मंगलवार, 23 जून 2020

674. इनार

इनार 

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मन के किसी कोने में   
अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें।     
रस्सी का एक छोर पकड़   
छपाक-से कूदती हुई बाल्टी   
इनार पर लगी हुई चकरी से   
एक सुर में धीरे-धीरे ऊपर चढ़ती बाल्टी   
टन-टन करती बड़ी बाल्टी, छोटी बाल्टी 
लोटा-कटोरा और बाल्टी-बटलोही   
सब करते रहते ख़ूब बतकही   
दाँत माँजना, बर्तन माँजना   
कपड़ा फींचना, दुःख-सुख गुनना   
ननद-भौजाई की हँसी-ठिठोली   
सास-पतोह की नोक-झोंक   
बाबा-दादी के आते ही, घूँघट काढ़ करती हड़बड़ी   
चिल्ल-पों करते बच्चों का नहाना   
तुरहा-तुरहिन का आकर साँसे भरना   
प्यासे बटोही की अँजुरी में   
बाल्टी से पानी उड़ेल-उड़ेल पिलाना   
लोटा में पानी भरकर सूरज को अर्घ्य देना।   
रोज़-रोज़ वही दृश्य पर इनार चहकता हर दिन   
भोर से साँझ प्यार लुटाता रुके बिन।   
एक सामूहिक सहज जीवन   
समय के साथ बदला मन,   
दुःख-सुख का साथी इनार, अब मर गया है   
चापाकल घर-घर आ गया है।   
परिवर्तन जीवन का नियम है   
पर कुछ बदलाव टीस दे जाता है,   
आज भी इनार बहुत याद आता है।   

- जेन्नी शबनम (23. 6. 2020) 
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10 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 25 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. वो बहुत कुछ जो बहुत पीछे कहीं छूट चुका है, हमेशा साथ रहता है, याद बन कर।

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  3. नॉस्टैल्जिक कर दिया आपने ... अतीत की बातें अनायास याद हो आइ इस रचना को पढ़कर ... लाजवाब ...

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  4. बेहतरीन रचना आदरणीया

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  5. एक सामूहिक सहज जीवन
    समय के साथ बदला मन
    दुख-सुख का साथी ईनार, अब मर गया है
    चापाकल घर-घर आ गया है
    परिवर्तन जीवन का नियम है
    पर कुछ बदलाव टीस दे जाता है
    आज भी ईनार बहुत याद आता है।
    मै आगे पढ़ चुकी रही ,टिप्पणी करने के पहले पड़ोस की शादी से बुलावा आया मंत्री पूजा और माटी मागर की रस्म में शामिल होने के लिए ,10 बजे से निकली 3 बजे लौटी ,कोरोना के कारण फिर नहाई ,खाना खाई और टिप्पणी अब कर रही हूं ,आपकी रचना पढ़कर वहाँ जो भी रस्में निभाई जा रही थी और गीत गाये जा रहे थे जहन में उभरने लगे ,पुरानी कुछ चीजें मिटती जा रही हैं जो नहीं मिटनी चाहिए ,क्योंकि वह हमारी सभ्यता संस्कृति की धरोहर है ,पहचान है ,इनार जैसे कई यादों में शामिल हो गये ,परिवर्तन के इस दौर में जेन्नी जी ,बहुत ही सुंदर रचना , बधाई हो आपको ,

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  6. बाबा-दादी के आते ही
    घूँघट काढ़ करती हड़बड़ी
    चिल्ल-पों करते बच्चों का नहाना
    तुरहा-तुरहिन का आकर साँसे भरना
    प्यासे बटोही की अँजुरी में

    पुरानी यादों का छोटे छोटे टुकड़े सामने से गुज़रने लगे , रोज़मर्रा की ज़िंदगी की भागमभाग में भू गए होते हैं हम जीने ,
    बहुत प्यारी रचना

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  7. हृदय से उठती टीस सहज दिख रही है लेखन में,
    बहुत सुंदर कल की यादों को सरल सहज ढंग से उकेरा है आपने सुंदर मनभावन अभिव्यक्ति।

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