रविवार, 15 मार्च 2015

491. युद्ध (क्षणिका)

युद्ध

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अबोले शब्द पीड़ा देते हैं
छाती में बहता ख़ून धक्के मारने लगा है
नियति का बहाना अब पुराना-सा लगता है,
जिस्म के भीतर मानो अँगारे भर दिए गए हैं  
जलते लोहे से दिल में सुराख़ कर दिए गए हैं
फिर भी बिना लड़े बाज़ी जीतने तो न देंगे
हाथ में क़लम ले जिगर चीर देने को मन उतावला है
बिगुल बज चूका है, युद्ध का प्रारंभ है।

- जेन्नी शबनम (15. 3. 2015)
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9 टिप्‍पणियां:

  1. अन्याय के विरुध जंग जारी रखनी चाहिए ... अन्धेरा छट जाता है .. युद्ध के लिए तैयार रहना होता है पल पल ...

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  2. सुंदर और सार्थक सृजन

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  3. बहुत प्रेरक और सुंदर अभिव्यक्ति..

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