गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

704. मुट्ठी से फिसल गया

मुट्ठी से फिसल गया 

***

निःसन्देह बीता कल नहीं लौटेगा   
जो बिछड़ गया अब नहीं मिलेगा   
फिर भी रोज़-रोज़ बढ़ती है आस   
शायद मिल जाए वापस   
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। 
  
ख़ुशियों की ख़्वाहिश ही दुःखों की फ़रमाइश है   
पर मन समझता नहीं, हर पल ख़ुद से उलझता है   
हर रोज़ की यही व्यथा, कौन सुने इतनी कथा?  
 
वक़्त को दोष देकर   
कोई कैसे ख़ुद को निर्दोष कहेगा?   
क्यों दूसरों का लोर-भात एक करेगा?   
बहाने क्यों?   
कह दो, बीता कल शातिर खेल था   
अवांछित सम्बन्धों का मेल था   
जो था सब बेकार था, अविश्वास का भण्डार था   
अच्छा हुआ, बन्द मुट्ठी से फिसल गया। 
  
अमिट दूरियों का अन्तहीन सिलसिला है   
उम्मीदों के सफ़र में आसमान-सा सन्नाटा है   
पर अतीत के अवसाद में कोई कब तक जिए   
कितने-कितने पीर मन में लेकर फिरे   
वक़्त भी वही, उसकी चाल भी वही   
बरज़ोरी से छीननी होगी खुशियाँ। 
  
नहीं करना है अब शोक कि साथ चलते-चलते 
चन्द क़दमों का फ़ासला, मीलों में बढ़ गया   
रिश्ते-नाते, नेह-बन्धन मन की देहरी पर ढह गया   
देखते-देखते सब, बन्द मुट्ठी से फिसल गया।   

-जेन्नी शबनम (31.12.2020)
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रविवार, 20 दिसंबर 2020

703. तकरार

तकरार 

*** 

आत्मा और बदन में तकरार जारी है  
बदन छोड़कर जाने को आत्मा उतावली है   
पर बदन हार नहीं मान रहा   
आत्मा को मुट्ठी से कसकर भींचे हुए है   
थक गया, मगर राह रोके हुए है।
   
मैं मूकदर्शक-सी   
दोनों की हाथापाई देखती रहती हूँ  
कभी-कभी ग़ुस्सा होती हूँ   
तो कभी ख़ामोश रह जाती हूँ  
कभी आत्मा को रोकती हूँ   
तो कभी बदन को टोकती हूँ   
पर मेरा कहा दोनों नहीं सुनते   
और मैं बेबसी से उनको ताकती रह जाती हूँ।
   
कब कौन किससे नाता तोड़ ले   
कब किसी और जहाँ से नाता जोड़ ले   
कौन बेपरवाह हो जाए, कौन लाचार हो जाए   
कौन हार जाए, कौन जीत जाए   
कब सारे ताल्लुक़ात मुझसे छूट जाए   
कब हर बन्धन टूट जाए   
कुछ नहीं पता, अज्ञात से डरती हूँ   
जाने क्या होगा, डर से काँपती हूँ।
   
आत्मा और बदन साथ नहीं   
तो मैं कहाँ?   
तकरार जारी है   
पर मिटने के लिए   
मैं अभी राज़ी नहीं।   

-जेन्नी शबनम (20.12.2020) 
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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

702. गंगा (20 हाइकु)

 गंगा 


*******

1. 
चल पड़ी हूँ   
सागर से मिलने   
गंगा के संग।   

2. 
जीवन गंगा   
सागर यूँ ज्यों कज़ा   
अंतिम सत्य।   

3. 
मुक्ति है देती   
पाप पुण्य का भाव   
गंगा है न्यारी।   

4. 
सब समाया   
जीवन और मृत्यु   
गंगा की गोद।   

5. 
हम हैं पापी   
गंगा को दुःख देते   
कर दूषित।   

6. 
निश्छल प्यार   
सबका बेड़ा पार   
गंगा है माँ-सी।   

7. 
पावनी गंगा   
कल-कल बहती   
जीवन देती।   

8. 
बसा जीवन   
सदियों का ये नाता   
गंगा के तीरे।   

9. 
गंगा की बाहें   
सबको समेटती   
भलें हों पापी।   

10. 
जीवन बाद   
गंगा में प्रवाहित   
अंतिम लक्ष्य।   

11. 
गंगा है हारी   
वो जीवनदायिनी   
मानव पापी।   

12. 
गंगा की पीर   
गंदगी को पी-पीके   
हो गई मैली।   

13. 
क्रूर मानव   
अनदेखा करता   
गंगा का मन।   

14. 
प्रचंड गंगा   
बहुत बौखलाई   
बाढ़ है लाई।   

15. 
गंगा से सीखो   
सब सहकरके   
धरना धीर।   

16. 
हमें बुलाती   
कल-कल बहती   
गंगा हमारी।   

17. 
गंगा प्रचंड   
रौद्र रूप दिखाती   
जब गुस्साती।   

18. 
गंगा है प्यासी   
उपेक्षित होके भी   
प्यास बुझाती।   

19. 
पावनी गंगा   
जग के पाप धोके   
हुई लाचार।   

20. 
किरणें छूतीं   
पाके सूर्य का प्यार   
गंगा मुस्काती।   

- जेन्नी शबनम (17. 12. 2020)
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रविवार, 13 दिसंबर 2020

701. पत्थर या पानी

पत्थर या पानी 

***  

मेरे अस्तित्व का प्रश्न है-   
मैं पत्थर बन चुकी या पानी हूँ?   
पत्थरों से घिरी, मैं जीवन भूल चुकी हूँ   
शायद पत्थर बन चुकी हूँ   
फिर हर पीड़ा 
मुझे रुलाती क्यों है?   
हर बार पत्थरों को धकेलकर   
जिधर राह मिले, बह जाती हूँ   
शायद पानी बन चुकी हूँ   
फिर अपनी प्यास से तड़पती क्यों हूँ?   
हर बार, बार-बार   
पत्थर और पानी में बदलती मैं   
नहीं जानती, मैं कौन हूँ।   

-जेन्नी शबनम (12.12.2020)
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बुधवार, 2 दिसंबर 2020

700. स्त्री हूँ (10 क्षणिका)

स्त्री हूँ 

******* 

1.
स्त्री हूँ 
*** 
स्त्री हूँ, वजूद तलाशती   
अपना एक कोना ढूँढती   
अपनों का ताना-बाना जोड़ती   
यायावरता मेरी पहचान बन गई है  
शनै-शनै मैं खो रही हूँ मिट रही हूँ   
पर मिटना नहीं चाहती   
स्त्री हूँ, स्त्री बनकर जीना चाहती हूँ  

2.
अकेली   
*** 
रह जाती हूँ   
बार-बार हर बार   
बस अपने साथ   
मैं, नितांत अकेली   

3. 
भूल जाओ 
*** 
सपने तो बहुत देखे   
पर उसे उगाने के लिए   
न ज़मीन मिली न मैंने माँगी   
सपने तो सपने हैं सच कहाँ होते हैं   
बस देखो और भूल जाओ   

4.
छलाँग 
*** 
आसमान की चाहत में   
एक ऊँची छलाँग लगाई मैंने   
भर गया आसमान मुट्ठी में   
पाँव के नीचे लेकिन ज़मीं ना रही   

5. 
ज़िन्दगी जी ली 
*** 
ज़िंदा रहने के लिए   
सपनों का मर जाना बेहद ख़तरनाक है   
मालूम है फिर भी एक-एककर   
सारे सपनों को मार दिया   
ख़ुद ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारी   
और ज़िन्दगी जी ली मैंने   


6..  
हँस पड़ी वह 
*** 
वह हँसी, वह बोली   
इतना दंभ, इतनी हिमाक़त   
उसे मर्यादित होना चाहिए   
उसे क्षमाशील होना चाहिए   
उसकी जाति का यही धर्म है  
पर अब अधर्मी होना स्वीकार है   
यही एक विकल्प है   
आज फिर हँस पड़ी मैं   


7.
जर्जर 
*** 
आख़िरकार मैं घबराकर   
घुस गई कमरे के भीतर   
तूफ़ान आता, कभी जलजला   
हर बार ढहती रही, बिखरती रही   
पर जब भी खिड़की से बाहर झाँका   
साबुत होने के दम्भ के साथ   
खंडहर नहीं छुपा सकता, काल के चक्र को   
अंततः सबने देखा झरोखे से झाँकती, जवान काया   
जो अब डरावनी और जर्जर है   


8. 
बाँझ 
*** 
मन में अब कुछ नहीं उपजता   
न स्वप्न न कामना   
किसी अपने ने पीछे से वार किया   
हर रोज़ बार-बार हज़ार बार   
कोमल मन खंजर की वार से बंजर हो गया है   
मेरा मन अब बाँझ है   


9.
खुदाई 
*** 
जाने क्यों, ज़माना बार-बार खुदाई करता है   
गहरी खुदाई पर, मन ने हरकत कर ही दी   
दिल पर खुदी दर्द की तहरीर   
ज़माने ने पढ़ ली और अट्टहास किया   
जाने कितनी सदियों से, सब कुछ दबा था   
अँधेरी गुफ़ाओं में, तहख़ाने के भीतर   
अब आँसुओं का सैलाब है   
जो झील बन चुका है   


10.
जबरन 
*** 
अतीत की बेवकूफ़ियाँ   
मन का पछतावापन   
गाहे-बगाहे, चाहे  चाहे   
वक़्त पाते ही बेधड़क घुस आता है   
उन सभासदों की तरह जबरन   
जिनका उस क्षेत्र में प्रवेश-निषेध है   
 हँसने देता है  रोने देता है   
और झिंझोड़कर रख देता है   
पूरा का पूरा वजूद!   

 - जेन्नी शबनम (2. 12. 2020)
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बुधवार, 25 नवंबर 2020

699. दागते सवाल

दागते सवाल 

*** 

यही तो कमाल है   
सात समंदर पार किया, साथ समय को मात दी   
फिर भी कहते हो-   
हम साथ चलते नहीं हैं।   

हर स्वप्न को बड़े जतन से ज़मींदोज़ किया   
टूटने की हद तक ख़ुद को लुटा दिया   
फिर भी कहते हो-   
हम साथ देते नहीं हैं।   

अविश्वास की नदी अविरल बह रही है   
दागते सवाल, मुझे झुलसा रहे हैं   
मेरे अन्तस् का ज्वालामुखी अब धधक रहा है   
फिर भी कहते हो-   
हम जलते क्यों नहीं हैं।   

हाँ! यह सत्य अब मान लिया 
सारे उपक्रम धाराशायी हुए   
धधकते सवालों की चिनगारी 
कलेजे को राख बना चुकी है   
साबुत मन तरह-तरह के सामंजस्य में उलझा   
चिन्दी-चिन्दी बिखर चुका है।   

बड़ी जुगत से चाँदनी वस्त्रों में लपेटकर   
जिस्म के मांस की पोटली बनाई है   
दागते सवालों से झुलसी पोटली 
सफ़र में साथ है   
ज़रा-सा थमो   
जिस्म की यह पोटली 
दिल की तरह खुलकर   
अब बस बिखरने को है।  

-जेन्नी शबनम (25.11.2020) 
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सोमवार, 23 नवंबर 2020

698. भटकना (क्षणिका)

भटकना 

******* 

सारा दिन भटकती हूँ   
हर एक चेहरे में अपनों को तलाशती हूँ   
अंतत: हार जाती हूँ   
दिन थक जाता है रात उदास हो जाती है   
हर दूसरे दिन फिर से वही तलाश, वही थकान   
वही उदासी, वही भटकाव   
अंततः कहीं कोई नहीं मिलता   
समझ में आ गया, कोई दूसरा अपना नहीं होता   
अपना आपको ख़ुद होना होता है   
और यही जीवन है।     

- जेन्नी शबनम (23. 11. 2020)
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मंगलवार, 17 नवंबर 2020

697. वसीयत

वसीयत   

*** 

ज़ीस्त के ज़ख़्मों की कहानी तुम्हें सुनाती हूँ   
मेरी उदासियों की यही है वसीयत   
तुम्हारे सिवा कौन इसको सँभाले   
मेरी यह वसीयत अब तुम्हारे हवाले   
हर लफ़्ज़ जो मैंने कहे, हर्फ़-हर्फ़ याद रखना   
इन लफ़्ज़ों को ज़िन्दा, मेरे बाद रखना   
किसी से कुछ न कभी तुम बताना   
मेरी यह वसीयत, मगर मत भूलाना   
तुम्हारी मोहब्बत ही है मेरी दौलत   
मेरे लफ़्ज़ ज़िन्दा हैं इसकी बदौलत।     

उस दौलत ने दिल को धड़कना सिखाया   
हर साँस पर था जो क़र्ज़ा चुकाया   
मेरे ज़ख़्मों की अब मुझको परवाह नहीं है   
लबों पे मेरे अब कोई आह नहीं है   
अगर्चे अभी भी कोई सुख नहीं है   
ग़म तुमने समझा, तो अब दुःख नहीं है।  

ग़ैरों की भीड़ में मुझको कई अपने मिले थे   
मगर जैसे सारे ही सपने मिले थे   
मुझसे किसी ने कहाँ प्यार किया था   
वार अपनों ने खंजर से सौ बार किया था   
मन ज़ख़्मी हुआ, ताउम्र आँखों से रक्त रिसता रहा   
किसे मैं बताती कि दोष इसमें किसका रहा   
क़िस्मत ने जो दर्द दिया, तोहफ़ा मान सब सहेजा   
मैंने क़दमों को टोका, क़िस्मत को दिया न धोखा   
जीवन में नाकामियों की हज़ारों दास्तान है   
हर पग के साथ बढ़ता छल का अम्बार है   
मेरी हर साँस में मेरी एक हार है।     

जीकर तो किसी के काम न आ सकी   
मेरे जीवन की किसी को कभी भी न दरकार थी   
मेरे शरीर का हर एक अंग मैंने दुनिया को दान किया   
पर कभी यह न सोचा, मैंने कोई अहसान किया   
मैं जब न रहूँ, कइयों के बदन को नया जीवन दिलाना   
बिजली की भट्टी में इसे तुम जलाना   
भट्टी में जब मेरा बदन राख बन जाएगा   
आधे राख को गंगा में वहाँ लेकर जाना 
वहीं पर बहाना   
जहाँ मेरे अपनों का जिस्म राख में था बदला   
आधे को मिट्टी में गाड़कर 
रात की रानी का पौधा लगाना   
मुझे रात में कोई ख़ुशबू बनाना   
जीवन बेनूर था, मरकर बहक लूँ   
वसीयत में यह एक ख़्वाहिश भी रख लूँ   
रात की रानी बन खिलूँगी और रात में बरसूँगी   
न साँस मैं माँगूँगी, न प्यार को तरसूँगी   
भोर में ओस की बूँदों से लिपटी मैं दमकूँगी   
दिन में बुझी भी, तो रात में चमकूँगी।     

क़ज़ा की बाहों में  
जब मेरी सुकून भरी मुस्कुराहट दिखे   
समझना मेरे ज़ीस्त की कुछ हसीन कहानी 
उसने मुझे सुनाई है   
शब के लिए रात की रानी खिलाई है   
जीवन में बस एक प्रेम कमाया, वह भी तुम्हारे सहारे   
इतना करो कि यह प्रेम कभी न हारे   
तुम्हें कसम है, एक वादा तुम करना   
मेरी यह वसीयत तुम ज़रूर पूरी करना   
तुम्हारे सिवा कौन इसको सँभाले   
मेरी यह वसीयत अब तुम्हारे हवाले।    

-जेन्नी शबनम (16.11.2020)
(मेरे बच्चों के लिए) 
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शनिवार, 14 नवंबर 2020

696. प्रकाश-पर्व (दीवाली पर हाइकु)

प्रकाश-पर्व


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1.

धूम धड़ाका   

चारों ओर उजाला   

प्रकाश-पर्व।  


2.

फूलों-सी सजी   

जगमग करती   

दीयों की लड़ी।  


3.

जगमगाते   

चाँद-तारे-से दीये   

घोर अमा में।  


4.

झूमती गाती   

घर-घर में सजी   

दीपों की लड़ी।   


5.

झिलमिलाता   

अमावस की रात   

नन्हा दीपक।  


6.

फुलझड़ियाँ   

पटाखे और दीये   

गप्पे मारते।  


7.

दीवाली कही-   

दूर भाग अँधेरा,   

दीया है जला।  


8.

रोशनी खिली   

अँधेरा हुआ दुःखी   

किधर जाए।  


9.

दीया जो जला   

सरपट दौड़ता   

तिमिर भागा।  


10.

रिश्ते महके   

दीयों संग दमके   

दीवाली आई।  


- जेन्नी शबनम (14. 11. 2020)

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मंगलवार, 10 नवंबर 2020

695. जिया करो (तुकांत)

जिया करो 

******* 

सपनों के गाँव में, तुम रहा करो   
किस्त-किस्त में न, तुम जिया करो।     

संभावनाओं भरा, ये शहर है   
ज़रा आँखें खुली, तुम रखा करो।  

कब कौन किस वेष में, छल करे   
ज़रा सोच के ही, तुम मिला करो।     

हैं ढेरों झमेले, यहाँ पे पसरे   
ज़रा सँभल के ही, तुम चला करो।     

आजकल हर रिश्ते हैं, टूटे बिखरे   
ज़रा मिलजुल के ही, तुम रहा करो।     

तूफ़ाँ आके, गुज़र न जाए जबतक   
ज़रा झुका के सिर, तुम रहा करो।     

मतलबपरस्ती से, क्यों है घबराना   
ज़रा दुनियादारी, तुम समझा करो।     

गुनहगारों की, जमात है यहाँ   
ज़रा देखकर ही, तुम मिला करो।     

नस-नस में भरा, नफ़रतों का खून   
ज़रा-सा आशिक़ी, तुम किया करो।    

अँधेरों की महफ़िल, सजी है यहाँ   
ज़रा रोशनी बन, तुम बिखरा करो।     

रात की चादर पसरी है, हर तरफ़   
ज़रा दीया बनके, तुम जला करो।     

कौन क्या सोचता है, न सोचो 'शब'   
जीभरकर जीवन अब, तुम जिया करो।    

- जेन्नी शबनम (10. 11. 2020) 
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रविवार, 8 नवंबर 2020

694. हम (11 हाइकु) प्रवासी मन - 119, 120

हम 


******* 

1. 
चाहता मन-   
काश पंख जो होते   
उड़ते हम।    

2. 
जल के स्रोत   
कण-कण से फूटे   
प्यासे हैं हम।    

3. 
पेट मे आग   
पर जलता मन,   
चकित हम।    

4. 
हमसे जन्मी   
मंदिर की प्रतिमा,   
हम ही बुरे।    

5. 
बहता रहा   
आँसुओं का दरिया   
हम ही डूबे।  

6. 
कोई  सगा   
ये कैसी है दुनिया?   
ठगाए हम।     

7. 
हमने ही दी   
सबूत  गवाही,   
इतिहास मैं।  

8.
यायावर थी, 
शब्दों में अब मिली,
पनाह मुझे।      

9. 
मिला है शाप,   
अभिशापित हम   
किया  पाप।    

10. 
अकेले चले   
सूरज-से जलते   
जन्मों से हम।    

11. 
अड़े ही रहे   
आँधियों में अडिग   
हम हैं दूब 

- जेन्नी शबनम (7. 11. 2020)
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मंगलवार, 3 नवंबर 2020

693. कपट

कपट 

***

हाँ कपट ही तो है   
सत्य से भागना, सत्य न कहना, पलायन करना   
पर यह भी सच है, सत्य की राह में   
बखेड़ों के मेले हैं, झमेलों के रेले हैं   
कोई कैसे कहे सारे सत्य, जो दफ़्न हो सीने में   
उम्र की थकान के, मन के अरमान के   
सदियों-सदियों से, युगों-युगों से। 
  
यों तो मिलते हैं कई मुसाफ़िर   
दो पल ठहरकर राज़ पूछते हैं 
दमभर को अपना कहते, फिर चले जाते हैं 
उम्मीद तोड़ जाते हैं, राह पर छोड़ जाते हैं। 
   
काश! कोई तो थम जाता, छोड़कर न जाता   
मन की यायावरी को एक ठौर दे जाता। 
   
ये कपट, ये भटकाव मन को नहीं भाते हैं   
पर इनसे बच भी कहाँ पाते हैं   
यों हँसी में हर राज़ दफ़्न हो जाते हैं   
फिर कहना क्या और पूछना क्या, सब बेमानी है   
ऐसे ही बीत जाता है, सम्पूर्ण जीवन   
किसी की आस में, ठहराव की उम्मीद में। 
   
हम सब इसी राह के मुसाफ़िर, मत पूछो सत्य   
गर कोई जान न सके, बिन कहे पहचान न सके 
यह उसकी कमी है  
सत्य तो प्रगट है, कहा नहीं जाता, समझा जाता है   
फिर भी लोग इसरार करते हैं। 
   
सत्य को शब्द न दें, हँसकर टाल दें, तो कपटी कहते हैं   
ठीक ही कहते हैं वे, हम कपटी हैं, कपटी!   

-जेन्नी शबनम (3.11.2020)
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शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

692. दड़बा

दड़बा 

*** 

ऐ लड़कियों!   
तुम सब जाओ, अपने-अपने दड़बे में   
अपने-अपने परों को सँभालो   
एक दूसरे को अपनी-अपनी चोंच से लहूलुहान करो। 
  
कटना तो तुम सबको है, एक-न-एक दिन   
अपनों द्वारा या ग़ैरों द्वारा   
सीख लो लड़ना 
ख़ुद को बचाना 
दूसरों को मात देना   
तुम सीखो छल-प्रपंच और प्रहार-प्रतिघात   
तुम सीखो द्वंद्ववाद और द्वंद्वयुद्ध। 
  
दड़बे के बाहर की दुनिया 
क़ातिलों से भरी है   
जिनके पास शब्द के भाले हैं 
बोली की कटारें हैं   
जिनके देह और जिह्वा को 
तुम्हारे मांस और लहू की प्यास है   
पलक झपकते ही झपट ली जाओगी   
चीख भी न पाओगी।
   
दड़बे के भीतर, कितना भी लिख लो तुम   
बहादुरी की गाथाएँ, हौसलों की कथाएँ   
पर बाहर की दुनिया, जहाँ पग-पग पर भेड़िए हैं    
जो मानव-रूप धरकर, तुम्हारा इन्तिज़ार कर रहे हैं   
भेड़िए के सामने मेमना नहीं, ख़ुद भेड़िया बनना है   
टक्कर सामने से देना है, बराबरी पर देना है। 
  
ऐ लड़कियो!   
जीवन की रीत, जीवन का संगीत, जीवन का मन्त्र   
सब सीख लो तुम   
न जाने कब किस घड़ी 
समय तुमसे क्या माँगे।   

-जेन्नी शबनम (24.10.2020)
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बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

691. देहाती

देहाती 

*** 

फ़िक्रमन्द हूँ उन सभी के लिए   
जिन्होंने सूरज को हथेली में नहीं थामा   
चाँद के माथे को नहीं चूमा   
वर्षा में भीग-भीगकर न नाचा, न खेला   
माटी को मुट्ठी में भरकर, बदन पर नहीं लपेटा।
   
दुःख होता है उनके लिए   
जिन्हें नहीं पता कि मुँडेर क्या होती है   
मूँज से चटाई कैसे बनती है   
अँगना लीपने के बाद कैसा दिखता है   
ढेंकी और जाँता की आवाज़ कैसी होती है।
   
उन्होंने कभी देखा नहीं, गाय-बैल का रँभाना   
बाछी का पगहा तोड़ माँ के पास भागना   
भोरे-भोरे खेत में रोपनी, खलिहान में धान की ओसौनी   
आँधियों में आम की गाछी में टिकोला बटोरना   
दरी बिछाकर ककहरा पढ़ना, मास्टर साहब से छड़ी खाना। 
  
कितने अनजान हैं वे, कितना कुछ खोया है उन्होंने  
यों वे सभी अति-सुशिक्षित हैं 
चाँद और मंगल की बातें करते हैं   
एक उँगली के स्पर्श से दुनिया का ज्ञान बटोर लेते हैं। 
  
पर हाँ! सच ही कहते हैं वे, हम देहाती हैं    
भात को चावल नहीं कहते, रोटी को चपाती नहीं कहते   
तरकारी को सब्ज़ी नहीं कहते, पावरोटी को ब्रेड नहीं कहते   
हम गाँव-जवार की बात करते हैं 
वे अमेरिका-इंग्लैंड की बात करते हैं। 
  
नहीं! नहीं! कोई बराबरी नहीं, हम देहाती ही भले   
पर उन सबों के लिए निराशा होती है 
जो अपनी माटी को नहीं जानते   
अपनी संस्कृति और समाज को नहीं पहचानते   
तुमने बस पढ़कर सुना है सब   
हमने जीकर जाना है सब। 

-जेन्नी शबनम (20.10.2020)
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रविवार, 18 अक्टूबर 2020

690. चलते ही रहना (चोका - 14)

चलते ही रहना 

******* 

जीवन जैसे   
अनसुलझी हुई   
कोई पहेली   
उलझाती है जैसे   
भूल भूलैया,   
कदम-कदम पे   
पसरे काँटें   
लहूलुहान पाँव   
मन में छाले   
फिर भी है बढ़ना   
चलते जाना,   
जब तक हैं साँसें   
तब तक है   
दुनिया का तमाशा   
खेल दिखाए   
संग-संग खेलना   
सब सहना,   
इससे पार जाना   
संभव नहीं   
सारी कोशिशें व्यर्थ   
कठिन राह   
मन है असमर्थ,   
मगर हार   
कभी मानना नहीं   
थकना नहीं   
कभी रुकना नहीं   
झुकना नहीं   
चलते ही रहना   
न घबराना   
जीवन ऐसे जीना   
जैसे तोहफ़ा   
कुदरत से मिला   
बड़े प्यार से   
बड़ी हिफाज़त से   
सँभाल कर जीना!   

- जेन्नी शबनम (18. 10. 2020)

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गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020

689. इकिगाई

इकिगाई 

*** 

ज़िन्दगी चल रही थी, जिधर राह मिली, मुड़ रही थी   
कहाँ जाना है, क्या पाना है, कुछ भी करके बस जीना है   
न कोई पड़ाव, न कोई मंज़िल 
वक़्त के साथ मैं गुज़र रही थी।  

ज़िन्दगी घिसट रही थी, यों कि मैं धकेल रही थी   
पर जब-जब मन भारी हुआ, जब-जब रास्ता बोझिल लगा   
अन्तर्मन में हूक उठी और पन्नों पर हर्फ़ पिरोती रही   
जो किसी से न कहा, लिखती रही।    

सदियों बाद जाने कैसे उसका एक पन्ना उड़ गया   
जा पहुँचा वहाँ, जहाँ किसी ने उसे पढ़ा   
उसने रोककर मुझे कहा-   
अरे! यही तो तुम्हारी राह थी   
जिस पर तुम छुप-छुपकर रुक रही थी   
इसलिए तुम बढ़ी नहीं   
जहाँ से शुरू की, वहीं पर तुम खड़ी रही   
जाओ! बढ़ जाओ इस राह पर   
पन्नों को बिखरा दो क़ायनात में   
कोई झिझक न रखो अपनी बात में।     

मैं हतप्रभ! अब तक क्यों न सोचा   
मेरे लिए यही तो एक रास्ता था   
जिस पर चलकर सुकून मिलना था   
जीवन को संतुष्टि और सार्थकता का बोध होना था   
पर अब समझ गई हूँ   
पन्नो पर रची तहरीर, मेरा इकिगाई है।  

[इकिगाई- जापानी अवधारणा: मक़सद/जीवन-उद्देश्य) 

-जेन्नी शबनम (15.10.2020)
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शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

688. साथी (चार लाइन की भावाभिव्यक्तियाँ) (12 क्षणिका)

साथी 

******* 

1. 
साथी 
***
मेरे साथी! तुम तब थे कहाँ   
ज़ख़्मों से जब हम थे घायल हुए   
इक तीर था निशाने पे लगा   
तन-मन मेरा जब ज़ख़्मी हुआ।  

2.
एहसान 
***
उम्र भर चले जलती धूप में   
पाँव के छाले अब क़दम है रोके   
कभी जो छाँव कोई, दमभर मिली   
तुम कहते कि एहसान तेरा हुआ।       

3. 
तू कहाँ था 
***
ख़्वाहिशों की लम्बी क़तारें थीं   
फफोले-से सपने फूटते रहे   
जब दर्द पर मेरे हँसती थी दुनिया   
तू कहाँ था, मेरे साथी बता।     

4. 
पराया 
***
जब भटकते रहे थे हम दरबदर   
मंदिर-मस्जिद सब हमसे बेख़बर   
घाव पर नमक छिड़कती थी दुनिया   
मेरा दर्द भला क्यों पराया हुआ।     

5.
मेरे हिस्से 
*** 
फूल और खार दोनों बिछे थे   
सारे खार क्यों मेरे हिस्से   
दुखती रगों को छेड़कर तुमने   
हँसके थे सुनाए मेरे क़िस्से।     

6. 
कुछ न जीता 
***
लो अब ये कहानी ख़त्म हो गई   
ज़िन्दगी अब नाफ़रमानी हो गई   
गर वापस तुम आओ तो देखना   
हम तो हारे, तुमने भी कुछ न जीता।   

7.
सौदा 
*** 
सीले-सीले से जीवन में नहीं रौशनी   
चाँद और सूरज भी तो तेरा ही था   
शब के रातों की नमी मेरी तक़दीर   
उजालों का सौदा तुमने ही किया।     

8. 
लाज 
***
नफ़रतों की दीवार गहरी हुई   
ढह न सकी, उम्र भले ठिठकी रही   
हो सके तो एक सुराख़ करना   
ज़माने की ख़ातिर लाज रखना।     

9. 
हम थे कहाँ 
***
जब-जब जीवन से हारती रही   
आँखें तुमको ही ढूँढती रही   
अपनी दुनिया में उलझे रहे तुम   
बता तेरी दुनिया में हम थे कहाँ।     

10.
आँसू 
*** 
शब के आँसू आसमाँ के आँसू   
दिन के आँसू ये किसने भरे   
धुँधली नज़रें किसकी मेहरबानी   
कभी तो पूछते तुम अपनी ज़बानी।     

11. 
उदासी
***
दरम्याने-ज़िन्दगी ये कैसा वक़्त आया है   
ज़िन्दगी की तड़प भी और मौत की चाहत है   
लफ्ज़-लफ्ज़ बिखरे हुए, अधरों पर ख़ामोशी है   
ज्यों छिन रही हो ज़िन्दगी, मन में यूँ उदासी है।     

12.
अलविदा 
*** 
अब जो लौटो तुम तो हम क्या करें   
ज़ख़्म सारे रिस-रिस के अब नासूर बने   
तेरे क़र्ज़ के तले है जीवन बीता   
ऐ साथी मिलेंगे कभी अलविदा-अलविदा।  

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2020) 
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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

687. बापू हमारे (बापू पर 10 हाइकु)

बापू हमारे 


******* 


1.

एक सिपाही   

अंग्रेज़ो पर भारी,   

मिला स्वराज।


2.

देश की शान   

जन-जन के प्यारे   

बापू हमारे।


3.

क़त्ल हो गया   

अहिंसा का पुजारी,   

अभागे हम।


4.

बापू का मान   

हमारा अभिमान,   

अब तो मानो।


5.

अस्सी थी उम्र,   

अंग्रेज़ो को भगाया   

निडर काया।


6.

मिली आज़ादी   

साथ मिला संताप   

शोक में बापू।


7.

माटी का पूत   

माटी में मिल गया   

दिला के जीत। (बापू)


8.

निहत्था लड़ा   

अस्सी साल का बूढ़ा,   

कभी  हारा। (बापू)


9.

अकेला बढ़ा   

कारवाँ साथ चला   

आख़िर जीता। (बापू)


10.

सादा जीवन   

कड़ा अनुशासन   

बापू की सीख।


- जेन्नी शबनम (2. 10. 2020)

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सोमवार, 21 सितंबर 2020

686. अल्ज़ाइमर

अल्ज़ाइमर 

*** 

सड़क पर से गुज़रती हुई   
जाने मैं किधर खो गई    
घर, रास्ता, मंज़िल सब अनचीन्हा-सा है  
मैं बदल गई हूँ या दुनिया बदल गई है।
   
धीरे-धीरे सब विस्मृत हो रहा है   
मस्तिष्क साथ छोड़ रहा है   
या मैं मस्तिष्क की उँगली छोड़ रही हूँ। 
  
कुछ भूल जाती हूँ, तो अपनों की झिड़की सुनती हूँ   
सब कहते, मैं भूलने का नाटक करती हूँ   
कुछ भूल न जाऊँ, लिख-लिखकर रखती हूँ   
सारे जतन के बाद भी अक्सर भूल जाती हूँ   
अपने भूलने से मैं सहमी रहती हूँ   
अपनी पहचान खोने के डर से डरी रहती हूँ।
   
क्यों सब कुछ भूलती हूँ, मैं पागल तो नहीं हो रही?   
मुझे कोई रोग है क्या, कोई बताता क्यों नहीं?   
यों ही कभी एक रोज़   
गिनती के सुख और दुःखों के अम्बार भूल जाऊँगी   
ख़ुद को भूल जाऊँगी, बेख़याली में गुम हो जाऊँगी   
याद करने की जद्दोजहद में हर रोज़ तड़पती रहूँगी   
फिर से जीने को हर रोज़ ज़रा-ज़रा मरती रहूँगी
मुमकिन है, मेरा जिस्म ज़िन्दा तो रहे   
पर कोई एहसास, मुझमें ज़िन्दा न बचे। 
   
मेरी ज़िन्दगी अब अपनों पर बोझ बन रही है   
मेरी आवाज़ धीरे-धीरे ख़ामोश हो रही है   
मैं हर रोज़ ज़रा-ज़रा गुम हो रही हूँ   
हर रोज़ ज़रा-ज़रा कम हो रही हूँ।   
मैं सब भूल रही हूँ   
मैं धीरे-धीरे मर रही हूँ।   

-जेन्नी शबनम (21.9.2020)
(विश्व अल्ज़ाइमर दिवस) 
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मंगलवार, 15 सितंबर 2020

685. यादें, न आओ (यादें पर 10 हाइकु) पुस्तक -117,118

 यादें, न आओ

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1. 
मीठी-सी बात   
पहली मुलाक़ात   
आई है याद।  

2. 
दुःखों का सर्प   
यादों में जाके बैठा   
डंक मारता।     

3. 
गहरे खुदे   
यादों की दीवार पे   
ज़ख़्मों के निशाँ।     

4. 
तुम भी भूलो,   
मत लौटना यादें,   
हमें जो भूले।   

5. 
पराए रिश्ते   
रोज़ याद दिलाते   
देते हैं टीस।     

6. 
रोज़ कहती   
यादें बचपन की-   
फिर से जी ले।     

7. 
दिल दुखाते   
छोड़ गए जो नाते,   
आती हैं याद।     

8. 
पीछा करता,   
भोर-साँझ-सा चक्र   
यादों का चक्र।     

9. 
यादों का पंछी   
दाना चुगने आता   
आवाजें देता।     

10. 
दुःख की बातें,   
यादें, न आओ रोज़,   
जीने दो मुझे।     

- जेन्नी शबनम (15. 9. 2020)
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बुधवार, 9 सितंबर 2020

684. बारहमासी

बारहमासी

*** 

रग-रग में दौड़ा मौसम   
रहा न मन अनाड़ी   
मौसम का है खेल सब   
हम ठहरे इसके खिलाड़ी।   

आँखों में भदवा लगा   
जब आया नाचते सावन   
जीवन में उगा जेठ   
जब सूखा मन का आँगन।   

आया फगुआ झूम-झूमके   
तब मन हो गया बैरागी   
मुँह चिढ़ाते कार्तिक आया   
पर जली न दीया-बाती।   

समझो बातें ऋतुओं की   
कहे पछेया बासन्ती   
मन चाहे बेरंग हो, पर   
रूप धरो रंग नारंगी।   

पतझड़ हो या हरियाली   
हँसी हो बारहमासी   
मन में चाहे अमावस हो   
जोगो सदा पूरनमासी।   

-जेन्नी शबनम (9.9.2020) 
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गुरुवार, 3 सितंबर 2020

683. परी

परी

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दुश्वारियों से जी घबराए   
जाने क़यामत कब आ जाए   
मेरे सारे राज़, तुम छुपा लो जग से   
मेरा उजड़ा मन, बसा लो मन में।   
पूछे कोई कि तेरे मन में है कौन   
कहना कि एक थी परी, ग़ुलाम देश की रानी   
अपने परों से उड़कर, जो मेरे सपने में आई   
किसी से न कहना, उस परी की कहानी   
जो एक रोज़ मिली तुमको, डरती हुई   
खोकर आज़ादी तड़पती हुई।   
लहू से लथपथ, जीवन से विरक्त   
किसी ने छला था, बड़ा उसका मन   
पंख थे दोनों उसके कतरे हुए   
आँखें थीं बंद, पर आँसू लुढ़कते रहे   
होठों पे चुप्पी और सिसकी थमती नहीं   
उफ़! बदहवास, बड़ी थी बदहाल   
उसके मन में थे ढेरों मलाल   
कह गई मुझसे वो अपना हाल   
जीवन बीता था बनकर सवाल   
ले लिया वादा कि लेना न नाम।   
परी थी वो, मगर थी ग़ुलाम   
अपनों ने छीने थे सारे अरमान   
साँसों पर बंदिश, सपनों पर पहरे   
ऐसे में भला, कोई कैसे जीए?   
ज़ख़्मी तन और घायल मन   
फ़ना हो गई, हर राज़ कहकर   
रह गई मेरे मन में कहानी बनकर   
सच उसका, मुझे कहना नहीं   
वो दे गई, ये कैसी मज़बूरी।   
हाँ! सच है, वो परी न थी   
न किसी के सपनों की रानी   
वह थी थकी-हारी, टूटी एक नारी   
जो सदा रही सबके लिए बेमानी   
नहीं है कोई अब उसकी निशानी।   
ओह! उसने कहा था राज़ न खोलना   
उसकी इज़्ज़त अपने तक रखना,   
ना-ना वो थी परी,ग़ुलाम देश की रानी   
अपने परों से उड़कर, जो मेरे सपने में आई।   

- जेन्नी शबनम (3. 9. 2020)
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रविवार, 30 अगस्त 2020

682. ज़िन्दगी के सफ़हे (क्षणिका)

ज़िन्दगी के सफ़हे 

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ज़िन्दगी के सफ़हे पर चिंगारी धर दी किसी ने   
जो सुलग रही है धीरे-धीरे   
मौसम प्रतिकूल है, आँधियाँ विनाश का रूप ले चुकी हैं   
सूरज झुलस रहा है, हवा और पानी का दम घुट रहा है   
सन्नाटों से भरे इस दश्त में 
क्या ज़िन्दगी के सफ़हे सफ़ेद रह पाएँगे?   
झुलस तो गए हैं, बस राख बनने की देर है।   

- जेन्नी शबनम (30. 8. 2020) 
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गुरुवार, 20 अगस्त 2020

681. घात (10 क्षणिका)

घात

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1. 
घात 
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सपने और साँसें दोनों नज़रबंद हैं   
न जाने कौन घात लगाए बैठा हो   
ज़रा-सी चूक और सब ख़त्म।   

2.
कील 
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मन के नाज़ुक तहों में   
कभी एक कील चुभी थी   
जो बाहर न निकल सकी   
वह बारहा टीस देती है   
जब-जब दूसरी नई कील   
उसे और अंदर बेध देती है।     

3. 
काँटे 
******* 
तमाम उम्र ज़िन्दगी से काँटे छाँटती रही   
ताकि ज़िन्दगी बस फूल ही फूल हो   
बिना चुभे एक भी काँटा अलग न हुआ   
हर बार चुभता, ज़ख्म देता, रूलाता   
धीरे-धीरे फूलों का खिलना बंद हुआ   
रह गए बस काँटे ही काँटे   
अब इसे छाँटना क्या।     

4. 
जल गए 
******* 
वक़्त की टहनी पर रिश्तों के फूल खिले   
कुछ टिके, कुछ झरे, कुछ रुके, कुछ बढे   
जो टिके, वे सँभल न सके   
जो झरे, वे झुलस गए   
ज़िन्दगी आग का दरिया है   
वक़्त के साथ सब जल गए   
वक़्त के साथ सब ढल गए।      

5. 
साथ 
******* 
हम समझते थे   
वक़्त पर साथ मेरे सब खड़े होंगे   
ताल्लुकात के रंग   
वक़्त ने बहुत पहले ही दिखा दिए।     

6. 
हिसाब 
******* 
तमाम उम्र हिसाब लगाते रहे   
क्या पाया क्या न पाया   
फ़ेहरिस्त तो बनी बड़ी लम्बी   
मगर सिर्फ़ कुछ न पाने की।     

7. 
गुज़र गया 
******* 
सूखे पत्तों-सा सूखा मन   
बिखरा पड़ा, मानो पतझड़   
आस की ऊँगली थामे   
गुज़र गया, तमाम जीवन।     

8. 
परिहास 
******* 
संबंधों की पृष्ठभूमि पर   
भाव लिखूँ, अभाव लिखूँ, प्रभाव लिखूँ   
या तहस-नहस होते नातों पर   
परिहास लिखूँ।     

9. 
माँग 
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हर लम्हा वक़्त ने है छीना   
सारी उम्र पे कब्ज़ा है   
अब कुछ भी तो शेष नहीं   
वक़्त अभी भी माँग रहा   
मैं मानूँगी आदेश नहीं   
अब कुछ भी तो शेष नहीं।     

10. 
रूह 
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एक रूह की तलाश में कितने ही पड़ाव मिले   
पर कहीं ठौर न मिला कहीं ठहराव न मिला   
मन का सफ़र ख़त्म नही होता   
रूहों का नगर जाने कहाँ होता है?   
रूहें शायद सिर्फ़ आसमान में बसती हैं।     

- जेन्नी शबनम (20. 8. 2020) 
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