फ्लाईओवर
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एक उम्र नहीं, एक रिश्ता नहीं
कई किस्तों में, कई हिस्सों में
बीत जाता है जीवन
किसी फ़्लाइओवर के नीचे
प्लास्टिक के कनात के अंदर
एक सम्पूर्ण एहसास के साथ।
गुलाब का गुच्छा
सस्ती किताब
सस्ते खिलौने
जिनपर उनका हक़ होना था
बेच रहे पेट की ख़ातिर,
काग़ज़ और कपड़े के तिरंगे झंडे
आज बेचते कल कूड़े से उठाते
मस्त मौला, तरह-तरह के करतब दिखाते
और भी जाने क्या-क्या है
जीवन गुजारने का उनका जरिया।
आज यहाँ कल वहाँ
पूरी गृहस्थी चलती है
इस यायावरी में फूल भी खिलते हैं
वृक्ष वृद्ध भी होते हैं
जाने कैसे प्रेम पनपते हैं,
वहीं खाना वहीं थूकना
बदबू से मतली नहीं
ग़ज़ब के जीवट, गज़ब का ठहराव,
जो है उतने में हँसते
कोई सोग नहीं, कोई बैर नहीं
जो जीवन उससे संतुष्ट
और ज़्यादा की चाह नहीं,
आखिर क्यों?
न अधिकार चाहिए
न सुधार चाहिए।
बस यूँ ही
पुश्त दर पुश्त
खंभे की ओट में
कूड़े के ढेर के पास
फ़्लाइओवर के नीचे
देश का भविष्य तय करता है
जीवन का सफ़र।
- जेन्नी शबनम (14. 11. 2017)
(बाल दिवस)
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Waah !
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