गुरुवार, 16 नवंबर 2023

768. जीकर देखना है

जीकर देखना है   

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जीवन तो जी लिया 

कभी अपने लिए जीकर देखा क्या? 

सच ही है 

जीते-जीते जीना कब कोई भूल जाता है

कुछ पता नहीं चलता

तभी तो कोई पूछता है- 

कभी अपने लिए जीकर देखा है?

यह तो यूँ है जैसे कोई नदी से पूछे- तुमने बहकर देखा है 

बादलों से पूछे- तुमने बारिश में नहाकर देखा है 

आग से पूछे- तुमने जलकर देखा है 

सूरज से पूछे- तुमने उगकर-डूबकर देखा है 

सबकी फ़ितरत एक जैसी है 

अनवरत नियमों के साथ रहना

पर मैं क्यों प्रकृति के विरुद्ध? 

साँसें का चलना, दिल का धड़कना

यही तो नियम है

पर मैं प्रफुल्लित क्यों नहीं?

नदी-बादल-आग-सूरज 

वे तल्लीन हैं अपने बहाव में

अकेले होकर भी ख़ुश 

प्रकृति के नियमों से बँधे, सिर्फ़ अपने साथ

 कोई हड़बड़ी,  घबराहट

 कुछ छूटने का डर,  कुछ पाने की लालसा 

शायद यही जीवन है

फ़लसफ़ा भले कुछ भी हो

पर सत्य तो यही है

ये प्रवाहमय होकर दूसरों को सुख पहुँचाते हैं 

स्वयं भी आह्लादित रहते हैं। 

प्रवाहमान तो मैं भी हूँ 

पर  मैं ख़ुश हूँ,  कोई मुझसे

यह कैसा जीवन?

 अपने लिए है,  किसी के लिए

मैंने कभी जीकर क्यों  देखा?

शायद जीकर देखा होता

सिर्फ़ अपने लिए जीकर देखा होता

तो बात ही कुछ और होती 

प्रकृति ने हँसने को कहा 

मैंने जबरन हँसी ओढ़ी 

मुझसे कहा गया कि नाचूँ-गाऊँ

मैंने सिनेमा का कोई दृश्य चला दिया

सबने कहा फ़र्ज़ निभाओ

ख़ामोशी से फ़र्ज़ निभा दिया

इन सब में मैं कहाँ?

यह यायावर मन  अपना,  किसी का

शहर के बियाबान में भटककर

आकाश में एक चिनगारी ढूँढता। 

अब भी समय है

आस है तो प्राण है

प्राण है तो जीवन है

भले कुछ भी अपना नहीं 

 सगा  सखा

पर जीवन तो है

एक बार अपने लिए जीकर देखना है


-जेन्नी शबनम (16.11.2023)
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