शुक्रवार, 26 जून 2020

675. रीसेट

रीसेट

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हयात के लम्हात, दर्द में सने थे   
मेरे सारे दिन-रात, आँसू से बने थे   
नाकामियों, नादानियों और मायूसियों के तूफ़ान   
मन में लिए बैठे थे 
वक़्त से सुधारने की गुहार लगाते-लगाते   
बेज़ार जिए जा रहे थे   
हम थे पागल 
जो माज़ी से प्यार किए जा रहे थे। 
  
कल वक़्त ने कान में चुपके से कहा-   
सारे कल मिटाकर, नए आज भर लो    
वक़्त अब भी बचा है 
ज़िन्दगी को रीसेट कर लो
जितनी बची है 
उतनी ज़िन्दगी भरपूर जी लो। 
   
दर्द को खा लो, आँसू को पी लो   
सारे कल मिटाकर, नए आज भर लो   
वक़्त अब भी बचा है 
ज़िन्दगी को रीसेट कर लो।   

-जेन्नी शबनम (26.6.2020) 
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मंगलवार, 23 जून 2020

674. इनार

इनार 

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मन के किसी कोने में   
अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें।   
  
रस्सी का एक छोर पकड़   
छपाक-से कूदती हुई बाल्टी   
इनार पर लगी हुई चकरी से   
एक सुर में धीरे-धीरे ऊपर चढ़ती बाल्टी   
टन-टन करती बड़ी बाल्टी, छोटी बाल्टी 
लोटा-कटोरा और बाटी-बटलोही   
सब करते रहते ख़ूब बतकही। 
   
दाँत माँजना, बर्तन माँजना   
कपड़ा फींचना, दुःख-सुख गुनना   
ननद-भौजाई की हँसी-ठिठोली   
सास-पतोह की नोक-झोंक   
बाबा-दादी के आते ही घूँघट काढ़ करती हड़बड़  
चिल्ल-पों करते बच्चों का नहाना   
तुरहा-तुरहिन का आकर साँसे भरना   
प्यासे बटोही की अँजुरी में   
बाल्टी से पानी उड़ेलकर पिलाना   
लोटा में पानी भरकर सूरज को अर्घ्य देना।
   
रोज़-रोज़ वही दृश्य 
पर इनार चहकता हर दिन   
भोर से साँझ प्यार लुटाता रुके बिन। 
  
एक सामूहिक सहज जीवन   
समय के साथ बदला मन   
दुःख-सुख का साथी इनार 
अब मर गया है   
चापाकल घर-घर आ गया है।
   
परिवर्तन जीवन का नियम है   
पर कुछ बदलाव टीस दे जाता है   
आज भी इनार बहुत याद आता है।   

-जेन्नी शबनम (23.6.2020) 
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रविवार, 21 जून 2020

673. बोनसाई

बोनसाई 

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हज़ारों बोनसाई उग गए हैं   
जो छोटे-छोटे ख़्वाबों की पौध हैं 
ये पौधे अब दरख़्तों में तब्दील हो चुकें हैं। 
  
ये सदा हरे-भरे नहीं रहते 
मुरझा जाने को होते हैं 
कि रहम की ज़रा-सी बदली बरसती है 
वे ज़रा-ज़रा हरियाने लगते हैं 
फिर कुनमुनाकर सब जीने लगते हैं। 
   
वे अक्सर अपने बौनेपन का प्रश्न करते हैं   
आख़िर वे सामान्य क्यों न हुए 
क्यों बोनसाई बन गए   
ये कैसा रहस्य है  
ये ऐसे दरख़्त क्यों हुए 
जो किसी को छाँव नहीं दे सकते 
फलने, फूलने, जीने के लिए हज़ार मिन्नतें करते हैं   
फिर मौसम को तरस आता है   
वे ज़रा-सी धूप और पानी दे देते हैं। 
  
आख़िर ऐसा क्यों है?   
क्यों बिन माँगे मौसम उन्हें कुछ नहीं देता   
क्यों लोग हँसते हैं उसके ठिगनेपन पर   
बोनसाई होना उनकी चाहत तो न थी 
सब तक़दीर के तमाशे हैं   
जो वे भुगतते हैं   
रोज़ मर-मरकर जीते है   
पर ख़्वाबों के ये बोनसाई 
कभी-कभी तनहाई में हँसते भी हैं।    

-जेन्नी शबनम (21. 6. 2020) 
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मंगलवार, 16 जून 2020

672. ख़ाली हाथ जाना है (तुकांत)

ख़ाली हाथ जाना है 

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ख़ाली हाथ हम आए थे   
ख़ाली हाथ ही जाना है।   

तन्हा-तन्हा रातें गुज़री   
तन्हा दिन भी बिताना है।   

समझ-समझ के समझे क्यों   
समझ से दिल कब माना है।   

क़तरा-क़तरा जीवन छूटा   
क़तरा-क़तरा सब पाना है।   

बूँद-बूँद बिखरा लहू   
बूँद-बूँद मिट आना है।   

झम-झम बरसी आँखें उसकी   
झम-झम जल ये चखाना है।   

'शब' को याद मत करो तुम   
उसका गया ज़माना है।   

- जेन्नी शबनम (16. 6. 2020)
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मंगलवार, 9 जून 2020

671. आईना और परछाई

आईना और परछाई 

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आईना मेरा सखा   
जो मुझसे कभी झूठ नहीं बोलता   
परछाई मेरी सखी   
जो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ती   
इन दोनों के साथ मैं   
जीवन के धूप-छाँव का खेल खेलती   
आईना मेरे आँसू पोंछता   
बिना थके मुझे सदा हँसाता   
परछाई मेरे संग-संग घूमती   
अँधियारे से मैं जब-जब डरती   
मेरा हाथ पकड़ वो रोशनी में भागती   
हाँ! यह अलग बात   
आजकल आईना मुझसे रूठा है   
मैं उससे मिलने नहीं जाती   
उसका सच मैं देखना नहीं चाहती   
आजकल मेरी परछाई मुझसे लड़ती है   
मैं अँधेरों से बाहर नहीं निकलती   
जाने क्यों रोशनी मुझे नहीं सुहाती।   
जानती हूँ, ये दोनों साथी   
मेरे हर वक़्त के राज़दार हैं   
मेरा आईना मेरा मन   
मेरी परछाई मेरी साँसें   
ये कभी न छोड़ेंगे मेरा दामन। 

- जेन्नी शबनम (9. 6. 2020) 
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शुक्रवार, 5 जून 2020

670. फूलवारी (क्षणिका)

फूलवारी 

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जब भी मिलने जाती हूँ   
कसकर मेरी बाँहें पकड़, कहती है मुझसे-   
अब जो आई हो, तो यहीं रह जाओ   
याद करो, जब अपने नन्हे-नन्हे हाथों से   
तुमने रोपा था, हम सब को   
देखो कितनी खिली हुई है बगिया   
पर तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगता   
शहर में न तो फूल है न फूलवारी   
रूक जाओ न यहीं पर   
बचपन के दिनों-सी बौराई फिरना।  

- जेन्नी शबनम (5. 6. 2020) 
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मंगलवार, 2 जून 2020

669. रंग

रंग  

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बेरंग जीवन बेनूर न हो   
क़र्ज़ में माँग लाई मौसम से ढेरों रंग   
लाल, पीले, हरे, नीले, नारंगी, बैगनी, जामुनी   
छोटी-छोटी पोटली में बड़े सलीक़े से लेकर आई   
और ख़ुद पर उड़ेलकर ओढ़ लिया मैंने इंद्रधनुषी रंग। 
   
अब चाहती हूँ   
रंगों का क़र्ज़ चुकाने, मैं मौसम बन जाऊँ   
मैं रंगों की खेती करूँ और ख़ूब सारे रंग मुफ़्त में बाँटूँ   
उन सभी को जिनके जीवन में मेरी तरह रंग नहीं हैं    
जिन्होंने न रोटी का रंग देखा, न प्रेम का   
न ज़मीन का, न आसमान का।
   
चाहती हूँ   
अपने-अपने शाख से बिछुड़े 
पेट की आग का रंग ढूँढते-ढूँढते   
बेरंग सपनों में जीनेवाले   
अब रंगों से होली खेलें, रंगों से ही दीवाली भी   
रंगों के सपने हों, रंगों की ही हक़ीकत हो। 
  
रंग रंग रंग!   
क़र्ज़! क़र्ज़! क़र्ज़!   
ओह मौसम! नहीं चुकाऊँगी उधारी   
कितना भी तगादा करो, चाहे न निभाओ यारी। 
   
तुम्हारी उधारी तब तक   
जब तक मैं मौसम न बन जाऊँ।   

-जेन्नी शबनम (2.6.2020) 
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सोमवार, 1 जून 2020

668. सीता की पीर (10 हाइकु)

सीता की पीर (10 हाइकु)

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1. 
राह अगोरे  
शबरी-सा ये मन,  
कब आओगे?  

2. 
अहल्या बनी  
कोई राम न आया  
पाषाण रही।  

3. 
चीर-हरण,  
द्रौपदी का वो कृष्ण  
आता न अब।  

4. 
शुचि द्रौपदी  
पाँच वरों में बँटी,  
किसका दोष?  

5. 
कर्ण का दान  
कवच व कुंडल,  
कुंती बेकल।  

6. 
सीता है स्तब्ध  
राम का तिरस्कार  
भूमि की गोद।  

7. 
सीता की पीर  
माँ धरा ने समेटी  
दो फाँक हुई।  

8. 
स्पंदित धरा  
फटा धरा का सीना  
समाई सीता।  

9. 
त्रिदेव शिशु,  
सती अनसूइया  
आखिर हारे।  

10. 
सती का कुंड  
अब भी प्रज्वलित,  
कोई न शिव।  

- जेन्नी शबनम (31. 5. 2020)
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