मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

484. मन! तुम आज़ाद हो जाओगे

मन! तुम आज़ाद हो जाओगे  

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अक्स मेरा मन मुझसे उलझता है  
कहता है- 
वो सारे सच जिसे मन की तलहटी में  
जाने कब से छुपाया है मैंने  
जगज़ाहिर कर दूँ।  
चैन से सो नहीं पाता है वो
सारी चीख़ें, हर रात उसे रुलाती हैं
सारी पीड़ा भरभराकर  
हर रात उसके सीने पर गिर जाती हैं  
सारे रहस्य हर रात कुलबुलाते हैं
और बाहर आने को धक्का मारतें हैं    
इस जद्दोज़हद में गुज़रती हर रात  
यूँ लगता है 
मानो आज आख़िरी है।  
लेकिन सहर की धुन जब बजती है  
मेरा मन ख़ुद को ढाढ़स देता है
बस ज़रा-सा सब्र और कर लो
मुमकिन है एक रोज़ 
जीवन से शब बिदा हो जाएगी  
उस आख़िरी सहर में  
मन! तुम आज़ाद हो जाओगे।  

- जेन्नी शबनम (10. 2. 2015)
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7 टिप्‍पणियां:

  1. लेकिन सहर की धुन जब बजती है
    मेरा मन ख़ुद को ढाढ़स देता है
    बस ज़रा-सा सब्र और कर लो
    मुमकिन है
    एक रोज़ जीवन से शब बिदा हो जाएगी
    उस आखिरी सहर में
    मन ! तुम आज़ाद हो जाओगे

    बेहतरीन पंक्तियाँ |

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  2. ये भाव है मन का जो बखूबी उतारा है शब्दों में ...
    पर रात के बाद सहर तो जरूर आती है ...

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12-02-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा -1887 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  4. आह ये मन के आजाद हो पाने का खयाल कितना सुकून दे जाता है।

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  5. सच जग जाहिर हों या न हों पर कभी-कभी मन से बात करके बड़ा सुकून मिलता है। लगता है कि कोई तो है जो मुझे सुन रहा है। जिससे मैं अपने मन की साडी बाते कह सकूँ बिना किसी भय के...बेहतरीन।

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