मंगलवार, 16 नवंबर 2021

735. हाँ! मैं बुरी हूँ (पुस्तक- नवधा)

हाँ! मैं बुरी हूँ 

***

मैं बुरी हूँ   
कुछ लोगों के लिए बुरी हूँ   
वे कहते हैं-   
मैं सदियों से मान्य रीति-रिवाजों का 
पालन नहीं करती   
मैं अपने सोच से दुनिया समझती हूँ   
अपनी मनमर्ज़ी करती हूँ, बड़ी ज़िद्दी हूँ।
   
हाँ! मैं बुरी हूँ   
मुझे हर मानव एक समान दिखता है   
चाहे वह शूद्र हो या ब्राह्मण   
चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान   
मैं तथाकथित धर्म का पालन नहीं करती   
मुझे किसी धर्म पर न विश्वास है न आस्था   
मुझे महज़ एक ही धर्म दिखता है- 
इन्सानी प्यार।  
 
मैं औरत होकर वह सब करती हूँ 
जो पुरुषों के लिए जायज़ है   
मगर औरतों के लिए नाजायज़   
जाने क्यों मुझे मित्रता में औरत-मर्द अलग नहीं दिखते   
किसी काम में औरत-मर्द के दायित्व का 
बँटवारा उचित नहीं लगता। 
  
मैं अपने मन का करती हूँ   
घर परिवार को छोड़कर अकेले सिनेमा देखती हूँ   
अकेले कॉफ़ी पीने चाली जाती हूँ   
अपने साथ के लिए किसी से गुज़ारिश नहीं करती।  
 
भाग-दौड़ में मेरा दुपट्टा सरक जाता है   
मैं दुपट्टे को सही से ओढ़ने की तहज़ीब नहीं जानती   
दुपट्टे या आँचल में शर्म क़ैद है, यह सोचती ही नहीं। 
  
समय-चक्र के साथ मैं घूमती रही   
न चाहकर भी वह काम करती रही 
जो समाज के लिए सही है   
भले इसे मानने में हज़ारों बार मैं टूटती रही। 
  
औरतें तो अन्तरिक्ष तक जाती हैं   
मैं घर-बच्चों को जीवन मान बैठी   
ये ही मेरे अन्तरिक्ष, मेरे ब्रह्माण्ड, मेरी दुनिया   
यही मेरा जीवन और यही हूँ मैं। 
  
जीवन में कभी कुछ किया नहीं   
सिर्फ़ अपने लिए कभी जिया नहीं   
धन उपार्जन किया नहीं   
किसी से कुछ लिया नहीं।  
 
जीवन से जो खोया-पाया लिखती हूँ   
अपनी अनुभूतियों को शब्दों में पिरोती हूँ   
जो हूँ बस यही हूँ   
यही मेरी धरोहर है और यही मेरा सरमाया है।  
 
मैं भले बुरी हूँ   
पर रिश्ते या ग़ैर, जो प्रेम दें, वही अपने लगते हैं   
मुझे कोई स्वीकार करे या इनकार   
मैं ऐसी ही हूँ। 
  
जानती हूँ 
मेरे अपने मुझसे बदलने की उम्मीद नहीं करते   
जो चाहते हैं कि मैं ख़ुद को पूरा बदल लूँ   
वे मेरे अपने हो नहीं सकते   
जिसके लिए मैं बुरी हूँ, तों हूँ  
अपने और अपनों के लिए अच्छी हूँ, तो हूँ।  
 
मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मेरे अपने हज़ारों हैं   
उन्हीं के लिए शायद मैं इस जग में आई   
बस उन्हीं के लिए मेरी यह सालगिरह है। 

-जेन्नी शबनम (16.11.2021)
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10 टिप्‍पणियां:

  1. मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मेरे अपने हज़ारों हैं
    उन्हीं के लिए शायद मैं इस जग में आई
    बस उन्हीं के लिए मेरी यह सालगिरह है।
    ,,,,बहुत अच्छी रचना है,सच कहा आपने अपने लिए कौन सोच पाता है,आदरणीया शुभकामनाएँ ।

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  2. आपके विचारों से सहमत हूँ। बेबाक़ी से बात कही है आपने। सालगिरह मुबारक।

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१८-११-२०२१) को
    ' भगवान थे !'(चर्चा अंक-४२५२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 18 नवंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  5. मैं बुरी हूँ
    कुछ लोगों के लिए बुरी हूँ
    वे कहते हैं-
    मैं सदियों से मान्य रीति-रिवाजों का पालन नहीं करती
    मैं अपनी सोच से दुनिया समझती हूँ
    अपनी मनमर्ज़ी करती हूँ, बड़ी ज़िद्दी हूँ।
    हाँ! मैं बुरी हूँ
    मुझे हर मानव एक समान दिखता है
    चाहे वह शूद्र हो या ब्राह्मण
    चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान
    मैं तथाकथित धर्म का पालन नहीं करती
    मुझे किसी धर्म पर न विश्वास है न आस्था
    मुझे महज़ एक ही धर्म दिखता है- इंसानी प्यार।
    आपने तो मेरे मन की बात चुरा ली
    ऐसा लगता है जैसे यह सारी पंक्तियां
    मैंने लिखी है सच में बहुत ही उम्दा व सराहनीय रचना!

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  6. सटीक बेबाक!
    अभिनव भाव व्यंजना।
    सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  7. जो जैसा है उसे वैसा रहने और खुद की स्वीकरोक्ति में गर्व होना चाहिए जो जरूरी है ...
    दोस्ती ये सब तो देखती भी नहीं वैसे ...
    जनम दिन की हार्दिक बधाई ...

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