परम्परा
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मैं उदासी नहीं चाहती थी
मैं तो खिलखिलाना चाहती थी
आज़ाद पंक्षियों-सा उड़ना चाहती थी
हर रोज़ नई धुन गुनगुनाना चाहती थी
और यह सब अनकहा भी न था
हर अरमान चादर-सा बिछा दिया था तुम्हारे सामने
तुमने सहमति भी जताई थी कि तुम साथ दोगे
लेकिन जाने यह क्योंकर हुआ
पर मैं वक़्त को दोष न दूँगी
वक़्त ने तो बहुत साथ दिया
पर तुम बिसुर गए सब
एक-एककर मेरे सपनों को
होलिका के साथ तुमने जला दिया
मुझसे कहा कि यह परम्परा है
मैं उदास हुई पर इंकार न किया
तुम्हारा कहा सिर माथे पर।
- जेन्नी शबनम (9.3.2019)
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 24/03/2019 की बुलेटिन, " नेगेटिव और पॉज़िटिव राजनीति - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-03-2019) को "कलम बीमार है" (चर्चा अंक-3286) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक-एक कर मेरे सपनों को
जवाब देंहटाएंहोलिका के साथ तुमने जला दिया
मुझसे कहा कि यह परम्परा है
मैं उदास हुई पर इंकार न किया
तुम्हारा कहा सिर माथे पर।
इसी तरह के समझौते करती आयी है नारी
तब ही तो महक पाती है यहाँ रिश्तों की फुलवारी
बहुत खूब...
एक-एक कर मेरे सपनों को
जवाब देंहटाएंहोलिका के साथ तुमने जला दिया
सुंदर भाव
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar kavita likhi ha...
जवाब देंहटाएंGood
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