1.
गुरु से सीखा 
बिन अँगुली थामे  
जीवन-बोध।  

2.
बढ़ता तरु,  
माँ है प्रथम गुरु  
पाकर ज्ञान। 
  
3.
करता मन  
शत-शत नमन  
गुरु आपको।  

4.
खिले आखर   
भरा जीवन-रंग 
जो था बेरंग।   

5.
भरते मान  
पाते हैं अपमान, 
कैसा ये युग?  

6. 
ख़ुद से सीखा  
अनुभवों का पाठ  
जीवन गुरु।  

7.
थी नासमझ 
भाषा-बोली-समझ    
गुरु से पाई।   

8.
ज्ञान का तेज  
चहुँ ओर बिखेरे  
गुरु-दीपक।   

9.
प्रेरणा-पुष्प  
जीवन में खिलाते  
गुरु प्रेरक।   

10.
पसारा ज्ञान  
दूर भागा अज्ञान  
सद्गुणी गुरु।  

- जेन्नी शबनम (5. 9. 2014)
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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

467. गाँव (गाँव पर 20 हाइकु) पुस्तक 58-60

गाँव 
 
*******

1.
माटी का तन  
माटी में ही खिलता  
जीवन जीता।  

2.
गोबर-पुती 
हर मौसम सहे 
झोपड़ी तनी।  

3.
अपनापन 
बस यहीं है जीता  
हमारा गाँव।  

4.
भण्डार भरा,  
प्रकृति का कुआँ    
दान में मिला।   

5.
गीत सुनाती 
गाँव की पगडंडी 
रोज़ बुलाती।  

6.
ज़िन्दगी ख़त्म, 
फूस की झोपड़ी से 
नदी का घाट।  

7.
चिरैया चुगे 
लहलहाते पौधे 
धान की बाली।  

8.
गाँव की मिट्टी 
सोंधी-सोंधी महकी 
बयार चली।  

9.
कभी न हारी 
धुँआँ-धुँआँ ज़िन्दगी 
गाँव की नारी।  

10.
रात अन्हार 
दिन सूर्य उजार, 
नहीं लाचार।  

11.
सुख के साथी
माटी और पसीना, 
भूख मिटाते।  

12.
भरे किसान  
खलिहान में खान,   
अनाज सोना।  

13.
किसान नाचे    
खेत लहलहाए,  
भदवा चढ़ा।  

14. 
कोठी में चन्दा   
पर ज़िन्दगी फंदा,  
क़र्ज़ में साँस।  

15.
छीने सपने 
गाँव की ख़ुशबू के 
बसा शहर।    

16.
परों को नोचा  
शहर की हवा ने  
घायल गाँव।  

17.
कुनमुनाती  
गुनगुनी-सी हवा 
फ़सल साथ।  

18. 
कच्ची माटी में  
जीवन का संगीत,  
गाँव की रीत।  

19. 
नैनों में भादो,  
बदरा जो न आए 
पौधे सुलगे।  

20.
हुआ विहान,  
बैल का जोड़ा बोला-  
सरेह चलो।   

- जेन्नी शबनम (2. 9. 2014) 
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सोमवार, 1 सितंबर 2014

466. घर आ जा न (बारिश के 8 हाइकु) पुस्तक 57, 58

घर आ जा न 

*******

1.
बरसा नहीं 
भटक-भटकके 
थका बादल।  

2.
घूँघट काढ़े  
घटा में छुपकर  
सूर्य शर्माए।  

3.
बादल फटा 
रुष्ट इंद्र देवता 
खेत सुलगा।  

4.
घूमने चले 
बादलों के रथ पे 
सूर्य देवता।  

5.
अम्बर रोया 
दूब भीगती रही 
उफ़ न बोली।  

6.
गुर्राता मेघ 
कड़कता ही रहा 
नहीं बरसा।  

7.
प्रभाती गाता 
मंत्र गुनगुनाता 
मौसम आता। 

8.
पानी-पानी रे  
क्यों बना तू जोगी रे  
घर आ जा न।  

- जेन्नी शबनम (3. 7. 2014) 
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मंगलवार, 26 अगस्त 2014

465. जी चाहता है (7 क्षणिकाएँ)

जी चाहता है

*******

1.
जी चाहता है  
तुम्हारे साथ बीताई सभी यादों को  
धधकते चूल्हे में झोंक दूँ 
और फिर पानी डाल दूँ  
ताकि चिंगारी भी शेष न बचे।  

2.
जी चाहता है  
तुम्हारे साथ बीते उम्र के हर वक़्त को  
एक ताबूत में बंदकर नदी में बहा आऊँ  
और वापस उस उम्र में लौट जाऊँ  
जहाँ से ज़िन्दगी  
नई राह तलाशती सफ़र पर निकलती है। 

3.
जी चाहता है  
तुम्हारे साथ जिए उम्र को  
धकेलकर वापस ले जाऊँ  
जब शुरुआत थी हमारी ज़िन्दगी की  
और तब जो छूटा गया था  
अब पूरा कर लूँ।  

4.
जी चाहता है  
तुम्हारा हाथ पकड़  
धमक जाऊँ चित्रगुप्त जी के ऑफिस   
रजिस्टर में से हमारे कर्मों का पन्ना फाड़कर  
उससे पंख बना उड़ जाऊँ  
सभी सीमाओं से दूर।  

5.
जी चाहता है  
टाइम मशीन में बैठकर  
उम्र के उस वक़्त में चली जाऊँ  
जब कामनाएँ अधूरी रह गई थीं  
सब के सब पूरा कर लूँ  
और कभी न लौटूँ।  

6.
जी चाहता है  
स्वयं के साथ 
सदा के लिए लुप्त हो जाऊँ  
मेरे कहे सारे शब्द  
जो वायुमंडल में विचरते होंगे  
सब के सब विलीन हो जाएँ  
मेरी उपस्थिति के चिह्न मिट जाएँ  
न अतीत, न वर्तमान, न आधार  
यूँ जैसे, इस धरा पर कभी आई ही न थी। 

7.
जी चाहता है  
पीले पड़ चुके प्रमाण पत्रों और  
पुस्तक पुस्तिकाओं को  
गाढ़े-गाढ़े रंगों में घोलकर  
एक कलाकृति बनाऊँ  
और सामने वाली दीवार में लटका दूँ  
अपने अतीत को यूँ ही रोज़ निहारूँ।  

- जेन्नी शबनम (26. 8. 2014)
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शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

464. आज़ादी की बात

आज़ादी की बात

***

आज़ादी की बाबत पूछते हो 
मानो सीने के ज़ख़्म कुरेदते हो 
लौ ही नहीं जलती 
तो उजाले की लकीर कहाँ दिखेगी 
अँधेरों की सरपरस्ती में 
दीये की थरथराहट गुम हो जाएगी। 
 
पंछी के पर उगने ही कब दिए 
जो न उगने पर सवाल करते हो
तमाम पहर, तमाम उम्र इबादत की  
पर ख़ुदा तो तेरे शहर में नज़रबन्द है 
गुहार के लिए देवता कहाँ से लाऊँ? 

बदन के हर हिस्से में नंगी तलवारें घुसती हैं 
लहू के कारोबार में ज़िन्दगी मिटती है 
फिर भी आज़ादी की बाबत पूछते हो?
 
सदियों से सब सोए हैं 
अपनी-अपनी तक़दीर के भरोसे   
जाओ तुम सब सो जाओ, अपने-अपने महलों में 
ताकि किसी का मिटना देख न सको
किसी का सिसकना सुन न सको। 

हमें इन्तिज़ार है 
जाने कब दबे पाँव आ जाए आज़ादी 
और हुंकार के साथ छुड़ा दे उस ज़ंजीर से 
जिसने जकड़ रखा है हमारा मन 
काट डाले उस ग़ुलामी को  
जिससे हमारी साँसें धीरे-धीरे सिमट रही हैं। 
 
हर रोज़ मन में एक किरण उगती है  
जो आज़ादी की राह ताकती है 
फिर धीरे-धीरे दम तोड़ती है 
पर एक उम्मीद है, जो हारती नहीं 
हर रोज़ कहती है
वह किरण ज़रूर उगेगी 
जो आज़ादी को पकड़ लाएगी    
फिर आज़ादी की बाबत पूछना 
आज़ादी का रंग क्या और सूरत है क्या
रोटी और छत की जंग है क्या
अस्मत और क़िस्मत की आज़ादी है क्या। 

एक दिन सब बताऊँगी  
जब ज़रा-सी आज़ादी जिऊँगी   
फिर आज़ादी की बात करूँगी

-जेन्नी शबनम (15.8.2014)
(स्वतंत्रता दिवस)
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