बुधवार, 25 नवंबर 2020

699. दागते सवाल

दागते सवाल 

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यही तो कमाल है   
सात समंदर पार किया, साथ समय को मात दी   
फिर भी कहते हो-   
हम साथ चलते नहीं हैं।   

हर स्वप्न को बड़े जतन से ज़मींदोज़ किया   
टूटने की हद तक ख़ुद को लुटा दिया   
फिर भी कहते हो-   
हम साथ देते नहीं हैं।   

अविश्वास की नदी अविरल बह रही है   
दागते सवाल, मुझे झुलसा रहे हैं   
मेरे अन्तस् का ज्वालामुखी अब धधक रहा है   
फिर भी कहते हो-   
हम जलते क्यों नहीं हैं।   

हाँ! यह सत्य अब मान लिया 
सारे उपक्रम धाराशायी हुए   
धधकते सवालों की चिनगारी 
कलेजे को राख बना चुकी है   
साबुत मन तरह-तरह के सामंजस्य में उलझा   
चिन्दी-चिन्दी बिखर चुका है।   

बड़ी जुगत से चाँदनी वस्त्रों में लपेटकर   
जिस्म के मांस की पोटली बनाई है   
दागते सवालों से झुलसी पोटली 
सफ़र में साथ है   
ज़रा-सा थमो   
जिस्म की यह पोटली 
दिल की तरह खुलकर   
अब बस बिखरने को है।  

-जेन्नी शबनम (25.11.2020) 
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सोमवार, 23 नवंबर 2020

698. भटकना (क्षणिका)

भटकना 

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सारा दिन भटकती हूँ   
हर एक चेहरे में अपनों को तलाशती हूँ   
अंतत: हार जाती हूँ   
दिन थक जाता है रात उदास हो जाती है   
हर दूसरे दिन फिर से वही तलाश, वही थकान   
वही उदासी, वही भटकाव   
अंततः कहीं कोई नहीं मिलता   
समझ में आ गया, कोई दूसरा अपना नहीं होता   
अपना आपको ख़ुद होना होता है   
और यही जीवन है।     

- जेन्नी शबनम (23. 11. 2020)
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मंगलवार, 17 नवंबर 2020

697. वसीयत

वसीयत   

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ज़ीस्त के ज़ख़्मों की कहानी तुम्हें सुनाती हूँ   
मेरी उदासियों की यही है वसीयत   
तुम्हारे सिवा कौन इसको सँभाले   
मेरी यह वसीयत अब तुम्हारे हवाले   
हर लफ़्ज़ जो मैंने कहे, हर्फ़-हर्फ़ याद रखना   
इन लफ़्ज़ों को ज़िन्दा, मेरे बाद रखना   
किसी से कुछ न कभी तुम बताना   
मेरी यह वसीयत, मगर मत भूलाना   
तुम्हारी मोहब्बत ही है मेरी दौलत   
मेरे लफ़्ज़ ज़िन्दा हैं इसकी बदौलत।     

उस दौलत ने दिल को धड़कना सिखाया   
हर साँस पर था जो क़र्ज़ा चुकाया   
मेरे ज़ख़्मों की अब मुझको परवाह नहीं है   
लबों पे मेरे अब कोई आह नहीं है   
अगर्चे अभी भी कोई सुख नहीं है   
ग़म तुमने समझा, तो अब दुःख नहीं है।  

ग़ैरों की भीड़ में मुझको कई अपने मिले थे   
मगर जैसे सारे ही सपने मिले थे   
मुझसे किसी ने कहाँ प्यार किया था   
वार अपनों ने खंजर से सौ बार किया था   
मन ज़ख़्मी हुआ, ताउम्र आँखों से रक्त रिसता रहा   
किसे मैं बताती कि दोष इसमें किसका रहा   
क़िस्मत ने जो दर्द दिया, तोहफ़ा मान सब सहेजा   
मैंने क़दमों को टोका, क़िस्मत को दिया न धोखा   
जीवन में नाकामियों की हज़ारों दास्तान है   
हर पग के साथ बढ़ता छल का अम्बार है   
मेरी हर साँस में मेरी एक हार है।     

जीकर तो किसी के काम न आ सकी   
मेरे जीवन की किसी को कभी भी न दरकार थी   
मेरे शरीर का हर एक अंग मैंने दुनिया को दान किया   
पर कभी यह न सोचा, मैंने कोई अहसान किया   
मैं जब न रहूँ, कइयों के बदन को नया जीवन दिलाना   
बिजली की भट्टी में इसे तुम जलाना   
भट्टी में जब मेरा बदन राख बन जाएगा   
आधे राख को गंगा में वहाँ लेकर जाना 
वहीं पर बहाना   
जहाँ मेरे अपनों का जिस्म राख में था बदला   
आधे को मिट्टी में गाड़कर 
रात की रानी का पौधा लगाना   
मुझे रात में कोई ख़ुशबू बनाना   
जीवन बेनूर था, मरकर बहक लूँ   
वसीयत में यह एक ख़्वाहिश भी रख लूँ   
रात की रानी बन खिलूँगी और रात में बरसूँगी   
न साँस मैं माँगूँगी, न प्यार को तरसूँगी   
भोर में ओस की बूँदों से लिपटी मैं दमकूँगी   
दिन में बुझी भी, तो रात में चमकूँगी।     

क़ज़ा की बाहों में  
जब मेरी सुकून भरी मुस्कुराहट दिखे   
समझना मेरे ज़ीस्त की कुछ हसीन कहानी 
उसने मुझे सुनाई है   
शब के लिए रात की रानी खिलाई है   
जीवन में बस एक प्रेम कमाया, वह भी तुम्हारे सहारे   
इतना करो कि यह प्रेम कभी न हारे   
तुम्हें कसम है, एक वादा तुम करना   
मेरी यह वसीयत तुम ज़रूर पूरी करना   
तुम्हारे सिवा कौन इसको सँभाले   
मेरी यह वसीयत अब तुम्हारे हवाले।    

-जेन्नी शबनम (16.11.2020)
(मेरे बच्चों के लिए) 
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शनिवार, 14 नवंबर 2020

696. प्रकाश-पर्व (दीवाली पर हाइकु)

प्रकाश-पर्व


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1.

धूम धड़ाका   

चारों ओर उजाला   

प्रकाश-पर्व।  


2.

फूलों-सी सजी   

जगमग करती   

दीयों की लड़ी।  


3.

जगमगाते   

चाँद-तारे-से दीये   

घोर अमा में।  


4.

झूमती गाती   

घर-घर में सजी   

दीपों की लड़ी।   


5.

झिलमिलाता   

अमावस की रात   

नन्हा दीपक।  


6.

फुलझड़ियाँ   

पटाखे और दीये   

गप्पे मारते।  


7.

दीवाली कही-   

दूर भाग अँधेरा,   

दीया है जला।  


8.

रोशनी खिली   

अँधेरा हुआ दुःखी   

किधर जाए।  


9.

दीया जो जला   

सरपट दौड़ता   

तिमिर भागा।  


10.

रिश्ते महके   

दीयों संग दमके   

दीवाली आई।  


- जेन्नी शबनम (14. 11. 2020)

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मंगलवार, 10 नवंबर 2020

695. जिया करो (तुकांत)

जिया करो 

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सपनों के गाँव में, तुम रहा करो   
किस्त-किस्त में न, तुम जिया करो।     

संभावनाओं भरा, ये शहर है   
ज़रा आँखें खुली, तुम रखा करो।  

कब कौन किस वेष में, छल करे   
ज़रा सोच के ही, तुम मिला करो।     

हैं ढेरों झमेले, यहाँ पे पसरे   
ज़रा सँभल के ही, तुम चला करो।     

आजकल हर रिश्ते हैं, टूटे बिखरे   
ज़रा मिलजुल के ही, तुम रहा करो।     

तूफ़ाँ आके, गुज़र न जाए जबतक   
ज़रा झुका के सिर, तुम रहा करो।     

मतलबपरस्ती से, क्यों है घबराना   
ज़रा दुनियादारी, तुम समझा करो।     

गुनहगारों की, जमात है यहाँ   
ज़रा देखकर ही, तुम मिला करो।     

नस-नस में भरा, नफ़रतों का खून   
ज़रा-सा आशिक़ी, तुम किया करो।    

अँधेरों की महफ़िल, सजी है यहाँ   
ज़रा रोशनी बन, तुम बिखरा करो।     

रात की चादर पसरी है, हर तरफ़   
ज़रा दीया बनके, तुम जला करो।     

कौन क्या सोचता है, न सोचो 'शब'   
जीभरकर जीवन अब, तुम जिया करो।    

- जेन्नी शबनम (10. 11. 2020) 
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रविवार, 8 नवंबर 2020

694. हम (11 हाइकु) प्रवासी मन - 119, 120

हम 


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1. 
चाहता मन-   
काश पंख जो होते   
उड़ते हम।    

2. 
जल के स्रोत   
कण-कण से फूटे   
प्यासे हैं हम।    

3. 
पेट मे आग   
पर जलता मन,   
चकित हम।    

4. 
हमसे जन्मी   
मंदिर की प्रतिमा,   
हम ही बुरे।    

5. 
बहता रहा   
आँसुओं का दरिया   
हम ही डूबे।  

6. 
कोई  सगा   
ये कैसी है दुनिया?   
ठगाए हम।     

7. 
हमने ही दी   
सबूत  गवाही,   
इतिहास मैं।  

8.
यायावर थी, 
शब्दों में अब मिली,
पनाह मुझे।      

9. 
मिला है शाप,   
अभिशापित हम   
किया  पाप।    

10. 
अकेले चले   
सूरज-से जलते   
जन्मों से हम।    

11. 
अड़े ही रहे   
आँधियों में अडिग   
हम हैं दूब 

- जेन्नी शबनम (7. 11. 2020)
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मंगलवार, 3 नवंबर 2020

693. कपट

कपट 

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हाँ कपट ही तो है   
सत्य से भागना, सत्य न कहना, पलायन करना   
पर यह भी सच है, सत्य की राह में   
बखेड़ों के मेले हैं, झमेलों के रेले हैं   
कोई कैसे कहे सारे सत्य, जो दफ़्न हो सीने में   
उम्र की थकान के, मन के अरमान के   
सदियों-सदियों से, युगों-युगों से। 
  
यों तो मिलते हैं कई मुसाफ़िर   
दो पल ठहरकर राज़ पूछते हैं 
दमभर को अपना कहते, फिर चले जाते हैं 
उम्मीद तोड़ जाते हैं, राह पर छोड़ जाते हैं। 
   
काश! कोई तो थम जाता, छोड़कर न जाता   
मन की यायावरी को एक ठौर दे जाता। 
   
ये कपट, ये भटकाव मन को नहीं भाते हैं   
पर इनसे बच भी कहाँ पाते हैं   
यों हँसी में हर राज़ दफ़्न हो जाते हैं   
फिर कहना क्या और पूछना क्या, सब बेमानी है   
ऐसे ही बीत जाता है, सम्पूर्ण जीवन   
किसी की आस में, ठहराव की उम्मीद में। 
   
हम सब इसी राह के मुसाफ़िर, मत पूछो सत्य   
गर कोई जान न सके, बिन कहे पहचान न सके 
यह उसकी कमी है  
सत्य तो प्रगट है, कहा नहीं जाता, समझा जाता है   
फिर भी लोग इसरार करते हैं। 
   
सत्य को शब्द न दें, हँसकर टाल दें, तो कपटी कहते हैं   
ठीक ही कहते हैं वे, हम कपटी हैं, कपटी!   

-जेन्नी शबनम (3.11.2020)
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