सोमवार, 7 जुलाई 2014

461. इम्म्युन

इम्म्युन

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पूरी की पूरी बदल चुकी हूँ
अब तक ग़ैरों से छुपती थी
अब ख़ुद से बचती हूँ
अपने वजूद को
अलमारी के उस दराज़ में रख दी हूँ 
जहाँ गैरों का धन रखा होता है 
चाहे सड़े या गले पर नज़र न आए
यूँ भी, मैं इम्म्युन हूँ
हमारी क़ौमें ऐसी ही जन्मती हैं
बिना सींचे पनपती हैं,
इतना ही काफ़ी है
मेरा 'मैं' दराज़ में महफ़ूज़ है,
ग़ैरों के वतन में
इतनी ज़मीन नहीं मिलती कि
'मैं हूँ' ये सोच सकूँ
और ख़ुद को
अपने आईने में देख सकूँ। 

- जेन्नी शबनम (7. 7. 2014)
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11 टिप्‍पणियां:

  1. SASHAKT BHAVABHIVYAKTI KE LIYE AAPKO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA

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  2. अब कौन सा वतन अपना है, कौन सा ग़ैरों का- ये सोचना भी मुश्क़िल जान पड़ता है। अपना वास्तविक 'मैं' तो अब दराजों में बंद ही पड़ा है चाहें हम कहीं भी रहें! शायद वक़्त ही कुछ ऐसा है!

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  3. गहन अर्थ भरी पंक्तियाँ ...बहुत सुंदर लिखा जेन्नी जी ....!!

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  4. कैसा अवसाद जैसे सब जम गया हो !

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  5. अपने वजूद को ... अपने मैं को गहरे दाल देना कहाँ सुकून देता है ... उसको उसका मान देना चाहिए ...
    हालात से जूझती रचना ...

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  6. संवेदनशील अभिव्यक्ति वास्तव मे अपना क्या है विचारणीय विषय

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  7. बेहतरीन पंक्तियाँ हैं ..... आपकी स्वीकार्यता हम सभी सच है

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  8. मैं अगर बंद है तो कौन है जो उसे देख रहा है...

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  9. बहुत सुन्दर ! बधाई स्वीकार करें...|

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