रेगिस्तान
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मुमकिन है यह उम्र
रेगिस्तान में ही चुक जाए
कोई न मिले उस जैसा
जो मेरी हथेलियों पर
चमकते सितारों वाला
आसमान उतार दे।
यह भी मुमकिन है
एक और रेगिस्तान
सदियों-सदियों से
बाँह पसारे मेरे लिए बैठा हो
जिसकी हठीली ज़मीन पर
मैं ख़ुशबू के ढाई बोल उगा दूँ।
कुछ भी हो सकता है
अनदेखा अनचाहा
अनकहा अनसुना
या यह भी कि तमाम ज़माने के सामने
धड़धड़ाता हुआ कँटीला मौसम आए
और मेरे पेशानी से लिपट जाए।
यह भी तो मुमकिन है
मैं रेगिस्तान से याराना कर लूँ
शबो-सहर उसके नाम गुनगुनाऊँ
साथ जीने मरने की कस्में खाऊँ
और एक दूसरे के माथे पर
अपने लहू से ज़िन्दगी लिख दूँ।
- जेन्नी शबनम (18. 3. 2017)
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-03-2017) को
जवाब देंहटाएं"दो गज जमीन है, सुकून से जाने के लिये" (चर्चा अंक-2607)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "यूपी का माफ़िया राज और नए मुख्यमंत्री “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंमन को छूती बेहद सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबधाई सार्थक सृजन के लिए
गहन
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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