शहर के पाँ (चोका)
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शहर के पाँधीरे-धीरे से चले
चल न सके
पगडंडियों पर
गाड़ी से चले
पहुँच गए गाँव।
दिखा है वहाँ
मज़दूर-किसान
सभी हैं व्यस्त
कर्मों में नियमित
न थके-रुके
कर खेती-किसानी।
शहर सोचे-
अजीब हैं ये लोग
नहीं चाहते
बहुमंज़िला घर
नहीं है चाह
करोड़पति बनें
संतुष्ट बड़े
जीवन से हैं ख़ुश।
धूर्त शहर
नौजवानों को चुना
भेजा शहर
चकाचौंध शहर
निगल गया
नौजवानों का तन
हारा है मन।
आलीशान मकान
सड़कें पक्की
जगमग हैं रातें
ठौर-ठिकाना
अब कहाँ वे खोजें?
कहाँ रहते?
फुटपाथ है घर
यही ठिकाना।
गाँव रहता दुःखी
पीड़ा जानता
पर कहता किसे
बना है गाँव
कंक्रीट का शहर
कंक्रीट रोड
जगमग बिजली।
राह ताकती
गाँव की बूढ़ी आँखें
गुम जवानी
आस से हैं बुलातीं-
वापस आओ
नहीं चाहिए धन
नहीं चाहिए
कंक्रीट का महल
अपनी मिट्टी
सब ख़त्म हो गई
ख़त्म हो गई
वो पुश्तैनी ज़मीन।
अंततः आया
वह आख़िरी पल
आया जवान
बेचके नौजवानी
गाँव की मिट्टी
लगती अनजानी
घर है सूना
अब न दादी-दादा
न अम्मा-बाबा
कई पुश्त गुज़रे
नहीं निशानी
लगातार चलते
नहीं थकते
लगातार ढूँढते
फिर से नया गाँव।
-जेन्नी शबनम (6.11.2023)
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 8 नवंबर 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
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बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना
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