मंगलवार, 2 जून 2020

669. रंग

रंग  

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बेरंग जीवन बेनूर न हो   
क़र्ज़ में माँग लाई मौसम से ढेरों रंग   
लाल, पीले, हरे, नीले, नारंगी, बैगनी, जामुनी   
छोटी-छोटी पोटली में बड़े सलीक़े से लेकर आई   
और ख़ुद पर उड़ेलकर ओढ़ लिया मैंने इंद्रधनुषी रंग। 
   
अब चाहती हूँ   
रंगों का क़र्ज़ चुकाने, मैं मौसम बन जाऊँ   
मैं रंगों की खेती करूँ और ख़ूब सारे रंग मुफ़्त में बाँटूँ   
उन सभी को जिनके जीवन में मेरी तरह रंग नहीं हैं    
जिन्होंने न रोटी का रंग देखा, न प्रेम का   
न ज़मीन का, न आसमान का।
   
चाहती हूँ   
अपने-अपने शाख से बिछुड़े 
पेट की आग का रंग ढूँढते-ढूँढते   
बेरंग सपनों में जीनेवाले   
अब रंगों से होली खेलें, रंगों से ही दीवाली भी   
रंगों के सपने हों, रंगों की ही हक़ीकत हो। 
  
रंग रंग रंग!   
क़र्ज़! क़र्ज़! क़र्ज़!   
ओह मौसम! नहीं चुकाऊँगी उधारी   
कितना भी तगादा करो, चाहे न निभाओ यारी। 
   
तुम्हारी उधारी तब तक   
जब तक मैं मौसम न बन जाऊँ।   

-जेन्नी शबनम (2.6.2020) 
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8 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थकता की ओर ले जाती सुंदर रचना

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  2. तुम्हारी उधारी तब तक
    जब तक मैं मौसम न बन जाऊँ।
    अच्छी अभिव्यक्ति !

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  3. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति।

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  4. बहुत ही सुंदर रचना ,सुंदर विचार

    ओढ़ लिया मैंने इंद्रधनुषी रंग
    अब चाहती हूँ
    रंगों का कर्ज चुकाने, मैं मौसम बन जाऊँ
    मैं रंगों की खेती करूँ और खूब सारे रंग मुफ़्त में बाँटूँ
    उन सभी को जिनके जीवन में मेरी ही तरह रंग नहीं है
    जिन्होंने न रोटी का रंग देखा न प्रेम का
    न जमीन का न आसमान का
    चाहती हूँ ,बधाई हो

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  5. "रोटी का रंग" नया प्रयोग....बेहतरीन।

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  6. रंग बाँटने की सौग़ात मिले या ख़ुद के मौसम हो जाने की चाह ... मिल सकें रंग सभी को ... बहुत गहरी बात ...

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