गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

783. पैरहन (5 क्षणिका)

पैरहन
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1.
लकीर
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हथेली में सिर्फ़ सुख की लकीरें थीं
कब किसने दुःख की लकीरें उकेर दीं
जो ज़िन्दगी की लकीर से भी लम्बी हो गई
अब उम्मीद की वह पतली डोर भी टूट गई
जिसे सँजोए रखती थी तमाम झंझावतों में
और हथेली की लकीरों में तलाशती थी।

2.

इस पार या उस पार 

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शब्दों का कब तक दूँ हिसाब 

सवालों से घिरी मैं

अब नहीं चाहती जवाब

सिर पर लिए हुए सारे सवालों का धार 

चुपचाप गुम हो जाना चाहती हूँ

संसार के इस पार या उस पार।


  

3.

बेजान 
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रिश्ते बेजान हुए
कोई चाह अब शेष नहीं
टूटी-फूटी धड़कनें बेहाल हुईं
खण्ड-खण्ड में टूटा दिल, साँसें बेजार हुईं
सपनों के भँवर-जाल की सन्नाटों से बात हुईं
सब छूटा, सब बिखरा, जीने की ख़त्म राह हुई। 


4.
पैरहन
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मैंने ख़ुद को पहन रखा है सदियों से
ज़िन्दगी पैरहन है, जो अब बोझ लगती है
अब तो बे-आवाज़ ये पैरहन छूटे
मैं बे-लिबास हो जाऊँ
मैं आज़ाद हो जाऊँ।

5.
बदलाव
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मौसम का बदलना
नियत समय पर होता है
पर मन का मौसम
क्षणभर में बदलता है
यह बदलाव
कोई क्यों नहीं समझता है?

- जेन्नी शबनम (12.12.2024)
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