शनिवार, 14 सितंबर 2019

626. क्षणिक बहार

क्षणिक बहार   

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आज वह ख़ूब चहक रही है   
मन-ही-मन में बहक रही है 
साल भर से वह, जो कच्ची थी 
उसका दिन है, तो पक रही है। 

आज वह निरीह नहीं सबल है 
आज वह दुःखी नहीं मगन है 
आज उसके नाम धरती है 
आज उसका ही ये गगन है। 

जहाँ देखो सब उसे बुला रहे हैं 
हर महफ़िल में उसे सजा रहे हैं 
किसी ने क्या ख़ूब वरदान दिया है 
एक पखवारा उसके नाम किया है। 

आज सज-धजकर निकलेगी 
आज बहुरिया-सी दमकेगी 
हर तरफ़ होगी जय-जयकार 
हर कोई दिखाए अपना प्यार 
हर किसी को इसका ख़याल   
परम्परा मनेगी सालों-साल। 

पखवारा बीतने पर मलीन होगी 
धीरे-धीरे फिर ग़मगीन होगी 
मंच पर आज जो बैठी है 
फ़र्श पर तब आसीन होगी 
क्षणिक बहार आज आई है 
फिर सालभर अँधेरी रात होगी। 

हर साल आता है यह त्योहार 
एक पखवारे का जश्ने-बहार 
उस हिन्दी की परवाह किसे है 
राजभाषा तक सिकोड़ा जिसे है 
जो भी अब संगी-साथी इसके हैं 
सालों भर साथ-साथ चलते हैं। 

भले अँगरेज़ी सदा अपमान करे 
हिन्दी का साथ हमसे न छूटे 
प्रण लो हिन्दी बनेगी राष्ट्रभाषा 
यह हमारा अधिकार, हमारी मातृभाषा 
हिन्दी को हमसे है बस यही आशा 
हम देंगे नया जीवन, नई परिभाषा। 

- जेन्नी शबनम (14. 9. 2019) 
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