सोमवार, 31 जनवरी 2011

211. तय था (पुस्तक - 28)

तय था

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तय था
प्रेम का बिरवा लगाएँगे
फूल खिलेंगे और सुगंध से भर देंगे
एक दूजे का दामन हम

तय तो था
अंजुरी में भर, खुशिया लुटाएँगे
जब थककर
एक दूजे को समेटेंगे हम

तय यह भी था
मिट जाएँ बेरहम ज़माने के हाथों 
मगर, दिल में लिखे नाम
मिटने न देंगे कभी हम

तय यह भी तो था
बिछड़ गए गर तो 
एक दूजे की यादों को सहेजकर
अर्घ्य देंगे हम

बस यह तय न कर पाए थे
कि तय किए सभी
सपने बिखर जाएँ
फिर
क्या करेंगे हम?

- जेन्नी शबनम (30 . 1 . 2011)
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शनिवार, 29 जनवरी 2011

210. आधा-आधा (क्षणिका)

आधा-आधा

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तेरे पास वक़्त कम ज़िन्दगी बहुत
मेरे पास ज़िन्दगी कम वक़्त बहुत
आओ आधा-आधा बाँट लें, पूरा-पूरा जी लें

- जेन्नी शबनम (28. 1. 2011)
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शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

209. दस्तावेज़ (क्षणिका)

दस्तावेज़

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ज़िन्दगी एहसासों का दस्तावेज़ है
पल-पल हर्फ़ में पिरो दिया
शायद कभी कोई पढ़े मुझे भी 

- जेन्नी शबनम (26. 1. 2011)
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बुधवार, 26 जनवरी 2011

208. पिघलती शब

पिघलती शब

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उन कुछ पलों में जब अग्नि के साथ
मैं भी दहक रही थी
तुम कह बैठे -
क्यों उदास रहती हो?
मुझसे बाँट लिया करो न अपना अकेलापन
और यह भी कहा था तुमने -
एक कविता, मुझ पर भी लिखो न!

चाहकर भी तुम्हारी आँखों में देख न पायी थी
शायद ख़ुद से ही डर रही थी
कहीं ख़ुद को तुमसे बाँटने की चाह न पाल लूँ
या फिर तुम्हारे सामने कमज़ोर न पड़ जाऊँ 
कैसे बाँटू अपनी तन्हाई तुमसे
कहीं मेरी आरज़ू कोई तूफ़ान न ला दे
मैं कैसे लड़ पाऊँगी
तन्हा इन सब से!

उस अग्नि से पूछना 
जब मैं सुलग रही थी
वो तपिश अग्नि की नहीं थी
तुम थे जो धीरे-धीरे मुझे पिघला रहे थे
मैं चाहती थी उस वक़्त
तुम बादल बन जाओ
और मुझमें ठंडक भर दो
मैं नशे में नहीं थी
नशा तो नसों में पसरता है
मेरे ज़ेहन में तो सिर्फ़ तुम थे
उस वक़्त मैं पिघल रही थी
और तुम मुझे समेट रहे थे
शायद कर्तव्य मान
अपना पल मुझे दे रहे थे
या फिर मेरे झंझावत ने
तुम्हें रोक रखा था
कहीं मैं बहक न जाऊँ!

जानती हूँ वह सब भूल जाओगे तुम
याद रखना मुनासिब भी नहीं
पर मेरे हमदर्द!
यह भी जान लो
वह सभी पल मुझ पर क़र्ज़-से हैं
जिन्हें मैं उतारना नहीं चाहती
न कभी भूलना चाहती हूँ
जानती हूँ अब मुझमें
कुछ और ख़्वाहिशें जन्म लेंगी
लेकिन यह भी जानती हूँ
उन्हें मुझे ही मिटाना होगा!

मेरे उन कमज़ोर पलों को विस्मृत न कर देना
भले याद न करना कि कोई 'शब' जल रही थी
तुम्हारी तपिश से कुछ पिघल रहा था मुझमें
और तुम उसे समेटने का फ़र्ज़ निभा रहे थे
ओ मेरे हमदर्द!
तुम समझ रहे हो न मेरी पीड़ा
और जो कुछ मेरे मन में जन्म ले रहा है
जानती हूँ मैं नाकामयाब रही थी
ख़ुद को ज़ाहिर होने देने में
पर जाने क्यों अच्छा लगा कि
कुछ पल ही सही तुम मेरे साथ थे
जो महज़ फ़र्ज़ से बँधा
मुझे समझ रहा था!

- जेन्नी शबनम (25. 1. 2011)
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रविवार, 23 जनवरी 2011

207. पाप तो नहीं

पाप तो नहीं

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जीवन के मायने हैं 
जीवित होना या जीवित रहना 
क्या सिर्फ़ साँसें ही तक़ाज़ा हैं?
 
फिर क्यों दर्द से व्याकुल होता है मन
क्यों कराह उठती है आत्मा
पूर्णता के बाद भी
क्यों अधूरा-सा रहता है मन?
 
इच्छाएँ कभी मरती नहीं
भले कम पड़ जाए ज़िन्दगी
पल-पल ख़्वाहिशें बढ़ती हैं 
तय है कि सब नष्ट होना है
या फिर छिन जाना है
 
सुकून के कुछ पल
क्यों कभी-कभी पूरी ज़िन्दगी से लगते हैं?
यथार्थ से परे न सोचना है, न रुकना है
ज़िन्दगी जीना या चाहना
पाप तो नहीं?

- जेन्नी शबनम (23.1.2011)
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206. मर्द ने कहा (पुस्तक पेज - 68)

मर्द ने कहा

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मर्द ने कहा -
ऐ औरत!
ख़ामोश होकर मेरी बात सुन
जो कहता हूँ वही कर
मेरे घर में रहना है, तो अपनी औक़ात में रह
मेरे हिसाब से चल, वरना...!

वर्षों से बिखरती रही, औरत हर कोने में
उसके निशाँ पसरे थे, हर कोने में
हर रोज़ पोछती रही, अपनी निशानी
जब से वह, मर्द के घर में थी आई
नहीं चाहती कि कहीं कुछ भी, रह जाए उसका वहाँ
हर जगह उसके निशाँ, पर वो थी ही कहाँ?

वर्षों बीत जाने पर भी
मर्द बार-बार औरत को
उसकी औक़ात बताता है
कहाँ जाए वो?
घर भी अजनबी और वो मर्द भी
नहीं है औरत के लिए, कोई कोना
जहाँ सुकून से, रो भी सके!

- जेन्नी शबनम (22. 1. 2011)
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गुरुवार, 20 जनवरी 2011

205. तुम्हारा कंधा

तुम्हारा कंधा

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अपना कंधा
एक दिन उधार दे देना मुझे
उस दिन अपना वक़्त जैसे दिया था तुमने
तमाम सपनों की टूटन का दर्द
जो पिघलता है मुझमें
और मेरी हँसी बन बिखरता है फ़िज़ाओं में
बह जाने देना
शायद इसके बाद
खो दूँ तुम्हें  

उस वक़्त का वास्ता
जब आँखों से ज़िन्दगी जी रही थी मैं
और तुम अपनी आँखों से
ज़िन्दगी दिखा रहे थे मुझे
नहीं रुकना तुम
चले जाना बिना सच कहे मुझसे
कुछ भी अपने लिए नहीं माँगूगी मैं
वादा है तुमसे 

यक़ीनन झूठ को ज़मीन नहीं मिलती
पर एक पाप तुम्हारा
मेरे हर जन्म पर एहसान होगा
और मुमकिन है वो एक क़र्ज़
अगले जन्म में
मिलने की वज़ह बने  

तुम्हारी आँखों से नहीं
अपनी आँखों से
ज़िन्दगी देखने का मन है
भ्रम में जीने देना
मुझे बह जाने देना
अपना कंधा
एक दिन उधार दे देना  

- जेन्नी शबनम (20. 1. 2011)
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मंगलवार, 18 जनवरी 2011

204. अब मान ही लेना है

अब मान ही लेना है 

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तुम बहुत आगे निकल गए   
मैं बहुत पीछे छूट गई   
कैसे दिखाऊँ तुम्हें   
मेरे पाँव के छाले,   
तुम्हारे पीछे भागते-भागते   
काँटे चुभते रहे   
फिर भी दौड़ती रही   
शायद पहुँच जाऊँ तुम तक,   
पर अब लगता है   
ये सफ़र का फ़ासला नहीं   
जो तुम कभी थम जाओ   
और मैं भागती हुई   
पहुँच जाऊँ तुम तक,   
शायद ये वक़्त का फ़ासला है   
या तक़दीर का फ़ैसला   
हौसला कम तो न था   
पर अब मान ही लेना है!

- जेन्नी शबनम (14. 1. 2011)
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बुधवार, 12 जनवरी 2011

203. संकल्प

संकल्प

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चलते-चलते
उस पुलिया पर चली गई
जहाँ से कई बार गुज़र चुकी हूँ
और अभी-अभी पटरी पर से
एक रेलगाड़ी गुज़री है 

ठण्ड की ठिठुरती दोपहरी
कँपकँपी इतनी कि जिस्म ही नहीं
मन भी अलसाया-सा है
तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लिए
मूँदी आँखों से मैं तुम्हें देख रही हूँ 

तुमसे कहती हूँ -
मीत!
साथ-साथ चलोगे न
हर झंझावत में पास रहोगे न
जब भी थक जाऊँ, मुझे थाम लोगे न
एक संकल्प तुम भी लो आज, मैं भी लेती हूँ
कोई सवाल न तुम करना
कोई ज़िद मैं भी न करुँगी
तमाम उम्र यूँ ही 
साथ-साथ चलेंगे, साथ-साथ जीएँगे 

तुम्हारी हथेली पर अपनी हथेली रख
करती रही मैं, तुम्हारे संकल्प-शब्द का इंतज़ार
अचानक एक रेलगाड़ी धड़धड़ाती हुई गुज़र गई
मैं तुम्हारी हथेली ज़ोर से पकड़ ली
तुम्हारे शब्द विलीन हो गए
मैं सुन न पायी या तुमने ही कोई संकल्प न लिया 

अचानक तुमने झिंझोड़ा मुझे
क्या कर रही हो?
यूँ रेल की पटरी के पास
कुछ हो जाता तो?

मैं हतप्रभ!
चारो तरफ़ सन्नाटा
सोचने लगी, किसे थामे थी
किससे संकल्प ले रही थी?

रेलगाड़ी की आवाज़ अब दूर जा चुकी है
मैं अकेली पुलिया की रेलिंग थामे
पता नहीं ज़िन्दगी जीने या खोने
जाने किस संकल्प की आस
कोई नहीं आस पास
न तुम, न मैं!

- जेन्नी शबनम (11. 1. 2011)
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सोमवार, 10 जनवरी 2011

202. तुममें अपनी ज़िन्दगी

तुममें अपनी ज़िन्दगी

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सोचती हूँ
कैसे तय किया होगा तुमने
ज़िन्दगी का वो सफ़र
जब तन्हा ख़ुद में जी रहे थे 
और ख़ुद से ही एक लड़ाई लड़ रहे थे  

जानती हूँ 
उस सफ़र की पीड़ा
वाक़िफ़ भी हूँ उस दर्द से
जब भीड़ में कोई तन्हा रह जाता है
नहीं होता कोई अपना
जिससे बाँट सके ख़ुद को 

तुम्हारी हार
मैं नहीं सह सकती
और तुम
मेरी आँखों में आँसू
चलो कोई नयी राह तलाशते हैं
साथ न सही दूर-दूर ही चलते हैं 
बीती बातें, मैं भी छोड़ देती हूँ
और तुम भी ख़ुद से
अलग कर दो अपना अतीत
तुम मेरी आँखों में हँसी भरना
और मैं तुममें अपनी ज़िन्दगी 

- जेन्नी शबनम (8. 1. 2011)
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गुरुवार, 6 जनवरी 2011

201. नए साल में मेरा चाँद (क्षणिका)

नए साल में मेरा चाँद

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चाँद के दीदार को हम तरस गए
अल्लाह! अमावास का अंत क्यों नहीं होता?
मुमकिन है नया साल
चाँद से रूबरू करा जाए 

- जेन्नी शबनम (6. 1. 2011)
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मंगलवार, 4 जनवरी 2011

200. हर लम्हा सबने उसे (तुकांत)

हर लम्हा सबने उसे

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मुद्दतों की तमन्नाओं को, मरते देखा
मानों आसमाँ से तारा कोई, गिरते देखा 

मिलती नहीं राह मुकम्मल, जिधर जाएँ
बेअदबी का इल्ज़ाम, ख़ुद को लुटते देखा  

हर इम्तहान से गुज़र गए, तो क्या हुआ
इबादत में झुका सिर, उसे भी कटते देखा  

इश्क़ की बाबत कहा, हर ख़ुदा के बन्दे ने
फिर क्यों हुए रुसवा, इश्क़ को मिटते देखा  

अपनों के खोने का दर्द, तन्हा दिल ही जाने है
रुख़सत हो गए जो, अक्सर याद में रोते देखा  

मान लिया सबने, वो नामुराद ही है फिर भी
रूह सँभाले, उसे मर-मर कर बस जीते देखा 

'शब' की दर्द-ए-दास्तान, न पूछो मेरे मीत
हर लम्हा सबने उसे, बस यूँ ही हँसते देखा 

- जेन्नी शबनम (4. 1. 2011)
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सोमवार, 3 जनवरी 2011

199. अनाम भले हो

अनाम भले हो

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तुम्हारी बाहें थाम 
पार कर ली रास्ता
तनिक तो संकोच होगा 
भरोसा भले हो 

नहीं होता आसान 
आँखें मूँद चलना
कुछ तो संशय होगा 
साहस भले हो 

दायरे से निकलना 
मनचाहा करना
कुछ तो नसीब होगा 
कम भले हो 

साथ जीने की लालसा 
आतुरता भी बहुत
शायद यह प्रेम होगा 
अनाम भले हो 

- जेन्नी शबनम (3. 1. 2011)
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