शुक्रवार, 15 जून 2012

351. मैं कहीं नहीं

मैं कहीं नहीं

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हर बार की तरह
निष्ठुर बन, फिर चले गए तुम
मुझे मेरे प्रश्नों में जलने के लिए छोड़ गए  
वो प्रश्न जिसके उत्तर तलाशती हुई मैं
एक बार जैसे नदी बन गई थी 
और बिरहा के आँसू, बरखा की बूंदों में लपेट-लपेटकर 
नदी में प्रवाहित कर रही थी
और ख़ुद से पूछती रही, क्या सिर्फ मैं दोषी हूँ?

क्या उस दिन मैंने कहा था कि 
चलो चलकर चखें उस झील के पानी को
जिसमें सुना है 
कभी किसी राजा ने अपनी प्रेमिका के संग 
ठिठुरते ठण्ड में स्नान किया था 
ताकि काया कंचन-सी हो जाए
और अनन्त काल तक वे चिर युवा रहें।  

वो पहला इशारा भी तुमने ही किया 
कि चलो चाँदनी को मुट्ठी में भर लें
क्या मालूम मुफ़लिसी के अँधेरों का 
जाने कब ज़िन्दगी में अँधियारा भर जाए
मुट्ठी खोल एक दूसरे के मुँह पर झोंक देंगे 
होठ ख़ामोश भी हो 
मगर आँखें तो देख सकेंगी एक झलक। 

और उस दिन भी तो तुम ही थे न
जिसने चुपके से कानों में कहा था-
''मैं हूँ न, मुझसे बाँट लिया करो अपना दर्द''
अपना दर्द भला कैसे बाँटती तुमसे
तुमने कभी ख़ुशी भी सुननी नहीं चाही 
क्योंकि मालूम था तुम्हें, मेरे जीवन का अमावस
जानती थी, तुमने कहने के लिए सिर्फ़ कहा था 
''मैं हूँ न'' मानने के लिए नहीं। 

एक दिन कहा था तुमने  
''वक़्त के साथ चलो''
मन में बहुत रंजिश है तुम्हारे लिए भी 
और वक़्त के लिए भी 
फिर भी चल रही हूँ वक़्त के साथ 
रोज़-रोज़ प्रतीक्षा की मियाद बढ़ाते रहे तुम
मेरे संवाद और संदेश फ़ुज़ूल होते गए 
वक़्त के साथ चलने का मेरा वादा, अब भी क़ायम है  
सवाल करना तुम ख़ुद से कभी  
कोई वादा कब तोड़ा मैंने?
वक़्त से बाहर कब गई भला?
क्या उस वक़्त, मैं वक़्त के साथ नहीं चली थी?

कितनी लंबी प्रतीक्षा
और फिर जब सुना ''मैं हूँ न'' 
उसके बाद ये सब कैसे
क्या सारी तहज़ीब भूल गए?
मेरे सँभलने तक रुक तो सकते थे 
या इतना कहकर जाते 
''मैं कहीं नहीं''
कम-से-कम प्रतीक्षा का अंत तो होता।  

तुम बेहतर जानते हो 
मेरी ज़िन्दगी तो तब भी थी, तुम्हारे ही साथ
अब भी है, तुम्हारे ही साथ
फ़र्क यह है कि तुम अब भी नहीं जानते मुझे  
और मैं, तुम्हें कतरा-कतरा जीने में 
सर्वस्व पी चुकी हूँ। 

- जेन्नी शबनम (10. 6. 2012)
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18 टिप्‍पणियां:

  1. 'मैं कहीं नहीं' कविता में हर एक शब्द अनुपम सौन्दर्य को बांधे हुए है , बौद्धिकता की मरुभूमि से कोसों दूर । जेन्नी शबनम की कविताएँ पढ़ते हुए लगता है कि यह कवयित्री सचमुच असाधारण है , भाव इनके अनुगामी होकर चलते हैं । इस कविता को पढ़कर लगता है जैसे भीषण लू-लपट झेलने के बाद हम किसी शीतल झरने के पास पहुँच गए हैं । कम से कम मैं अपने लिए यह कह सकता हूँ कि ऐसी कविता रचने के लिए मुझे अभी और लम्बी यात्रा करनी पड़ेगी । ये पंक्तियाँ मन को छू लेती हैं-
    तुम बेहतर जानते हो
    मेरी जिन्दगी तो तब भी थी तुम्हारे ही साथ
    अब भी है तुम्हारे ही साथ
    फर्क ये है कि तुम अब भी नहीं जानते मुझे
    और मैं तुम्हें
    कतरा-कतरा जीने में
    सर्वस्व पी चुकी हूँ.''

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  2. JITNEE SUNDAR BHASHA UTNE HEE SUNDAR
    BHAAV . ACHCHHEE KAVITA KE LIYE
    AAPKO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .

    जवाब देंहटाएं
  3. JITNEE SUNDAR BHASHA UTNE HEE SUNDAR
    BHAAV . ACHCHHEE KAVITA KE LIYE
    AAPKO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .

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  4. नारी है ना ...पूर्ण समर्पण ही जानती है ...चाहती भी वही है पर मिलता कहाँ है ...सारे भाव सच्चे
    दिन-ब-दिन

    तुम चढ़ रहे हो
    सीढ़िया सफलता की
    मैं थक रही हूँ
    नहीं चल पाती
    उस रफ़्तार से
    शायद मैं फिर
    जुटा सकूँ
    कतरा कतरा हिम्मत
    जो हाँथ थाम लो
    तुम प्यार से

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  5. आपकी नज़्म पढने से ऐसा लगता है कि आप यह मानती हैं कि शायरी का मतलब कुछ कह देना नहीं होता है, यानी शायरी में वाचालता आपको मंज़ूर नहीं है। आप ख़ामोशी के कायल हैं। आपकी शायरी में खामोशी जो है वह कई अर्थ और रंग लिए हुए है।

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  6. उसे प्रश्न छोड़ जाने की आदत है
    मुझे उलझने की
    इस अपने विश्वास से मैं मुक्त क्यूँ नहीं होती !

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  7. बहुत खुबसूरत रचना... जेन्नी जी...

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  8. और उस दिन भी तो तुम ही थे न
    जिसने चुपके से कानों में कहा था
    ''मैं हूँ न, मुझसे बाँट लिया करो अपना दर्द''

    बहुत सुंदर भाव लिये बेहतरीन रचना,,,,,

    RECENT POST पर याद छोड़ जायेगें

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  9. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (17-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (17-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  11. अत्यंत भाव प्रणव रचना
    मेरी जिन्दगी तो तब भी थी तुम्हारे ही साथ
    अब भी है तुम्हारे ही साथ
    फर्क ये है कि तुम अब भी नहीं जानते मुझे
    और मैं तुम्हें
    कतरा-कतरा जीने में
    सर्वस्व पी चुकी हूँ.''....

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  12. 'तुम बेहतर जानते हो
    मेरी जिन्दगी तो तब भी थी तुम्हारे ही साथ
    अब भी है तुम्हारे ही साथ
    फर्क ये है कि तुम अब भी नहीं जानते मुझे '
    - साथ रह लेने भऱ से कोई जान थोड़े ही पाता है !

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  13. बहुत ही सुन्दर
    भावपूर्ण रचना....
    :-)

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  14. तुम बेहतर जानते हो
    मेरी जिन्दगी तो तब भी थी तुम्हारे ही साथ
    अब भी है तुम्हारे ही साथ
    फर्क ये है कि तुम अब भी नहीं जानते मुझे ' इक-इक शब्द ने झकझोर कर रख दिया...... क्या कहू निशब्द हूँ......

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  15. वाह बहुत खूबसूरत अहसास बधाई
    http://madan-saxena.blogspot.in/
    http://mmsaxena.blogspot.in/
    http://madanmohansaxena.blogspot.in/

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