रविवार, 5 मई 2013

404. तुम्हारा 'कहा'

तुम्हारा 'कहा'

******* 

जानती हूँ, तुम्हारा 'कहा' 
मुझसे शुरू होकर 
मुझ पर ही ख़त्म होता है, 
उस 'कहा' में 
क्या कुछ शामिल नहीं होता 
प्यार 
मनुहार 
जिरह 
आरोप 
सरोकार 
संदेह 
शब्दों के डंक,
तुम जानते हो 
तुम्हारी इस सोच ने मुझे तोड़ दिया है 
ख़ुद से भी नफ़रत करने लगी हूँ
और सिर्फ़ इस लिए मर जाना चाहती हूँ 
ताकि मेरे न होने पर 
तुम्हारा ये 'कहा'
तुम किसी से कह न पाओ 
और तुमको घुटन हो  
तुम्हारी सोच, तुमको ही बर्बाद करे 
तुम रोओ, किसी 'उस' के लिए 
जिसे अपना 'कहा' सुना सको 
जानती हूँ 
मेरी जगह कोई न लेगा 
तुम्हारा 'कहा' 
अनकहा बनकर तुमको दर्द देगा 
और तब आएगा मुझे सुकून,
जब भी मैंने तुमसे कहा कि
तुम्हारा ये 'कहा' मुझे चुभता है 
न बोलो, न सोचो ऐसे 
हमेशा तुम कहते हो- 
तुम्हें न कहूँ तो भला किससे 
एक तुम ही तो हो 
जिस पर मेरा अधिकार है 
मेरा मन, प्रेम करूँ 
या जो मर्जी 'कहा' करूँ। 

- जेन्नी शबनम (5. 5. 2013)
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18 टिप्‍पणियां:

  1. तुम्हें न कहूँ तो भला किससे एक तुम ही तो हो जिस पर मेरा अधिकार है,,,,
    बहुत उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति,,,
    RECENT POST: दीदार होता है,

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  2. जब भी मैंने तुमसे कहा कि
    तुम्हारा ये 'कहा' मुझे चुभता है
    न बोलो
    न सोचो ऐसे
    हमेशा तुम कहते हो -
    तुम्हें न कहूँ तो भला किससे
    एक तुम ही तो हो
    जिस पर मेरा अधिकार है
    मेरा मन
    प्रेम करूँ
    या जो मर्जी
    कहा करूँ !

    ये अक्सर अपनों के साथ क्यों हो जाता है

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  3. तुम्हारा'कहा' बहुत गहन व्यथा से भरी कविता है । मन के रेशे -रेशे को आलोड़ित कर देती है। आपका एक -एक शब्द खरोंच-सी छोड़कर चला जाता है । इन पंक्तियों का तो कोई जवाब नहीं-उस कहा में
    क्या कुछ शामिल नहीं होता
    प्यार
    मनुहार
    जिरह
    आरोप
    सरोकार
    संदेह
    शब्दों के डंक,

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  4. हमेशा तुम कहते हो -
    तुम्हें न कहूँ तो भला किससे
    एक तुम ही तो हो
    जिस पर मेरा अधिकार है
    मेरा मन
    प्रेम करूँ
    या जो मर्जी
    कहा करूँ !
    वो भी प्रेम है -सुन्दर अभिव्यक्ति
    lateast post मैं कौन हूँ ?
    l

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  5. कैसा विचित्र अधिकार.......
    ~सादर!!!

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  6. AAPKEE LEKHNI SE EK AUR BHAVON SE
    OTPROT SASHAKT KAVITA . BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .

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  7. किसी कवि की रचना देखूं !
    दर्द उभरता , दिखता है !
    प्यार, नेह दुर्लभ से लगते ,
    क्लेश हर जगह मिलता है !
    क्या शिक्षा विद्वानों को दूं,टिप्पणियों में,रोते गीत !
    निज रचनाएं,दर्पण मन का,दर्द समझते मेरे गीत !

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  8. अच्छी तानाशाही है.

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  9. यह बात भी सही है ...अपनों से मन की बात न कहें तो किससे कहें ...लेकिन क्या आप उसी तरह सुनने को भी तैयार हैं.......सुन्दर प्रस्तुति

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  10. बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति!
    साझा करने के लिए आभार...!
    --
    सुखद सलोने सपनों में खोइए..!
    ज़िन्दगी का भार प्यार से ढोइए...!!
    शुभ रात्रि ....!

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  11. प्रेम की सुन्दर तकरार..

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  12. 'तुम्हें न कहूँ तो भला किससे
    एक तुम ही तो हो
    जिस पर मेरा अधिकार है
    मेरा मन
    प्रेम करूँ
    या जो मर्जी
    कहा करूँ !'
    -हाँ हाँ ,बिलकुल- हर एक पर अपनी मर्जी थोड़े ही चलाई जा सकती.पूरा अधिकार है उसी पर तो..!

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  13. बहुत खूब .. जिससे प्रेम है उससे ही तो मनुहार, लाड और क्रोध आता है ...
    दिल है की मानता नहीं ...

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  14. बेनामीमई 07, 2013 11:13 am

    गहन चिंतन

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  15. क्या बात है...बेहतरीन!!

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  16. ओह खुद की कही या.........सबकी?? औरतों के दिलों को खूब पढना जानती हो. इसलिए आपकी कविता आपकी ही नही रहती..... सब की ...हर औरत के दिल की आवाज़ सी लगती है.

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