रविवार, 6 नवंबर 2011

298. ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है

ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है

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तुम्हारी निशानदेही पर
साबित हुआ कि ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है
और कहाँ-कहाँ से उजड़ गई है
। 
एक लोकोक्ति की तरह
तुम बसे हो मुझमें
जिसे पहर-पहर दोहराती हूँ
या फिर देहात की औरतें
जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
रोपनी करती हैं या फिर
धान कूटते हुए लोकगीत गाती हैं
मुझमें वैसे ही उतर गए तुम
हर दिवस के अनुरूप
। 
जब मैं रात्रि में अपने केंचुल में समाती हूँ
जैसे तुम्हारे आवरण को ओढ़ लिया हो
और महफूज़ हूँ
फिर ख़ुद में ख़ुद को तलाशती हूँ
तुम झटके से आ जाते हो
जैसे रात के सन्नाटे में
पहरु के बोल और झींगुर के शोर
। 
मेरे केंचुल को किसी ने जला दिया
मैं इच्छाधारी
जब तुम्हारे संग अपने सच्चे वाले रंग में थी
मैं महरूम कर दी गई
अपनी जात से और औक़ात से
। 
अब तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
ताकि वापस ज़िन्दगी मिले
और तुम्हारी निशानदेही पर
अपना नया केंचुल उगा लूँ
जिससे मेरी पहचान हो
और मुझमें वो रंग वापस उतर जाए
जिसे मैं दुनिया से ओझल हो
जीती हूँ
। 

- जेन्नी शबनम (6. 11. 2011)
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19 टिप्‍पणियां:

  1. ्शानदार भावाव्यक्ति।

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  2. गहन अनुभूतियों से भरी निश्छल बात कितनी सरलता से कह जाती है आप जेन्नी जी इस प्रवाहमय काव्य के लिए बधाई

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  3. बहुत ही सार्थक प्रस्तुति ! मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । बधाई !

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  4. मेरे केंचुल को किसी ने जला दिया
    मैं इच्छाधारी
    जब तुम्हारे संग
    अपने सच्चे वाले रंग में थी,
    मैं महरूम कर दी गई
    अपनी जात से
    और औकात से !
    अब
    तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
    ताकि वापस ज़िन्दगी मिले,
    और तुम्हारी निशानदेही पर
    अपना नया केंचुल उगा लूं
    जिससे मेरी पहचान हो
    और मुझमें वो रंग वापस उतर जाए
    जिसे मैं दुनिया से ओझल हो
    जीती हूँ !... gahan sukshmta

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  5. एक अच्छी और गहन रचना. की प्रस्तुति के लिए धन्यवाद । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  6. इससे भी पहले उनकी शिनाख्त करनी होगी जो शिनाख्त मिटाने में माहिर हैं

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  7. "तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
    ताकि वापस ज़िन्दगी मिले,
    और तुम्हारी निशानदेही पर
    अपना नया केंचुल उगा लूं
    जिससे मेरी पहचान हो "

    नारी जीवन का मर्म ! स्वयं की पह्चान कभी पिता में, कभी पति में और कभी पुत्रों में सतत तलाशती रहती है।
    बहुत सुंदर !

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  8. तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
    ताकि वापस ज़िन्दगी मिले,
    और तुम्हारी निशानदेही पर
    अपना नया केंचुल उगा लूं
    जिससे मेरी पहचान हो
    और मुझमें वो रंग वापस उतर जाए
    जिसे मैं दुनिया से ओझल हो
    जीती हूँ !...

    nice poem mam...

    aapki rachna padhkar bas yahi dhayan aaya ki....,,,

    jindgi me bahut hain dard,
    ab to aa jao bankar hamdard...

    jai hind jai bharat

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  9. kya baat hai her shabd jaise dil me utar gaya....bahut sundar.

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  10. अब
    तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
    ताकि वापस ज़िन्दगी मिले,
    और तुम्हारी निशानदेही पर
    अपना नया केंचुल उगा लूं
    जिससे मेरी पहचान हो
    और मुझमें वो रंग वापस उतर जाए
    जिसे मैं दुनिया से ओझल हो
    जीती हूँ !

    आपकी .यह कविता हकीकत को दर्शाती है । बहुत ही अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

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  11. तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
    ताकि वापस ज़िन्दगी मिले,....बहुत सुन्दर!!

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  12. बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति । शुभकामनाएँ ।

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  13. तुम्हारी निशानदेही पर
    अपना नया केंचुल उगा लूं
    जिससे मेरी पहचान हो
    और मुझमें वो रंग वापस उतर जाए
    जिसे मैं दुनिया से ओझल हो
    जीती हूँ !
    शबनम जी आपके ब्लॉग पर पहली बार आई और एक सुंदर कविता से मुलाकात हुई । आप का बहुत धन्यवाद जो आपने मेरे ब्लॉग पर आकर रचना के सराहा । स्नेह बनाये रखें ।

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  14. जेन्नी जी ज़िन्दगी कहाँ कहाँ -कविता में आपके भाव तो मन को उद्वेलित करने वाले हैं ही साथ ही आपके भाषिक प्रयोग भी कम महत्त्व के नहीं। लोकोक्ति की तरह जिसे पहर पहर दोहराती हूँ,
    या फिर देहात की औरतें
    जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
    रोपनी करती हैं
    तुम बसे हो मुझमें-महत्त्वपूर्ण होने के साथ ही लोकोक्ति के रचने -बसने को स्वरूप प्रदान करता है तो यहाँ लोकगीत की मार्मिक शक्ति का अहसास कराती है ।-''
    धान कूटते हुए
    लोक गीत गाती हैं,
    मुझमें वैसे हीं उतर गए तुम''हर तरह से उत्तम काव्य के गुणों से ओतप्रोत रचना। इस तरह की उदत्त रचनाएँ विरल ही नज़र आती हैं । बहुत बधाई

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  15. देहात की औरतें
    जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
    रोपनी करती हैं या फिर
    धान कूटते हुए
    लोक गीत गाती हैं,
    मुझमें वैसे हीं उतर गए तुम

    अद्भुत बिम्ब प्रयोग!

    एक और

    एक लोकोक्ति की तरह
    तुम बसे हो मुझमें
    जिसे पहर पहर दोहराती हूँ,

    मंत्रमुग्ध हूं इन प्रयोगों पर।
    ज़िन्दगी में परिवर्तन के साथ यदि खुद के अस्तित्व का अहसास भी होने लगे तो ज़िन्दगी का सही अर्थ सामने आता है।

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  16. खुद को तलाश करती .. अपनी पहचान को ढूंढती लाजवाब रचना है ...

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  17. आपकी इस कविता को हमने “आंच” पर लिया है। कृपया इस लिंक पर देखें
    http://manojiofs.blogspot.com/2011/11/95.html

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