शनिवार, 12 मई 2012

345. कैसे बनूँ शाइर

कैसे बनूँ शायर 

*******

मैं नहीं हूँ शाइर 
जो शब्दों को पिरोकर, कोई ख़्वाब सजाऊँ
नज़्मों और ग़ज़लों में, दुनिया बसाऊँ
मुझको नहीं दिखता, चाँद में महबूब
चाँद दिखता है यूँ, जैसे रोटी हो गोल 
मैं नहीं हूँ शाइर, जो बस गीत रचूँ   
सारी दुनिया को भूल 
प्रिय की बाहों को जन्नत कहूँ

मुझको दिखती है, ज़िन्दगी की लाचारियाँ 
पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ 
क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
सरेआम बिक जाती, मिट जाती किसी माँ की दुलारियाँ
ख़ुद को महफ़ूज़ रखने में नाकामयाब कलियाँ
मुझे दिखता है, सूखे सीने से चिपका मासूम
और भूख से कराहती उसकी माँ
वैतरणी पार कराने के लिए, क़र्ज़ में डूबा किसी बेवा का बेटा
और वो भी, जिसे आरक्षण नाम के दैत्य ने कल निगल लिया   
क्योंकि उसकी जाति, उसका अभिशाप थी  
और हर्जाने में उसे अपनी ज़िन्दगी देनी पड़ी

कैसे सोचूँ कि ज़िन्दगी एक दिन 
सुनहरे रथ पर चलकर, पाएगी सपनों की मंज़िल   
जहाँ दुःख दर्द से परे कोई संसार है
दिखता है मुझे, किसी बुज़ुर्ग की झुर्रियों में 
वक़्त की नाराज़गी का दंश  
अपने कोखजने से मिले दुत्कार और निर्भरता का अवसाद
दिखता है मुझे, उनका अतीत और वर्तमान 
जो अक्सर मेरे वर्तमान और भविष्य में तब्दील हो जाता है

मन तो मेरा भी चाहता है
तुम्हारी तरह शाइर बन जाऊँ 
प्रेम-गीत रचूँ और ज़िन्दगी बस प्रेम ही प्रेम हो  
पर तुम्हीं बताओ, कैसे लिखूँ तुम्हारी तरह शाइरी 
तुमने तो प्रेम में हज़ारों नज़्में लिख डाली  
प्रेम की परकाष्ठा के गीत रच डाले 
निर्विरोध, अपना प्रेम-संसार बसा लिया
मैं किसके लिए लिखूँ प्रेम-गीत?
नहीं सहन होता बार-बार हारना, सपनों का टूटना 
छले जाने के बाद फिर से उम्मीद जगाना
डरावनी दुनिया को देखकर 
आँखें मूँद सो जाना और सुन्दर सपनों में खो जाना

मेरी ज़िन्दगी तो बस यही है कि 
लोमड़ी और गिद्धों की महफ़िल से बचने के उपाय ढूँढूँ 
अपने अस्तित्व के बचाव के लिए 
साम, दाम, दंड, भेद अपनाते हुए 
अपनी आत्मा को मारकर 
इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में, रोज़-रोज़ मरूँ
मैं शाइर नहीं, बन पाना मुमकिन भी नहीं  
तुम ही बताओ, कैसे बनूँ मैं शाइर? 
कैसे लिखूँ?
प्रेम या ज़िन्दगी!

- जेन्नी शबनम (12. 5. 2012)
_____________________

22 टिप्‍पणियां:

  1. नहीं लिखी जा सकते प्रेमगीत और ना रचे जा सकते है महाकाव्य ....और हम कवि है भी नहीं ... विचारो को उकसाती

    जवाब देंहटाएं
  2. मुझको दिखती है
    जिंदगी की लाचारियाँ
    पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ
    क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
    सरे आम बिक जाती
    मिट जाती
    किसी माँ की दुलारियाँ

    दर्द जब हद से गुजर जाता है ,
    तब लम्हों का सफ़र बन जाता है ..
    आपकी साफ़गोई को सलाम .
    इन्सां अल्लाह

    जवाब देंहटाएं
  3. सत्यमेव जयते ||
    खूबसूरत प्रस्तुति ||

    प्रेम-पंथ भाए कहाँ, विकट जगत जंजाल |
    चलिए उत्तर खोजिये, सम्मुख कठिन सवाल |

    सम्मुख कठिन सवाल, भ्रूण में मरती बाला |
    बिगड़ रहे सुरताल, समय करता मुंह काला |

    रविकर नारी आज, पुन: छोड़ी सुख-शैया |
    करना ठीक समाज, पिता बाबा पति भैया ||

    जवाब देंहटाएं
  4. एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
    यही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!

    जवाब देंहटाएं
  5. Kya khoob kaha hai aapne....mere paas aur kuchh kahne ke liye alfaaz nahee hain!

    जवाब देंहटाएं
  6. मेरी जिंदगी तो बस यही है कि
    लोमड़ी और गिद्धों की महफ़िल से
    बचने के उपाय ढूँढूँ
    अपने अस्तित्व के बचाव के लिए
    साम दाम दंड भेद
    अपनाते हुए
    अपनी आत्मा को मारकर
    इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में
    रोज रोज मरूँ,.... लिखूं तो क्या और कैसे ? ! गहरी अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  7. अपनी आत्मा को मारकर
    इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में
    रोज रोज मरूँ,,,,,,,,,,,

    भाव पुर्ण सुंदर अभिव्यक्ति,.....

    MY RECENT POST ,...काव्यान्जलि ...: आज मुझे गाने दो,...

    जवाब देंहटाएं
  8. सच है ऐसे में शायर बनना मुश्किल है ...
    पर कलम कों हथियार बना देना चाहिए ऐसे में .. विप्लव की चिंगारियां उठने लग जाएँ ...

    जवाब देंहटाएं
  9. मुझको दिखती है
    जिंदगी की लाचारियाँ
    पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ
    क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
    सरे आम बिक जाती
    मिट जाती
    किसी माँ की दुलारियाँ....जिन्दगी के सच को दर्शाती..सार्थक और सशक्त अभिव्यक्ति....बहुत सुन्दर..

    जवाब देंहटाएं




  10. आदरणीया डॉ.जेन्नी शबनम जी
    नमस्कार !

    हर किसी के दुख दर्द को देखा है आपने …
    मुझको दिखती है जिंदगी की लाचारियाँ
    पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ
    क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
    सरे आम बिक जाती मिट जाती किसी माँ की दुलारियाँ
    खुद को महफूज़ रखने में नाकामयाब कलियाँ,
    मुझे दिखता है सूखे सीने से चिपका मासूम
    और भूख से कराहती उसकी माँ
    वैतरणी पार कराने के लिए क़र्ज़ में डूबा किसी बेवा का बेटा
    और वो भी जिसे आरक्षण नाम के दैत्य ने कल निगल लिया

    आपकी संवेदनशीलता अंदर तक छू रही है …
    लेखनी की सार्थकता स्वयं सिद्ध कर दी आपने …
    नमन !

    हार्दिक शुभकामनाएं !

    मंगलकामनाओं सहित…

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

    जवाब देंहटाएं
  11. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  12. तुमने तो प्रेम में हज़ारों नज़्में लिख डाली
    प्रेम की परकाष्ठा के गीत रच डाले
    निर्विरोध
    अपना प्रेम-संसार बसा लिया
    मैं किसके लिए लिखूं प्रेम-गीत?

    सच कहा...............
    कैसे बनूँ शायर??????

    जवाब देंहटाएं
  13. जीवन के यथार्थ से रु ब रु कराती एक सुंदर रचना
    बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  14. सब कुछ समेट लिया... एक जिम्मेदार रचना...
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  15. इतने सारे गहरे यथार्थ से जुड़े सवाल हैं की उन से भाग नहीं सकते. संभवत: प्रेम गीत लिखने का वक्त नहीं ऐसे ही यथार्थ गीत लिखने का है, मानवों में मानवता ढूँढने का है. मेरे पास शब्द नहीं है आपकी कविता के सम्मान में कहने को, उत्तम रचना.

    आभार
    फणि राज

    जवाब देंहटाएं
  16. मैं नहीं हूँ शायर
    जो शब्दों को पिरोकर
    कोई ख्वाब सजाऊँ
    नज्मों और गज़लों में
    दुनिया बसाऊँ,
    मुझको नहीं दिखता
    चाँद में महबूब
    चाँद दीखता है यूँ
    जैसे रोटी हो गोल
    मैं नहीं हूँ शायर
    जो बस गीत रचूँ
    सारी दुनिया को भूल
    प्रियतम की बाहों को जन्नत कहूँ.
    बहुत बेहतरीन कविता |

    जवाब देंहटाएं
  17. ''कैसे बनूँ शायर ?" कविता में विचारों की एक -एक पर्त बड़ी बेवाकी से खुलती है । जेन्नी जी की एक विशेषता और है और वह है अभिव्यक्ति की अविच्छन्न भावधारा । ये पंक्तियाँ उसी गहन एवं चुनौतीपूर्ण सोच का हिस्सा है-
    कैसे सोचूँ कि जिंदगी एक दिन
    सुनहरे रथ पर चलकर
    पाएगी सपनों की मंजिल
    जहां दुःख दर्द से परे कोई संसार है,
    दिखता है मुझे
    किसी बुज़ुर्ग की झुर्रियों में
    वक्त की नाराजगी का दंश
    अपने कोख-जाए से मिले दुत्कार
    और निर्भरता का अवसाद
    दिखता है मुझे
    उनका अतीत और वर्तमान
    जो अक्सर मेरे वर्तमान और भविष्य में
    तब्दील हो जाता है.

    जवाब देंहटाएं
  18. अपने अस्तित्व के बचाव के लिए
    साम दाम दंड भेद
    अपनाते हुए
    अपनी आत्मा को मारकर
    इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में
    रोज रोज मरूँ,

    जीवन की दो धाराओं के मध्य कुछ तलाशता हुआ कवि-मन।

    जवाब देंहटाएं
  19. आ हा क्या कविता कही है....

    जवाब देंहटाएं
  20. आह! मार्मिक..शतशः सत्य.. गहन संवेदनाएं...
    सादर

    जवाब देंहटाएं