शनिवार, 18 जुलाई 2009

73. मेरी ज़िन्दगी

मेरी ज़िन्दगी

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ज़िन्दगी मेरी 
कई रूप में सामने आती है
ज़िन्दगी को पकड़ सकूँ
दौड़ती हूँ, भागती हूँ, झपटती हूँ
साबूत न सही
कुछ हिस्से तो पा लूँ  

हर बार ज़िन्दगी हँसकर
छुप जाती है
कभी यूँ भाग जाती है 
जैसे मुँह चिढ़ा रही हो
कभी कुछ हिस्से नोच भी लूँ
तो मुट्ठी से फिसल जाती है 

जाने जीने का शऊर नहीं मुझको
या हथेली छोटी पड़ जाती है
न पकड़ में आती, न सँभल पाती है 
मुझसे मेरी ज़िन्दगी 

- जेन्नी शबनम (18. 7. 2009)
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2 टिप्‍पणियां:

  1. aapki is post ke jawaab mein sirf Gulzaar Saa'b ki ek nazm kahoongi " Ae zindgi....pahle se likha kuch bhi nahi .....roz naya kuch likht hain tu, jo bhi likha hai dil se jiya hain...... ye lamha filhaal jee lene de

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  2. न पकड़ पाती न संभल पाती,
    मुझसे मेरी ज़िन्दगी|...........

    bahut sundar ..:)

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