बुधवार, 1 मई 2013

403. औक़ात देखो

औक़ात देखो

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पिछला जन्म  
पाप की गठरी   
धरती पर बोझ  
समाज के लिए पैबंद   
यह सब सुनकर भी  
मुँह उठाए, तुम्हें ही अगोरा 
मन टूटा, पर तुम्हें ही देखा  
असाध्य तुम, पर जीने की सहूलियत तुमसे 
मालूम है मुझे    
मेरी पैदाइश हुई ही है 
उन कामों को करने के लिए, जो निकृष्ट हैं  
जिसे करना, तुम अपनी शान के ख़िलाफ़ मानते हो  
या तुम्हारी औक़ात से परे है 
काम करना मेरा स्वभाव है  
मेरी पूँजी भी है और मेरा धर्म भी  
फिर भी  
मैं भाग्यहीन 
मैं बेग़ैरत   
मैं कृतघ्न 
मैं फ़िजूल 
जान लो तुम   
मैंने अपना सारा वक़्त दिया है तुम्हें 
ताकि तुम चैन से आँखें मूँद सो सको  
हर प्रहार को अपने सीने पर झेला है 
ताकि तुम सुरक्षित रह सको   
पसीने से लिजबिज मेरा बदन 
चौबीसों पहर, सिर्फ़ तुम्हारे लिए खटा है  
ताकि तुम मनचाही ज़िन्दगी जी सको     
कभी चैन के पल नहीं ढूँढ़े मैंने  
कभी नहीं कहा कि 
ज़रा देर को रुकने दो 
होश सँभालने से लेकर  
जिस्म की ताकत खोने तक 
दुनिया का बोझ उठाया है मैंने  
अट्टालिकएँ मुझे जानती हैं  
मेरे बदन का ख़ून चखा है उसने  
लहलहाती फ़सलें मेरी सखा हैं  
मुझसे ही पानी पीती हैं   
फुलवारी के फूल  
अपनी सुगंध की उत्कृष्टता  
मुझसे ही पूछते हैं  
मेरे बिना तुम सब  
अपाहिज हो 
तुम बेहतर जानते हो   
एक पल को अगर रुक जाऊँ 
दुनिया थम जाएगी      
चंद मुट्ठी भर तुम सब  
मेरे ही बल पर शासन करते हो  
फिर भी कहते- 
''अपनी औक़ात देखो''   

- जेन्नी शबनम (1. 5. 2013) 
(मज़दूर दिवस) 
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13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा भाव लिए रचना,श्रमिक दिवस की शुभ कामनाएं
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest postजीवन संध्या
    latest post परम्परा

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  2. चंद मुट्ठी भर तुम सब
    मेरे ही बल पर शासन करते हो
    फिर भी कहते''अपनी औकात देखो...!

    बहुत बेहतरीन सटीक प्रस्तुति ,,,
    RECENT POST: मधुशाला,

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  3. IST MAY KO EK ACHCHHEE KAVITA PADHNE KO MILEE HAI . BADHAEE .

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  4. वह तोडती पत्थर... वह तोड रही पत्थर
    भेदभाव ने देश को इंसान को चौपट किया है

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  5. अट्टालिकएँ मुझे जानती हैं
    मेरे बदन का खून चखा है उसने
    लहलहाती फसलें मेरी सखा है
    मुझसे ही पानी पीती हैं

    सच्चा सम्मान मेहनतकश लोगों का

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  6. भावुक,मन को भेदती सुंदर कविता
    गजब का अहसास
    मजदूर दिवस पर सार्थक
    उत्कृष्ट प्रस्तुति

    दुनियां के मजदूरों एक हो
    मजदूरों को लाल सलाम

    विचार कीं अपेक्षा
    jyoti-khare.blogspot.in
    कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?

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  7. चंद मुट्ठी भर तुम सब
    मेरे ही बल पर शासन करते हो
    फिर भी कहते -
    ''अपनी औकात देखो...!''

    ...बहुत सटीक अभिव्यक्ति...यही आज का यथार्थ है...

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  8. बहुत खुबसूरत रचना मेहनतकश की आत्मा की आवाज़

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  9. बहुत सुन्दर , सटीक प्रस्तुति ,,,

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  10. BAHUT HI SUNDAR RACHNA " TUMHARE MAHAL ME YE RAUNAK JO AAYEE HAI,YE GHISHU KE PASINE KI KAMAYEE HAI....(GONDVI)

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  11. दुनिया का बोझ उठाया है मैंने
    अट्टालिकएँ मुझे जानती हैं
    मेरे बदन का खून चखा है उसने
    लहलहाती फसलें मेरी सखा है
    मुझसे ही पानी पीती हैं
    फुलवारी के फूल
    अपनी सुगंध की उत्कृष्टता
    मुझसे ही पूछते हैं
    मेरे बिना तुम सब
    अपाहिज हो
    तुम बेहतर जानते हो
    एक पल को अगर रुक जाऊँ
    दुनिया थम जाएगी
    चंद मुट्ठी भर तुम सब
    मेरे ही बल पर शासन करते हो
    फिर भी कहते -
    ''अपनी औकात देखो...!''
    इन पंक्तियों का प्रवाह बहुत तीव्र है। सचमुच आपने मज़दूर वर्ग की पीड़ा को बहुत तीव्रता से उभारा है । आपकी भाषा थोपी गई नहीं; वरन भावों और विचारों की अनुगामिनी है । ऐसे कविताओं के कारण ही साहित्य जिन्दा है ।वंचित जन के दु:खों का साक्षात्कार किए बिना इतनी प्रभाव्शाली रचना का सर्जन नहीं हो सकता । समस्याओं को देखने -समझने की आपकी अनुभूति बहुत गहन है ।इस तरह की कविताओं को पढ़ने का भी एक सुख होता है और वह है-' बहुत तीव्रता सेसच्चे साहित्य का साक्षात्कार।'
    - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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