रविवार, 3 मार्च 2013

387. ज़िन्दगी स्वाहा (क्षणिका)

ज़िन्दगी स्वाहा

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कब तक आख़िर मेढ़क बन कर रहें
आओ संग-संग,एक बड़ी छलाँग लगा ही लें 
पार कर गए तो मंज़िल 
गिर पड़े तो वही दुनिया, वही कुआँ, वही कुआँ के मेढ़क 
टर्र-टर्र करते एक दूसरे को ताकते, ज़िन्दगी स्वाहा। 

- जेन्नी शबनम (3. 3. 2013)
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15 टिप्‍पणियां:

  1. एक कोशिश तो बनती है ...!

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  2. वही कुआँ के मेढक...
    टर्र-टर्र करते
    एक दूसरे को ताकते
    ज़िंदगी स्वाहा..bahut sahi kaha

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  3. वाह....!
    बहुत बढ़िया...!
    आपकी इस पोस्ट का लिंक आज सोमवार के चर्चा मंच पर भी है।

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  4. एक कोशिश तो बनती है न ...!!!

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  5. कुएँ से बाहर तो छलाँग लगाना ही पडेगा,सुन्दर प्रस्तुति.

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  6. बहुत खूब सुन्दर लाजबाब अभिव्यक्ति।।।।।।

    मेरी नई रचना
    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?

    ये कैसी मोहब्बत है

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत खूब सुन्दर लाजबाब अभिव्यक्ति।।।।।।

    मेरी नई रचना
    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?

    ये कैसी मोहब्बत है

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  8. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 5/3/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है|

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  9. कब तक आखिर मेढ़क बन कर रहें
    आओ संग-संग
    एक बड़ी छलांग लगा ही लें
    पार कर गए तो
    मंजिल

    एक लाइन याद आई
    आसमान में भी छेद हो सकता है
    एक बार जमकर पत्थर तो उछालो यारों।
    नैराश्य नहीं आशा की डोर थामे आगे बढ़ें .
    मंजिल खुद ब खुद सामने होगी ..

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  10. कोशिश जरूरी है ...
    हर कर्म के लिए ... सुन्दर संदेशात्मक रचना ...

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  11. पार कर गए तो
    मंजिल...risk to lena hi padega ...bahut sundar...pankti....

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