गुरुवार, 4 अगस्त 2022

746. चिन्तन (12 क्षणिका)

चिन्तन 
***

1. 
चिन्तन 
***
समय, सच और स्वप्न
आपस में सब गड्डमड्ड हो रहे हैं
भूल रही हूँ, समय के किस पहर में हूँ
कब यथार्थ, कब स्वप्न में हूँ
यह मतिभ्रम है या चिन्तन की अवस्था
या दूसरे सफ़र की तैयारी 
यह समय पर जीत है 
या समय से मैं हारी। 

2. 
दोबारा
***  
दोबारा क्यों?
इस जन्म की पीर
क्या चौरासी लाख तक साथ रहेगी?
नहीं! अब दोबारा कुछ नहीं चाहिए 
न सुख, न दु:ख, न जन्म
स्वर्ग क्या नरक भी मंज़ूर है
पर धरती का सहारा नहीं चाहिए
जन्म दोबारा नहीं चाहिए। 

3.
कोशिशों की मियाद
***
ज़िन्दगी की मियाद है  
तय वक़्त तक जीने की   
सम्पूर्णता की मियाद है   
ख़ास वक़्त के बाद पूर्ण होने की   
वैसे ही कोशिशों की मियाद भी लाज़िमी है   
कि किस हद के बाद छोड़ दी जाए वक़्त पर   
और बस अपनी ज़िन्दगी जी जाए    
वर्ना तमाम उम्र 
महज़ कोशिशों के नाम।

4. 
कमाल 
***
दर्द से दिल मेरा दरका
काग़ज़ पर हर दर्द उतरा
वे समझे, है व्यथा ज़माने की
और लिखा मैंने कोई गीत नया
कह पड़े वे- वाह! कमाल लिखा!

5. 
सहारा 
***
चुप-चुप चुप-चुप सबने सुना
रुनझुन-रुनझुन जब दर्द गूँजा
बस एक तू असंवेदी 
करता सब अनसुना
क्या करूँ तुझसे कुछ माँगकर
मेरे हाथ की लकीरों में तूने ही तो दर्द है उतारा। 
मुझे तो उसका भी सहारा नहीं
लोग कहते क़िस्मत का है सहारा।  

6. 
नाराज़ 
***
ताउम्र गुहार लगाती रही
पर समय नाराज़ ही रहा 
और अंतत: चला गया
साथ मेरी उम्र ले गया
अब मेरे पास न समय बचा
न उसके सुधरने की आस, न ज़िन्दगी। 

7. 
मुँहज़ोर तक़दीर
*** 
हाथ की लकीरों को
ज़माना पढ़ता रहा, हँसता रहा
कितना बीता, कितना बचा?
कितना ज़ख़्म और हथेली में समाएगा?
यह मुँहज़ोर तक़दीर न बताती है, न सुनती है
हर पल मेरी हथेली में एक नया दर्द मढ़ती है।  

8.
महाप्रयाण 
***
अतियों से उलझते-उलझते   
सर्वत्र जीवन में संतुलन लाते-लाते 
थकी ही नहीं, ऊबकर हार चुकी हूँ
ख़ुद को बचाने के सारे प्रयास 
पूर्णतः विफल हो चुके हैं  
संतुलन डगमगा गया है  
सोचती हूँ, राह जब न हो 
तो गुमराह होना ही उचित है 
बेहतर है ख़ुद को निष्प्राण कर लूँ 
शायद महाप्रयाण का यही सुलभ मार्ग है। 

9. 
फ़िल्म 
***
जीवन फ़िल्मों का ढेर है 
अच्छी-बुरी सुखान्त-दुखान्त सब है 
पुरानी फ़िल्म को बार-बार देखना से 
मन में टीस बढ़ाती है
काश! ऐसा न हुआ होता 
ज़िन्दगी सपाट ढर्रे से गुज़र जाती 
कोई न बिछुड़ता जीवन से 
जिनकी यादों में आँखें पुर-नम रहती हैं।  
फ़िल्में देखो पर जीवन का स्वागत यूँ करो  
मानो पुर-सुकून हो। 

10. 
साथ 
***  
इतना हँसती हूँ, इतना नाचती हूँ
ज़िन्दगी समझ ही नहीं पाती कि क्या हुआ
बार-बार वह मुझे शिकस्त देना चाहती है
पर हर बार मेरी हँसी से मात खा जाती है
अब ज़िन्दगी हैरान है, परेशान है
मुझसे छीना-झपटी भी नहीं करती
कर जोड़े मेरे इशारे पर चलती है
मेरी ज़िन्दगी मेरे साथ जीती है।  

11. 
मौसम के देवता
***
ओ मौसम के देवता!
मेरी मुट्ठी में सिर्फ़ पतझड़!
कभी वसन्त भेजो, कभी वर्षा  
कभी शरत भेजो, कभी हेमन्त  
हमेशा पतझड़ ही क्यों?
एक ही मौसम से जी भर गया है
ओ मौसम के देवता! 
ऐसा क्यों लगता है
मैं अमर हो गई हूँ और मौसम मर गया है।

12. 
शिद्दत
***
पतझड़ के मौसम के बीतने की प्रतीक्षा व्यर्थ है
कभी-कभी एक ही मौसम मन में बस जाता है
उम्र और मन ख़र्च हो जाता है 
दिन-महीना-साल बदल जाता है
पर नहीं बदलता, तो यह मुआ पतझड़
जब नाउम्मीदी चारों तरफ़ पसरी हो 
वीरानगी रास्ता रोककर जम जाए वहीं पर 
तब एक ही तरक़ीब शेष बचती है
पतझड़ में मौसम के मनचाहे सारे रंग बसा लो
और जी लो पूरी शिद्दत से, जो भी वक़्त बचा है।

- जेन्नी शबनम (12. 12. 21)
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10 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ अगस्त २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 5 अगस्त 2022 को 'युद्द की आशंकाओं में फिर घिर गई है दुनिया' (चर्चा अंक 4512) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  3. भावों भरी उत्कृष्ट रचनाएँ।

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  4. चिंतन मनन कर हर क्षणिका ज़बरदस्त लिखी है । दोबारा और कमाल तो बस कमाल ही हैं ।

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  5. स्वर्ग क्या नरक भी मंज़ूर है
    पर धरती का सहारा नहीं चाहिए
    जन्म दोबारा नहीं चाहिए।
    दिल को छूती गहन चिन्तनपरक लाजवाब क्षणिकाएं।

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  6. बहुत ही खूबसूरत क्षणिकायें...👏👏👏

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  7. सुंदर और सार्थक चिंतन

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