कृष्ण! एक नई गीता लिखो
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फ़र्क नहीं पड़ता तुम्हें, जब निरीह मानवता, बेगुनाह मरती है
फ़र्क पड़ता है तुम्हें, जब कोई तुम्हारे आगे, सिर नहीं नवाता है।
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फ़र्क नहीं पड़ता तुम्हें, जब निरीह मानवता, बेगुनाह मरती है
फ़र्क पड़ता है तुम्हें, जब कोई तुम्हारे आगे, सिर नहीं नवाता है।
जाने कितना कच्चा धर्म है तुम्हारा, किसी की अवहेलना से उबल जाता है
निरपराधों की आहुति से मन नहीं भरता, अबोधों का बलिदान चाहता है।
जो कलंक हैं मानवता के, उनपर ही अपनी कृपा दिखाते हो
जो इंसानी धर्म निभाते, उन्हें जीते जी तुम नरक दिखाते हो।
तुमने कहा था, जो तुम चाहो वही होता, इशारे से तुम्हारे चलती है दुनिया
तुम्हारी इच्छा के विपरीत, कोई क्षण भी न गुज़रता, न ही दुनिया की रीत है बदलता।
फिर क्या समझूँ, ये तुम्हारी लीला है?
हिंसा और अत्याचार का, ये तुम्हें कैसा नशा है?
विपदाओं के पहाड़ तले, दिलासा का झूठा भ्रम, क्यों देते हो?
पाखंडी धर्म-गुरुओं का ऐसा क़ौम क्यों उपजाते हो?
कैसे कहते हो तुम, कि कलियुग में ऐसा ही घोर अनर्थ होगा
क्या तुम्हारे युग में आतंक और अत्यचार न हुआ था?
तुम तो ईश्वर हो, फिर क्यों जन्म लेना पड़ा था तुम्हें सलाख़ों के अंदर?
कहाँ थी तुम्हारी शक्ति, जब तुम्हारी नवजात बहनों की निर्मम हत्या होती रही?
औरत को उस युग में भी, एक वस्तु बनाकर पाँच मर्दों में बाँट दिया
अर्धनग्न नारी को जग के सामने शर्मसार कर, ये कैसा खेल दिखाया?
कौरव-पांडव का युद्ध करा कर, रिश्तों को दुश्मनी का पाठ सिखाया
अपनों की हत्या करने का, संसार का ये कैसा अजब रूप दिखाया?
क्या और कोई तरीका नहीं था?
रिश्तों की परिभाषा का?
जीवन के दर्शन का?
समाज के उद्धार का?
विश्व के विघटन का?
तुम्हारी शक्ति का?
उस युग के अंत का?
धर्म-जाति सब बँट चुके, रिश्तों का भी क़त्ल हुआ
तुम्हारी सत्ता में था अँधियारा फैला, फिर मानव से कैसे उम्मीद करें?
द्वापर का जो धर्म था, वो तुम्हारे समय का सत्य था
अब अपनी गीता में, इस कलियुग की बात कहो।
निरपराधों की आहुति से मन नहीं भरता, अबोधों का बलिदान चाहता है।
जो कलंक हैं मानवता के, उनपर ही अपनी कृपा दिखाते हो
जो इंसानी धर्म निभाते, उन्हें जीते जी तुम नरक दिखाते हो।
तुमने कहा था, जो तुम चाहो वही होता, इशारे से तुम्हारे चलती है दुनिया
तुम्हारी इच्छा के विपरीत, कोई क्षण भी न गुज़रता, न ही दुनिया की रीत है बदलता।
फिर क्या समझूँ, ये तुम्हारी लीला है?
हिंसा और अत्याचार का, ये तुम्हें कैसा नशा है?
विपदाओं के पहाड़ तले, दिलासा का झूठा भ्रम, क्यों देते हो?
पाखंडी धर्म-गुरुओं का ऐसा क़ौम क्यों उपजाते हो?
कैसे कहते हो तुम, कि कलियुग में ऐसा ही घोर अनर्थ होगा
क्या तुम्हारे युग में आतंक और अत्यचार न हुआ था?
तुम तो ईश्वर हो, फिर क्यों जन्म लेना पड़ा था तुम्हें सलाख़ों के अंदर?
कहाँ थी तुम्हारी शक्ति, जब तुम्हारी नवजात बहनों की निर्मम हत्या होती रही?
औरत को उस युग में भी, एक वस्तु बनाकर पाँच मर्दों में बाँट दिया
अर्धनग्न नारी को जग के सामने शर्मसार कर, ये कैसा खेल दिखाया?
कौरव-पांडव का युद्ध करा कर, रिश्तों को दुश्मनी का पाठ सिखाया
अपनों की हत्या करने का, संसार का ये कैसा अजब रूप दिखाया?
क्या और कोई तरीका नहीं था?
रिश्तों की परिभाषा का?
जीवन के दर्शन का?
समाज के उद्धार का?
विश्व के विघटन का?
तुम्हारी शक्ति का?
उस युग के अंत का?
धर्म-जाति सब बँट चुके, रिश्तों का भी क़त्ल हुआ
तुम्हारी सत्ता में था अँधियारा फैला, फिर मानव से कैसे उम्मीद करें?
द्वापर का जो धर्म था, वो तुम्हारे समय का सत्य था
अब अपनी गीता में, इस कलियुग की बात कहो।
कृष्ण! आओ, इस युग में आकर इंसानी धर्म सिखाओ
अवतरित होकर, एक बार फिर जगत का उद्धार करो।
प्रेम-सद्भाव का संसार रचाकर, एक नया युग बसाओ
आज के युग के लिए, समकालीन एक नयी गीता लिखो।
- जेन्नी शबनम (24. 6. 2009)
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achchhi kavita hae
जवाब देंहटाएंGood work! I think Hindi allow that extra dash of emotion.
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