सोमवार, 30 मार्च 2009

45. कामना

कामना

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चाहती हूँ तुम देखो ज़िन्दगी
मेरी नज़रों से
मेरी चाहतों से
मेरी समस्त कामनाओं से  

समझ सकोगे तुम कैसे?
तुम पुरुष हो
ख़ुदा हुए भी तो क्या
तुम बेबस हो   

तुम्हें वो आँखें न मिली
जो मेरे सपनों को देख सके
वो दिल न पाया
जो मेरे एहसासों को समझ सके   

तुम लाचार हो
मन से अपाहिज हो,
नहीं सँभाल सकते
एक औरत की कामना  

- जेन्नी शबनम (दिसंबर 2008)
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1 टिप्पणी:

  1. चाहती हूँ कि तुम देखो ज़िन्दगी...
    मेरी नज़रों से,
    मेरी चाहनाओं से,
    मेरी समस्त कामनाओं से |
    ...हाँ आपने सही लिखा है ...और सच ही तो कविता है ..सुन्दर .

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