शनिवार, 17 मार्च 2012

332. वक़्त की आख़िरी गठरी (क्षणिका)

वक़्त की आख़िरी गठरी

*******

लफ़्ज़ की सरगोशी, जिस्म की मदहोशी
यूँ जैसे 
साँसों की रफ़्तार घटती रही
एक-एक को चुनकर, हर एक को तोड़ती रही
सपनों की गिनती फिर भी न ख़त्म हुई
ज़िद की बात नहीं, न चाहतों की बात है
पहरों में घिरी रही 'शब' की हर पहर-घड़ी
मलाल कुछ इस क़दर जैसे
मुट्ठी में कसती गई वक़्त की आख़िरी गठरी। 

- जेन्नी शबनम (16. 3. 2012)
____________________

13 टिप्‍पणियां:

  1. एक-एक को चुन कर
    हर एक को
    तोड़ती रही
    सपनों की गिनती
    फिर भी न ख़त्म हुई,

    बहुत बहुत सुन्दर जेन्नी जी...
    लाजवाब...

    जवाब देंहटाएं
  2. सच है सपने कम पड़ जाते हैं ... साँसें खटन हो जाती हैं ... गहरी रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर ।

    प्रभावी प्रस्तुति ।।

    जवाब देंहटाएं
  4. साँसों की रफ़्तार
    घटती रही,
    एक-एक को चुन कर
    हर एक को
    तोड़ती रही...
    बहुत सुंदर सार्थक रचना,अच्छी प्रस्तुति...

    MY RESENT POST ...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत खूब गहन अभिव्यक्ति....

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  7. आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)

    बेहतरीन लेखन ..बधाई स्वीकारें



    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  8. हर एक को
    तोड़ती रही
    सपनों की गिनती
    फिर भी न ख़त्म हुई,
    ज़िद की बात नहीं
    न चाहतों की बात है
    HAMESHA KI TARAH KHUBSURAT.

    जवाब देंहटाएं
  9. पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...

    इस खूबसूरत रचना के लिए बधाई स्वीकारें.

    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  10. सुन्दर प्रस्तुति.... बहुत बहुत बधाई.....

    जवाब देंहटाएं
  11. ये वाली थोड़ी कम समझ आई...इतनी परिपक्वता नहीं शायद मुझमे.. फिर भी अभिव्यक्ति पढ़कर अच्छा लगा..

    जवाब देंहटाएं