सोमवार, 17 जुलाई 2017

552. मुल्कों की रीत है (तुकांत)

मुल्कों की रीत है  

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कैसा अजब सियासी खेल है, होती मात न जीत है
नफ़रत का कारोबार करना, हर मुल्कों की रीत है। 

मज़हब व भूख पर, टिका हुआ सारा दारोमदार है
ग़ैरों की चीख-कराह से, रचता ज़ेहादी गीत है।   

ज़ेहन में हिंसा भरा, मानव बना फौलादी मशीन  
दहशत की ये धुन बजाते, दानव का यह संगीत है।   

संग लड़े जंगे-आज़ादी, भाई-चारा याद नहीं  
एक-दूसरे को मार-मिटाना, बची इतनी प्रीत है  

हर इंसान में दौड़ता लाल लहू, कैसे करें फ़र्क  
यहाँ अपना पराया कोई नहीं, 'शब' का सब मीत है।   

- जेन्नी शबनम (17. 7. 2017)  
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14 टिप्‍पणियां:

  1. "ज़ेहन में हिंसा भरा, मानव बना फौलादी मशीन
    दहशत की ये धुन बजाते, दानव का यह संगीत है!"......

    मौज़ूदा माहौल की पड़ताल करती शानदार अभिव्यक्ति। नफ़रत का क़ारोबार आजकल वैश्विक महामारी के रूप में ख़ूब फलफूल रहा है। लहू का रंग सबका एक है उसके अवयव भी एक हैं तभी तो जान बचाने के लिए ब्लड बैंक से अपने मरीज़ के लिए ख़ून लेते वक़्त रक्तदाता का मज़हब या जाति नहीं पूछी जाती केवल ब्लड ग्रुप जानने की दरक़ार होती है।
    सामयिक सारगर्भित रचना व्यापक सन्देश के साथ। आपको बधाई ऐसे सृजन के लिए।

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  2. सत्य कहा आदरणीय ,इस संसार में केवल मानव धर्म सत्य है और सभी मिथ्या
    बहुत ख़ूब ! सुन्दर रचना आदरणीय आभार "एकलव्य"

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (19-07-2017) को "ब्लॉगरों की खबरें" (चर्चा अंक 2671) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत सुन्दर ,आभार। "एकलव्य"

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  5. सोचने को मजबूर करती रचना

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  6. सटीक लिखा है ... काश की सब लोग इतनी समझ रखते ... पर लहू को भी अलग अलग रंग देने में लगे हैं सब ...

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  7. परायों के खून से तृप्ति पाना रक्तबीजी मानसिकता का पता देती है.

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  8. लोग किसानी छोड़-छोड़कर कारखाने की चिमनियों की तरफ भाग रहे हैं. दिल्ली जैसे शहरों में कभी खुले आसमान की ताज़ी हवा में सांस लेने वाले आज 20 गज के कमरे में 10-10 लोग दम-घुटाऊ नारकीय जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं.

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  9. waah bahut khoob behtareen rachna

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