चलो चलते हैं
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सुनो साथी!
चलो चलते हैं
नदी के किनारे ठंडी रेत पर
पाँव को ज़रा ताज़गी दे वहीं ज़रा सुस्ताएँगे
अपने-अपने हिस्से का अबोला दर्द
रेत से बाँटेंगे
न तुम कुछ कहना
न हम कुछ पूछेंगे
अपने-अपने मन की गिरह ज़रा-सी खोलेंगे
मन की गाथा
जो हम रचते हैं काग़ज़ के सीने पर
सारी की सारी पोथियाँ वहीं बहा आएँगे
अँजुरी में जल ले संकल्प दोहराएँगे
और अपने-अपने रास्ते पर बढ़ जाएँगे
सुनो साथी!
चलते हैं नदी के किनारे
ठंडी रेत पर वहीं ज़रा सुस्ताएँगे।
- जेन्नी शबनम (4. 8. 2016)
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Sashakt Bhavabhivyakti.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-08-2016) को "धरा ने अपना रूप सँवारा" (चर्चा अंक-2427) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हरियाली तीज और नाग पञ्चमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 7 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमौन अपने में जितना समेट लेता है -वाणी उसे व्यक्त करने में असमर्थ रह जाती है,अुनभूति के चरम क्षणों में शब्द कहाँ !
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