शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

462. चकरघिन्नी (क्षणिका)

चकरघिन्नी

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चकरघिन्नी-सी घूमती-घूमती 
ज़िन्दगी जाने किधर चल पड़ती है
सब कुछ वही, वैसे ही 
जैसे ठहरा हुआ-सा, मेरे वक़्त-सा  
पाँव में चक्र, जीवन में चक्र  
संतुलन बिगड़ता है  
मगर सब कुछ आधारहीन निरर्थक भी तो नहीं   
आख़िर कभी न कभी, कहीं न कहीं
ज़िन्दगी रुक ही जाती है। 

- जेन्नी शबनम (11. 7. 2014)
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8 टिप्‍पणियां:

  1. चकरघिन्नी अर्थात चक्कर और घिरनी.. दोनों ही एक वर्तुल... यही वर्तुल तो एक दुष्चक्र है जिसपर चलकर ज़िन्दगी घूमती तो है, सफ़र बढता तो है लेकिन उसे पथ की पुनरावृत्ति होती है. जीवन इसी दुष्चक्र से बाहर निकलकर एक नई यात्रा प्रारम्भ करने का नाम है.
    आपकी रचनाओं में शब्दों के चयन और संयोजन् बहुत प्रभावित करते हैं!

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  2. बहुत गहन और ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति..

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  3. लगातार नाचना उसी केन्द्र पर फिर, बैलेन्स खो कर तिरछा-बेड़ा हो जाना ऐसे जैसे अचानक चक्कर आ जाए- यही होता है यहाँ!

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  4. जीवन चक्र तो पूरा करना ही होता है ...
    जीवन कहाँ रुकता है ...

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  5. ज़िन्दगी तो ऐसी ही होती हैं, चकरघिन्नी सी...बहुत सुंदर, उत्कृष्ट और भावपूर्ण रचना...

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