मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

432. अतीत के पन्ने (चोका - 6)

अतीत के पन्ने   

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याद दिलाए 
अतीत के जो पन्ने  
फड़फड़ाए
खट्टी-मीठी-सी यादें
पन्नों से झरे  
इधर-उधर को
बिखर गए
टुकड़ों-टुकड़ों में,
हर मौसम
एक-एक टुकड़ा
यादें जोड़ता
मन को टटोलता
याद दिलाता
गुज़रा हुआ पल
क़िस्सा बताता,
दो छोर का जुड़ाव
नासमझी से
समझ की परिधि
होश उड़ाए
अतीत को सँजोए,
बचपन का 
मासूम वक़्त प्यारा
सबसे न्यारा 
सबका है दुलारा, 
जुनूनी युवा
ज़रा मस्तमौला-सा
आँखों में भावी 
बिन्दास है बहुत, 
प्रौढ़ मौसम
ओस में है जलता
झील गहरा
ज़रा-ज़रा सा डर
जोशो-जुनून
चेतावनी-सा देता,
वृद्ध जीवन
कर देता व्याकुल
हरता चैन 
मन होता बेचैन
जीने की चाह
कभी मरती नहीं
अशक्त काया
मगर मोह-माया
अवलोकन
गुज़रे अतीत का
कोई जुगत
जवानी को लौटाए
बैरंग लौटे
उफ़्फ़ मुआ बुढ़ापा
अधूरे ख़्वाब
सब हो जाए पूर्ण
कुछ न हो अपूर्ण !

- जेन्नी शबनम (26. 12. 2013)
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सोमवार, 23 दिसंबर 2013

431. मन (10 हाइकु) पुस्तक 49,50

मन 

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1.
मन में बसी
धूप सीली-सीली-सी
ठंडी-ठंडी सी।

2.
भटका मन
सवालों का जंगल
सब है मौन।

3.
शाख से टूटे
उदासी के ये फूल
मन में गिरे।

4.
बता सबब
अपने खिलने का,
ओ मेरे मन

5.
मन के भाव
मन में ही रहते
किसे कहते?

6.
मन पे छाया
यादों का घना साया,
ख़ूब सताया।

7.
कच्चा-सा मन
जाने कैसे है जला
अधपका-सा।

8.
सोच का मेला
ये मन अलबेला
रातों जागता।

9.
यादों का पंछी
डाल-डाल फुदके
मन बौराए।

10.
धीरज पगी
मादक-सी मुस्कान
मन को खींचे

- जेन्नी शबनम (13. 12. 2013)
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

430. प्रीत (7 हाइकु) पुस्तक - 48, 49

प्रीत

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1.
प्रीत की डोरी
ख़ुद ही थी जो बाँधी
ख़ुद ही तोड़ी।

2.
प्रीत रुलाए
मन को भरमाए
पर टूटे न।

3.
प्रीत की राह
बस काँटे ही काँटे
पर चुभें न।

4.
प्रीत निराली
सूरज-सी चमके
कभी न ऊबे।

5.
प्रीत की भाषा,
उसकी परिभाषा
प्रीत ही जाने।

6.
प्रीत औघड़
जिसपे मंत्र फूँके
वह न बचे।

7.
प्रीत उपजे
जाने ये कैसी माटी
खाद न पानी ।

- जेन्नी शबनम (8. 12. 2013)
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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

429. फिर आता नहीं

फिर आता नहीं

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जाने कब आएगा, मेरा वक़्त   
जब पंख मेरे और परवाज़ मेरी   
दुनिया की सारी सौग़ात मेरी   
फूलों की खुशबू, तारों की छतरी   
मेरे अँगने में खिली रहे, सदा चाँदनी   

वो कोई सुबह   
जब आँखों के आगे कोई धुँध न हो   
वो कोई रात, जो अँधेरी मगर काली न हो   
साँसों में ज़रा-सी थकावट नहीं   
पैरों में कोई बेड़ी नहीं   
उड़ती पतंगों-सी, गगन को छू लूँ   
जब चाहे हवा से बातें करूँ   
नदियों के संग बहती रहूँ   
झीलों में डुबकी, मन भर लेती रहूँ   
चुन-चुनकर, ख़्वाब सजाती रहूँ   
सारे ख़्वाब हों, सुनहरे-सुनहरे   
शहद की चाशनी में पके, मीठे गुलगुले-से  

धक् से, दिल धड़क गया   
सपने में देखा, उसने मुझसे कहा-   
तुम्हारा वक़्त कल आएगा   
लम्हा भर भी सोना नहीं   
हाथ बढ़ाकर पकड़ लेना झट से   
खींचकर चिपका लेना कलेजे से   
मंदी का समय है, सब झपटने को आतुर   
चूकना नहीं   
गया वक़्त फिर आता नहीं   

- जेन्नी शबनम (13. 12. 2013) 
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बुधवार, 11 दिसंबर 2013

428. ज़िन्दगी की उम्र (पुस्तक - 97)

ज़िन्दगी की उम्र

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लौट आने की ज़िद, अब न करो
यही मुनासिब है, क्योंकि
कुछ रास्ते वापसी के लिए बनते ही नहीं हैं, 
इन राहों पर जाने की
पहली और आख़िरी शर्त है कि
जैसे-जैसे क़दम आगे बढ़ेंगे
पीछे के रास्ते, सदा के लिए ख़त्म होते जाएँगे
हथेली में चाँदनी रखो
तो जलकर राख बन जाएँगे,
तुम्हें याद तो होगा
कितनी दफ़ा ताकीद किया था तुम्हें 
मत जाना, न मुझे जाने देना
उन राहों पर कभी 
क्योंकि, यहाँ से वापसी 
मृत्यु-सी नामुमकिन है 
बस एक फ़र्क़ है
मृत्यु सारी तकलीफ़ों से निजात दिलाती है
तो इन राहों पर तकलीफ़ों की इंतहा है
परन्तु, मुझपर भरोसे की कमी थी शायद  
या तुम्हारा अहंकार
या तुम्हें ख़ुद पर यक़ीन नहीं था 
धकेल ही दिया मुझे, उस काली अँधेरी राह पर
और ख़ुद जा गिरे, ऐसी ही एक राह पर
अब तो बस
यही ज़िन्दगी है
यादों की ख़ुशबू से लिपटी
राह के काँटों से लहूलुहान
मालूम है मुझे 
मेरी हथेली पर जितनी राख है
तुम्हारी हथेली पर भी उतनी ही है
मेरे पाँव में जितने छाले हैं
तुम्हारे पाँव में भी उतने हैं,
अब न पाँव रुकेंगे
न ज़ख़्म भरेंगे
न दिन फिरेंगे
अंतहीन दर्द, अनगिनत साँसें, छटपटाहट
मगर, वापसी नामुमकिन
काश!
सपनों की उम्र की तरह
ज़िन्दगी की उम्र होती!

- जेन्नी शबनम (11. 12. 2013)
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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

427. ज़िन्दगी लिख रही हूँ

ज़िन्दगी लिख रही हूँ

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लकड़ी के कोयले से 
आसमान पर ज़िन्दगी लिख रही हूँ 
उन सबकी 
जिनके पास शब्द तो हैं 
पर लिखने की आज़ादी नहीं,
तुम्हें तो पता ही है  
क्या-क्या लिखूँगी- 
वो सब जो अनकहा है 
और वो भी 
जो हमारी तक़दीर में लिख दिया गया था 
जन्म से पूर्व 
या शायद यह पता होने पर कि
दुनिया हमारे लिए होती ही नहीं है, 
बुरी नज़रों से बचाने के लिए
बालों में छुपाकर 
कान के नीचे काजल का टीका 
और दो हाथ आसमान से दुआ माँगती रही 
जाने क्या? 
पहली घंटी के साथ 
क्रमश बढ़ता रुदन 
सबसे दूर इतनी भीड़ में बड़ा डर लगा था 
पर बिना पढ़ाई ज़िन्दगी मुकम्मल कहाँ होती है,
वक़्त की दोहरी चाल
वक़्त की रंजिश   
वक़्त ने हठात जैसे जिस्म के लहू को सफ़ेद कर दिया
सब कुछ गडमगड 
सपने-उम्मीद-भविष्य
फड़फड़ाते हुए परकटे पंछी-से धाराशायी, 
अवाक्!
स्तब्ध! 
आह!
कहीं कोई किरण?
शायद नहीं!
दस्तूर तो यही है न!
जिस्म जब अपने ही लहू से रंग गया 
आत्मा जैसे मूक हो गई 
निर्लज्जता अब सवाल नहीं जवाब बन गई  
यही तो है हमारा अस्तित्व
भाग सको तो भाग जाओ 
कहाँ?
यह भी ख़ुद का निर्णय नहीं
लिखी हुई तक़दीर पर मूक सहमति 
आख़िरी निर्णय 
आसमान की तरफ दुआ के हाथ नहीं 
चिता के कोयले से 
आसमान पर ज़िन्दगी की तहरीर!

- जेन्नी शबनम (11. 11. 2013)
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मंगलवार, 26 नवंबर 2013

426. जी उठे इन्सानियत

जी उठे इन्सानियत

***

कभी तफ़्सील से करेंगे, रूमानी ज़ीस्त के चर्चे
अभी तो चल रही है नाज़ुक, लहूलुहान हवा
डगमगाती, थरथराती, घबराती
इसे सँभालना ज़रूरी है। 

गिर जो गई, होश हमारे भी मिट जाएँगे
न रहेगा तख़्त, न बचेगा ताज
उजड़ जाएगा बेहाल चमन
मुफ़लिसी जाने कब कर जाएगी ख़ाक
छिन जाएगा अमन
तड़पकर चीखेगी 
सूरज की हताश किरणें, चाँद की व्याकुल चाँदनी
आसमाँ से लहू बरसेगा, धरती की कोख आग उगलेगी
हम भस्म हो जाएँगे 
हमारी नस्लें कुतर-कुतरकर खाएँगी, अपना ही चिथड़ा

ओह! छोड़ो रूमानी बातें, इश्क़ के चर्चे  
अभी वक़्त है इन्सान के वजूद को बचा लो
आग, हवा, पानी से ज़रा बहनापा निभा लो
जंगल-ज़मीन को पनपने दो
हमारे दिलों को जला रही है, अपने ही दिल की चिनगारी
मौसम से उधारी लेकर चुकाओ दुनिया की क़र्ज़दारी

नहीं है फ़ुर्सत, किसी को नहीं 
सँभलने या सँभालने की 
तुम बरख़ास्त करो अपनी फ़ुर्सत
और सबको जबरन भेजो 
अपनी-अपनी हवा को सँभालने

अब नहीं, तो शायद कभी नहीं
न आएगा कोई हसीन मौसम
वक़्त से गुस्ताख़ी करता हुआ
फिर कभी न हो पाएँगी 
फ़सलों की बातें, फूल की बातें, रूह की बातें
दिल के कच्चे-पक्के इश्क़ की बातें

आओ अपनी-अपनी हवा को टेक दें
और भर दें मौसम की नज़ाकत
छोड़ जाएँ थोड़ी रूमानियत, थोड़ी रूहानियत
ताकि जी उठे इन्सानियत

फिर लोग दोहराएँगे हमारे चर्चे 
और हम तफ़्सील से करेंगे, रूमानी ज़ीस्त के चर्चे।

-जेन्नी शबनम (26.11.2013)
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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

425. साँसों की लय (चोका - 5)

साँसों की लय  

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साँसें ज़िन्दगी 
निरंतर चलती 
ज़िंदा होने का   
मानों फ़र्ज़ निभाती, 
साँसों की लय 
है हिचकोले खाती    
बढ़ती जाती   
अपनी ही रफ़्तार  
थकती रही 
पर रुकती नही 
चलती रही 
कभी पूरजोरी से 
कभी हौले से 
कभी तूफ़ानी चाल 
हो के बेहाल 
कभी मध्यम चाल 
सकपका के   
कभी धुक-धुक सी  
डर-डर के 
मानो रस्म निभाती, 
साँसें अक्सर  
बेअदबी करती 
इश्क़ भूल के 
नफरत ख़ुद से 
नसों में रोष 
बेइन्तिहा भरती 
लगती कभी
मानो ग़ैर जिन्दगी, 
रहे तो रहे 
परवाह न कोई 
मिटे तो मिटे 
मगर साँसें घटें 
रस्म तो टूटे 
मानों होगी आज़ादी, 
कुम्हलाई है 
सपनों की ज़मीन 
उगते नही 
बारहमासी फूल 
जो दे सुगंध 
सजा जाए जीवन 
महके साँसें 
मानो बगिया मन, 
घायल साँसें 
भरती करवटें 
डर-डर के 
कँटीले बिछौने पे 
जिन्दगी जैसे 
लहूलुहान साँसें 
छटपटाती 
मानों ज़िन्दगी रोती 
आहें भरती 
रुदाली बन कर 
रोज़ मर्सिया गाती । 

- जेन्नी शबनम (21. 11. 2013)

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शनिवार, 16 नवंबर 2013

424. जन्म-नक्षत्र

जन्म-नक्षत्र

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सारे नक्षत्र
अपनी-अपनी जगह
आसमान में देदीप्यमान थे
कहीं संकट के कोई चिह्न नहीं
ग्रहों की दशा विपरीत नहीं
दिन का दूसरा पहर
सूरज मद्धिम-मद्धिम दमक रहा था
कार्तिक का महीना अभी-अभी बीता था
मघा नक्षत्र पूरे शबाब पर था
सारे संकेत शुभ घड़ी बता रहे थे
फिर यह क्योंकर हुआ?
यह आघात क्यों?
जन्म-नक्षत्र ने खोल दिए सारे द्वार    
ज़मीं ही स्वर्ग बन गई तुम्हारे लिए  
और मैं छटपटाती रही
नरक भोगती रही तुम्हारे स्वर्ग में 
शुभ घड़ी शुभ संकेत सब तुम्हारे लिए 
नक्षत्र की शुभ दृष्टि तुम पर 
और मुझ पर टेढ़ी नज़र 
ऐसा क्यों?

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2013)
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सोमवार, 11 नवंबर 2013

423. खिड़कियाँ

खिड़कियाँ 

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अभेद दीवारों से झाँकती   
कभी बंद, कभी खुलती   
जाने क्या-क्या सोचती है खिड़की   
शहर का हाल, मोहल्ले का सरोकार   
या दूसरी झाँकती खिड़की के अंदर की बेहाली   
जहाँ अनगिनत आत्माएँ, टूटी बिखरी   
अपने-अपने घुटनों में, अपना मुँह छुपाए   
आने वाले प्रलय से बदहवास हैं   
किसी के पास   
शब्द की जादूगरी नहीं बची   
न ग़ैरों के लिए   
किसी का मज़बूत कंधा ही बचा है   
सभी झाँकती खिड़कियाँ   
एक दूसरे का हाल जानती हैं   
इसलिए उन्होंने   
सारे सवालों को देश निकाला दे दिया है   
और बहनापे के नाते से इंकार कर दिया है   
बची हुई कुछ अबोध खिड़कियाँ   
अचरज और आतंक से देखती   
लहू में लिपटे शोलों को   
दोनों हाथों से लपक रही हैं   
खिड़कियाँ   
जाने क्या-क्या सोच रही हैं।   

- जेन्नी शबनम (10. 9. 2013) 
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शनिवार, 2 नवंबर 2013

422. दीप-दीपाली (दीपावली पर 18 हाइकु) पुस्तक 46-48

दीप-दीपाली 

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1.
उतरे नीचे
नक्षत्र आसमाँ के
ज़मीन पर

2.
लौटे प्रवासी
त्योहार का मौसम
सजी दीवाली

3.
राम प्रवासी
लौटे हो के विजयी
दीवाली सजी

4.
तमाम रात
बेताबी से जलती
दीप-दीपाली

5.
बड़ी बेताबी
मगर हौले-हौले
जलती बाती

6.
आख़िर भागा
एक दिन ही सही
तम अभागा

7.
जुगनू लाखों
धरती पर नाचे
साथ ही जले

8.
विफल हुई
अँधेरों की साज़िश
रोशनी जीती

9.
है इतराई
रोशनी छितराई
दीवाली आई

10.
मुठ्ठी से गिरी
धरा पर रोशनी
आसमान से

11.
अँधेरा भागा
उजाले से डरके
रोशनी नाची

12.
चादर तान
आज अँधेरा सोया
दीपक जला

13.
जीते रोशनी
महज़ एक दिन
हारे अँधेरा

14.
खुलके हँसी
जगमग रोशनी
अँधेरा चुप

15.
चाँद सितारे
उतरे ज़मीन पे
धरा सजाने

16.
रात है काली
दीयों से सजकर
ख़ूब शर्माती

17.
घूँघट काढ़े
धरती इठलाती
दीया जलाती


18.
घर-घर में
बरसी है चाँदनी
अमावस में

- जेन्नी शबनम (1. 11. 2013)
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रविवार, 20 अक्टूबर 2013

421. ज़िन्दगी (21 हाइकु) पुस्तक 44-46

ज़िन्दगी

*******

1.
लम्हों की लड़ी
एक-एक यूँ जुड़ी
ज़िन्दगी ढली।

2.
गुज़र गई
जैसे साज़िश कोई
तमाम उम्र।

3.
ताकती रही
जी गया कोई और
ज़िन्दगी मेरी।

4.
बिना बताए
जाने किधर गई
मेरी ज़िन्दगी

5.
फैला सन्नाटा
ज़मीं से नभ तक,
ज़िन्दगी कहाँ?

6.
कैसी पहेली
ज़िन्दगी हुई अवाक्
अनसुलझी।

7.
उलझी हुई 
है अजब पहेली
मूर्ख ज़िन्दगी

8.
ज़िन्दगी बीती
जैसे शोर मचाती
आँधी गुज़री।

9.
शोर मचाती
बावरी ये ज़िन्दगी 
भागती रही।

10.
खींचती रही
अन्तिम लक्ष्य तक
ज़िन्दगी-रथ।

11.
रिसता लहू
चाक-चाक ज़िन्दगी 
चुपचाप मैं।

12.
नहीं खिलती
ज़िन्दगी की बगिया
रेगिस्तान में।

13.
तड़पी सदा 
जल-बिन मीन-सी 
ज़िन्दगी बीती

14.
रौशन होती
ग़ैरों की चमक से
हाय ज़िन्दगी!

15.
तमाम उम्र
भरमाती ही रही
ज़िन्दगी छल।

16.
मौन ही रहो
ज़िन्दगी चुप रहो
ज्यों सूरज है।

17.
ज़िन्दगी ढली
मगर चुपचाप
ज्यों रात ढली।

18.
सूरज ढला
ज़िन्दगी भी गुज़री
सब ख़ामोश।

19.
अब भी शेष
देहरी पर मन
स्वाहा ज़िन्दगी

20.
मेरी ज़िन्दगी 
कहानी बन गई
सबने कही।

21.
हवन हुई
बादलों तक गई
ज़िन्दगी धुँआ।

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2013)
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सोमवार, 30 सितंबर 2013

420. क्या बिगड़ जाएगा

क्या बिगड़ जाएगा

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गहराती शाम के साथ  
मन में धुक-धुकी समा जाती है 
सब ठीक तो होगा न 
कोई मुसीबत तो न आई होगी 
कहीं कुछ ग़लत-सलत न हो जाए 
इतनी देर, कोई अनहोनी तो नहीं हो गई 
बार-बार कलाई की घड़ी पर नज़र 
फिर दीवार घड़ी पर 
घड़ी ने वक़्त ठीक तो बताया है न  
या घड़ी खराब तो नहीं हो गई 
हे प्रभु!
रक्षा करना, किसी संकट में न डालना 
कभी कोई ग़लती हुई हो तो क्षमा करना 
वक़्त पर लौट आने से क्या चला जाता है?
कोई सुनता क्यों नहीं? 
दिन में जितनी मनमर्ज़ी कर लो 
शाम के बाद सीधे घर 
आख़िर यह घर है, कोई होटल नहीं
कभी घड़ी पर निगाहें 
कभी मुख्य द्वार पर नज़र 
फिर बालकनी पर चहलक़दमी 
सिर्फ़ मुझे ही फ़िक्र क्यों?
सब तो अपने में मगन हैं 
कमबख़्त टी. वी. देखना भी नहीं सुहाता है 
जब तक सब सकुशल वापस न आ जाए। 
बार-बार टोकना 
किसी को नहीं भाता है 
मगर आदत जो पड़ गई है 
उस ज़माने से ही 
जब हमें टोका जाता था
और हमें भी बड़ी झल्लाहट होती थी 
फिर धीरे-धीरे आदत पड़ी  
और वक़्त की पाबंदी को अपनाना पड़ा था  
पर कितना तो मन होता था तब 
कि सबकी तरह थोड़ी-सी चकल्लस कर ली जाए 
ज़रा-सी मस्ती
ज़रा-सी अल्हड़ता 
ज़रा-सी दीवानगी 
ज़रा-सी शैतानी    
ज़रा-सी तो शाम हुई है 
क्या बिगड़ जाएगा
पर अब 
सब आने लगा समझ में 
फ़िक्रमंद होना भी लत की तरह है 
जानते हुए कि कुछ नहीं कर सकते  
जो होना है होकर ही रहता है 
न घड़ी की सूई, न बालकोनी, न दरवाज़े की घंटी
मेरे हाँ में हाँ मिलाएगी  
फिर भी आदत जो है।

- जेन्नी शबनम (30. 9. 2013)
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बुधवार, 25 सितंबर 2013

419. पीर जिया की (7 ताँका)

पीर जिया की
(7 ताँका)

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1.
आँखों की कोर
जहाँ पे चुपके से  
ठहरा लोर, 
कहे निःशब्द कथा 
मन अपनी व्यथा !

2.
छलके आँसू 
बह गया कजरा 
दर्द पसरा, 
सुधबुध गँवाए
मन है घबराए !

3.
सह न पाए 
मन कह न पाए
पीर जिया की,  
फिर आँसू पिघले  
छुप-छुप बरसे ! 

4.
मौसम आया 
बहा कर ले गया 
आँसू की नदी,  
छँट गयी बदरी 
जो आँखों में थी घिरी !  

5.
मन का दर्द 
तुम अब क्या जानो 
क्यों पहचानो, 
हुए जो परदेसी
छूटे हैं नाते देसी !

6. 
बैरंग लौटे 
मेरी आँखों में आँसू 
खोए जो नाते, 
अनजानों के वास्ते 
काहे आँसू बहते ! 

7.
आँख का लोर 
बहता शाम-भोर, 
राह अगोरे 
ताखे पर ज़िंदगी 
नहीं कहीं अँजोर !
____________
लोर - आँसू 
अँजोर - उजाला
____________  

- जेन्नी शबनम (24. 9. 2013)

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सोमवार, 9 सितंबर 2013

418. क़दम ताल

क़दम ताल

***

समय की भट्टी में पककर
कभी कंचन तो कभी बंजर बन जाता है जीवन 
कभी कोई आकार ले लेता है 
तो कभी सदा के लिए जल जाता है जीवन। 

सोलह आना सही-
आँखें मूँद लेने से समय रुकता नहीं
न थम जाने से ठहरता है
निदान न पलायन में है 
न समय के साथ चक्र बन जाने में है। 

मुनासिब यही है    
समय चलता रहे अपनी चाल 
और हम चलें अपनी रफ़्तार  
मिलाकर समय से क़दम ताल

-जेन्नी शबनम (9.9.2013)
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बुधवार, 21 अगस्त 2013

417. मन के नाते (राखी पर 12 हाइकु) पुस्तक 43,44

मन के नाते (राखी के हाइकु) (12 हाइकु)

*******

1.
हाथ पसारे 
बँधवाने राखी 
चाँद तरसे। 

2.
सूनी कलाई 
बहना नहीं आई
भैया उदास। 

3.
बाँधो मुझे भी
चन्दा मामा कहता 
सुन्दर राखी।

4.
लाखों बहना
बाँध न पाए राखी 
भैया विदेश।

5.
याद रखना-
बहन का आशीष
राखी कहती।

6.
राखी की लाज
रखना मेरे भैया 
ढाल बनना।

7.
ये धागे कच्चे
जोड़ते रिश्ते पक्के
होते ये सच्चे।  

8.
किसको बाँधे
हैं सारे नाते झूठे  
राखी भी सोचे।

9.
नेह लुटाती 
आजीवन बहना 
होती पराई।

10.
करता याद
बस आज ही भैया 
राखी जो आई।

11.
नहीं है आता 
मनाने अब भैया  
अब जो रूठी।

12.
है अनमोल 
उऋण होऊँ कैसे 
मन के नाते

- जेन्नी शबनम (21. 8. 2013)
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शनिवार, 17 अगस्त 2013

416. माथे पे बिंदी (11 हाइकु) पुस्तक 42,43

माथे पे बिंदी 

*******

1.
माथे की बिंदी 
आसमान में चाँद 
सलोना रूप। 

2.
लाल बिंदिया 
ज्यों उगता सूरज
चेहरा खिला

3.
ऋषि कहते 
कपाल पर बिंदी 
सौभाग्य-चिह्न

4.
झिलमिलाती 
भोर की लाली-जैसी 
माथे की बिंदी

5.
मुख चमके 
दिप-दिप दमके 
लाल बिंदी से

6.
सिन्दूरी बिंदी 
सूरज-सी चमके
गोरी चहके

7.
माथे पे बिंदी 
सुहाग की निशानी 
हमारी रीत 

8.
अखण्ड भाग्य 
सौभाग्य का प्रतीक 
छोटी-सी बिंदी

9.
माथे पे सोहे 
आसमाँ पे चन्दा ज्यों 
मुस्काती बिंदी

10.
त्रिनेत्र जहाँ 
शिव के माथे पर 
वहीं पे बिंदी

11.
महत्वपूर्ण 
ज्यों है भाषा में बिंदी
त्यों स्त्री की बिंदी

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2012)
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बुधवार, 7 अगस्त 2013

415. मत सोच अधिक (15 हाइकु) पुस्तक 40-42

मत सोच अधिक 

******* 

1.
जो बीत गया 
मत सोच अधिक,
बढ़ता चल।

2.
जीवन-पथ 
डराता है बहुत, 
हारना मत।

3.
सब आएँगे 
जब हम न होंगे, 
अभी न कोई। 

4.
अपने छूटे
सब सपने टूटे, 
जीवन बचा।

5.
बहलाती हैं
ये स्मृतियाँ सुख की 
जीवन-भ्रम।

6.
शोक क्यों भला?
ग़ैरों के विछोह का 
ठहरा कौन?

7.
कतराती हैं 
सीधी सरल राहें, 
वक़्त बदला।

8.
ताली बजाती 
बरखा मुस्कुराती 
ख़ूब बरसी। 

9.
सब बिकता  
पर क़िस्मत नहीं, 
लाचार पैसा।

10
सब अकेले 
चाँद-सूरज जैसे
फिर शोक क्यों?

11.
जीवन साया 
कौन पकड़ पाया,
मगर भाया। 

12.
ज़िन्दगी माया 
बड़ा ही भरमाया 
हाथ न आया।

13.
सपने जीना 
सपनों को जिलाना,
हुनर बड़ा।

14.
कैसी पहेली 
ज़िन्दगी की दुनिया,
रही अबूझी।

15.
ख़ुद से नाता  
जीवन का दर्शन,  
आज की शिक्षा।

- जेन्नी शबनम (21. 7. 2013)
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रविवार, 28 जुलाई 2013

414. वापस अपने घर

वापस अपने घर

***

अरसे बाद 
ख़ुद के साथ वक़्त बीत रहा है  
यों लगता है जैसे बहुत दूर से चलकर आए हैं
सदियों बाद वापस अपने घर।

उफ़! कितना कठिन था सफ़र 
रास्ते में हज़ारों बन्धन  
कहीं कामनाओं का ज्वारभाटा 
कहीं भावनाओं की अनदेखी दीवार 
कहीं छलावे की चकाचौंध रोशनी
इन सबसे बहकता, घबराता   
बार-बार घायल होता मन 
जो बार-बार हारता 
लेकिन ज़िद पर अड़ा रहता 
और हर बार नए सिरे से 
सुकून तलाशता फिरता। 

बहुत कठिन था, अडिग होना 
इन सबसे पार जाना
उन कुण्ठाओं से बाहर निकलना
जो जन्म से ही विरासत में मिलती हैं     
सारे बन्धनों को तोड़ना 
जिसने आत्मा को जकड़ रखा था 
ख़ुद को तलाशना, ख़ुद को वापस लाना 
ख़ुद में ठहरना।

पर एक बार 
एक बड़ा हौसला, एक बड़ा फ़ैसला  
अन्तर्द्वन्द्व के विस्फोट का सामना  
ख़ुद को समझने का साहस
फिर हर भटकाव से मुक्ति
अंततः अपने घर वापसी।

अब ज़रा-ज़रा-सी कसक 
हल्की-हल्की-सी टीस 
मगर कोई उद्विग्नता नहीं  
कोई पछतावा नहीं
सब कुछ शान्त, स्थिर।

पर हाँ! 
इन सब में जीने के लिए उम्र और वक़्त 
हाथ से दोनों ही निकल गए।

-जेन्नी शबनम (28.7.2013)
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बुधवार, 24 जुलाई 2013

413. धूप (15 हाइकु) पुस्तक 39,40

धूप

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1.
सूर्य जो जला   
किसके आगे रोए  
ख़ुद ही आग। 

2.
घूमता रहा 
सारा दिन सूरज 
शाम को थका। 

3.
भुट्टे-सी पकी
सूरज की आग पे    
फ़सलें सभी।

4.
जा भाग जा तू!
जला देगी तुझको  
शहर की लू।

5.
झुलसा तन 
झुलस गई धरा 
जो सूर्य जला।

6.
जल-प्रपात 
सूर्य की भेंट चढ़े 
सूर्य शिकारी।

7.
धूप खींचता 
आसमान से दौड़ा,
सूरज घोड़ा।

8.
ठंडे हो जाओ 
हाहाकार है मचा 
सूर्य देवता।

9.
असह्य ताप 
धरती कर जोड़े- 
'मेघ बरसो!'

10.
माना सबने- 
सर्वशक्तिमान हो 
शोलों को रोको।

11.
ख़ुद भी जले  
धरा को भी जलाए  
प्रचण्ड सूर्य।

12.
हे सूर्य देव!
कर दो हमें माफ़  
गुस्सा न करो।

13.
आग उगली  
बादल जल गया 
सूरज दैत्य।

14.
झुलस गया 
अपने ही ताप से 
सूर्य बेचारा।

15.
धूप के ओले  
टप-टप टपके 
सूरज फेंके।

- जेन्नी शबनम (1. 6. 2013)
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गुरुवार, 18 जुलाई 2013

412. जादूगर

जादूगर

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ओ जादूगर!
तुम्हारा सबसे ख़ास
मेरा प्रिय जादू दिखाओ न!
जानती हूँ 
तुम्हारी काया जीर्ण हो चुकी है 
और अब मैं 
ज़िन्दगी और जादू को समझने लगी हूँ 
फिर भी मेरा मन है 
एक बार और तुम मेरे जादूगर बन जाओ 
और मैं तुम्हारे जादू में 
अपना रोना भूल 
एक आख़िरी बार खिल जाऊँ।
तुम्हें याद है 
जब तुम मेरे बालों से टॉफ़ी निकालकर  
मेरी हथेली पर रख देते थे 
मैं झट से खा लेती थी 
कहीं जादू की टॉफ़ी ग़ायब न हो जाए
कभी तुम मेरी जेब से  
कुछ सिक्के निकाल देते थे 
मैं हत्प्रभ 
झट मुट्ठी बंद कर लेती थी 
कहीं जादू के सिक्के ग़ायब न हो जाए 
और मैं ढेर सारे गुब्बारे न खरीद पाऊँ।
मेरे मन के ख़िलाफ़
जब भी कोई बात हो 
मैं रोने लगती और तुम पुचकारते हुए 
मेरी आँखें बंदकर जादू करते 
जाने क्या-क्या बोलते 
सुनकर हँसी आ ही जाती थी 
और मैं खिसियाकर तुम्हें मुक्के मारने लगती
तुम कहते- 
बिल्ली झपट्टा मारी 
बिल्ली झपट्टा मारी 
मैं कहती-
तुम चूहा हो 
तुम कहते-
तुम बिल्ली हो 
एक घमासान, फिर तुम्हारा जादू 
वही टॉफ़ी, वही सिक्के।
जानती हूँ 
तुम्हारा जादू, सिर्फ़ मेरे लिए था 
तुम सिर्फ़ मेरे जादूगर थे 
मेरी हँसी मेरी ख़ुशी 
यही तो था तुम्हारा जादू।
ओ जादूगर!
एक आख़िरी जादू दिखाओ न! 

- जेन्नी शबनम (18. 7. 2013)
(पिता की पुण्यतिथि)
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शनिवार, 13 जुलाई 2013

411. सन्नाटे के नाम ख़त (10 हाइकु) पुस्तक 38, 39

सन्नाटे के नाम ख़त (10 हाइकु)

***

1.
सन्नाटा भागा
चुप्पी ने मौन तोड़ा, 
जाने क्या बोला।  

2.
कोई न आया 
पसरा है सन्नाटा 
मन अकेला।  

3.
किसे फुर्सत?
चुप्पी की बात सुने
चुप्पी समझे।  

4.
चुप्पी भीतर 
सन्नाटा है बाहर
खेलता खेल।  

5.
दूर देश में  
समंदर पार से 
चुप्पी है आई।   

6.
ख़त है आया 
सन्नाटे के नाम से, 
चुप्पी ने भेजा।   

7.
बड़ा डराता 
ये गहरा सन्नाटा 
ज्यों दैत्य काला।  

8.
चुप्पी को ओढ़    
हँसते ही रहना,  
दुनियादारी।  

9.
खिंचे सन्नाटे 
करते ढेरों बातें 
चुप-चुप-से।  

10.
क्या हुआ गुम?
क्यों हुए गुमसुम?
मन है मौन।  

- जेन्नी शबनम (21. 6. 2013)
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