शनिवार, 10 दिसंबर 2016

533. जग में क्या रहता है (9 माहिया)

जग में क्या रहता है  
(9 माहिया)

*******  

1.  
जीवन ये कहता है  
काहे का झगड़ा  
जग में क्या रहता है!  

2.  
तुम कहते हो ऐसे  
प्रेम नहीं मुझको  
फिर साथ रही कैसे!  

3.  
मेरा मौन न समझे  
कैसे बतलाऊँ  
मैं टूट रही कबसे!  

4.  
तुम सब कुछ जीवन में  
मिल न सकूँ फिर भी  
रहते मेरे मन में!  

5.  
मुझसे सब छूट रहा  
उम्र ढली अब तो  
जीवन भी टूट रहा!  

6.  
रिश्ते कब चलते यूँ  
शिकवे बहुत रहे  
नाते जब जलते यूँ!  

7.  
सपना जो टूटा है  
अँधियारा दिखता  
अपना जो रूठा है!  

8.  
दुनिया का कहना है  
सुख-दुख जीवन है  
सबको ही बहना है!  

9.  
कहती रो के धरती  
न उजाड़ो मुझको  
मैं निर्वसना मरती!  

- जेन्नी शबनम (6. 12. 2016)  

____________________________

रविवार, 27 नवंबर 2016

532. मानव-नाग

मानव-नाग  
 
*** 

सुनो! अगर सुन सको    
ओ मानव केंचुल में छुपे नाग!
   
डसने की आज़ादी मिल गई तुम्हें   
पर जीत ही जाओगे 
यह भ्रम क्यों? 
केंचुल की ओट में छुपकर   
नाग जाति का अपमान क्यों करते हो?  
नाग बेवजह नहीं डसता 
पर तुम?
  
धोखे से कब तक धोखा दोगे   
बिल से बाहर आकर पृथक होना होगा   
छोड़ना होगा केंचुल तुम्हें   
कौन नाग, कौन मानव   
किसका केंचुल, किसका तन   
बीन बजाता संसार सारा   
वक़्त के खेल में सब हारा। 
   
ओ मानव-नाग!
कब तक बच पाओगे?   
नियति से आख़िर हार जाओगे   
समय रहते मानव बन जाओ   
अन्यथा वह होगा, जो होता है 
ज़हरीले नाग का अन्त   
सदैव क्रूर होता है।

-जेन्नी शबनम (27.11.2016)
____________________

सोमवार, 14 नवंबर 2016

531. बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज

बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज

*******   

बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज   
क्यों चारों पहर ये जलता है,  
दो पल चैन से सो लूँ मैं भी   
क्या उसका मन नहीं करता है?   

बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज   
क्यों चारों पहर ये जलता है   

देस परदेस भटकता रहता   
घड़ी भर को नहीं ठहरता है,   
युगों से है वो ज्योत बाँटता   
मगर कभी नहीं वह घटता है   

बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज   
क्यों चारों पहर ये जलता है   

कभी गुर्राता कभी मुस्काता   
खेल धूप-छाँव का चलता है,   
आँखें बड़ी-सी ये मटकाता   
जब बादलों में वह छुपता है   

बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज   
क्यों चारों पहर ये जलता है   

कभी ठंडा कभी गरम होता   
हर मौसम-सा रूप धरता है,   
शोला-किरण दोनों बरसाता   
मगर ख़ुद कभी नहीं जलता है   

बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज   
क्यों चारों पहर ये जलता है   

जाने कितने ख़्वाब सँजोता    
वो हर दिन घर से निकलता है,   
युगों-युगों से ख़ुद को जलाता   
वो सबके लिए ये सहता है   

बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज   
क्यों चारों पहर ये जलता है   

- जेन्नी शबनम (14. 11. 2016) 
(बाल दिवस)  
_____________________

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

530. पुकार (क्षणिका)

पुकार

*******

हाँ! मुझे मालूम है  
एक दिन तुम याद करोगे  
मुझे पुकारोगे पर मैं नहीं आऊँगी  
चाहकर भी न आ पाऊँगी  
इसलिए जब तक हूँ क़रीब रहो
ताकि उस पुकार में ग्लानि न हो  
महज़ दूरी का गम हो

- जेन्नी शबनम (4. 11. 2016)
____________________

बुधवार, 14 सितंबर 2016

529. हिन्दी खिलेगी (हिन्दी दिवस पर 9 हाइकु) पुस्तक 82

हिन्दी खिलेगी

*******   

1.   
मन की बात   
कह पाएँ सबसे   
हिन्दी के साथ।   

2.   
हिन्दी रूठी है   
अंग्रेज़ी मातृभाषा   
बन ऐंठी है।   

3.   
सपना दिखा   
हिन्दी अब भी रोती   
आज़ादी बाद।   

4.   
हिन्दी की बोली   
मात खाती रहती   
पढ़े लिखों से।   

5.   
हिन्दी दिवस   
एक दिन का जश्न   
फिर अँधेरा।   

6.   
हमारी हिन्दी   
हमारा अभिमान   
सब दो मान।   

7.   
है इन्क़लाब   
सब जुट जाएँ तो   
हिन्दी की शान।   

8.   
हिन्दी हँसती   
राजभाषा तो बनी,   
कहने भर।   

9.   
सुबह होगी   
देश के ललाट पे   
हिन्दी खिलेगी।   

- जेन्नी शबनम (14. 9. 2016)
(हिन्दी दिवस) 
____________________

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

528. देर कर दी

देर कर दी   

*******   

हाँ! देर कर दी मैंने   
हर उस काम में जो मैं कर सकती थी   
दूसरों की नज़रों में ख़ुद को ढालते-ढालते
सबकी नज़रों से छुपाकर   
अपने सारे हुनर दराज़ में बटोरकर रख दी   
दुनियादारी से फ़ुर्सत पाकर   
करूँगी कभी मन का।

अंतत: अब   
मैं फ़िजूल साबित हो गई
रिश्ते सहेजते-सहेजते ख़ुद बिखर गई
साबुत कुछ नहीं बचा
न रिश्ते न मैं न मेरे हुनर।

मेरे सारे हुनर   
चीख़ते-चीख़ते दम तोड़ गए  
बस एक दो जो बचे हैं   
उखड़ी-उखड़ी साँसें ले रहे हैं   
मर गए सारे हुनर के क़त्ल का
इल्ज़ाम मुझको दे रहे है
मेरे क़ातिल बन जाने का सबब
वे मुझसे पूछ रहे हैं।

हाँ! बहुत देर कर दी मैंने
दुनिया को समझने में
ख़ुद को बटोरने में
अर्धजीवित हुनर को बचाने में।   

हाँ! देर तो हो गई
पर सुबह का सूरज
अपनी आँच मुझे दे रहा है
अँधेरों की भीड़ से खींचकर मुझे
उजाला दे रहा है।

हाँ! देर तो हो गई मुझसे
पर अब न होगी   
नहीं बचा वक़्त मेरे पास अब
जो भी बच सका है रिश्ते या हुनर   
सबको एक नई उम्र दूँगी   
हाँ! अब देर न करूँगी।   

- जेन्नी शबनम (9. 9. 2016)
___________________

बुधवार, 31 अगस्त 2016

527. शबनम (तुकांत)

शबनम   

*******   

रात चाँदनी में पिघलकर   
यूँ मिटी शबनम   
सहर को ये ख़बर नहीं थी   
कब मिटी शबनम।    

दर्द की मिट्टी का घर   
फूलों से सँवरा   
दर्द को ढकती रही पर   
दर्द बनी शबनम।     

अपनों के शहर में   
है कोई अपना नहीं   
ठुकराया आसमाँ और   
उफ़ कही शबनम।     

चाँद तारों के नगर में   
हुई जो तकरार   
आसमान से टूटकर   
तब ही गिरी शबनम।     

शब व सहर की दौड़ से   
थकी तो बहुत मगर   
वक़्त के साथ चली   
अब भी है वही शबनम।     

- जेन्नी शबनम (31. 8. 2016)   
____________________

बुधवार, 24 अगस्त 2016

526. प्रलय (क्षणिका)

प्रलय   

*******   
नहीं मालूम कौन ले गया रोटी और सपनों को   
सिरहाने की नींद और तन के ठौर को   
राह दिखाते ध्रुव तारे और दिन के उजाले को    
मन की छाँव और अपनों के गाँव को,    
धधकती धरती और दहकता सूरज   
बौखलाई नदी और चीखता मौसम 
बाट जोह रहा है, मेरे पिघलने और बिखरने का   
मैं ढहूँ तो एक बात हो, मैं मिटूँ तो कोई बात हो। 

- जेन्नी शबनम (24. 8. 2016)   
_____________________

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

525. चहकती है राखी (राखी पर 15 हाइकु) पुस्तक 80, 81

चहकती है राखी   

*******   

1.   
प्यारी बहना   
फूट-फूट के रोई   
भैया न आया   

2.   
राखी है रोई   
सुने न अफ़साना   
कैसा ज़माना   

3.   
रिश्तों की क्यारी   
चहकती है राखी   
प्यार जो शेष   

4.   
संदेशा भेजो   
आया राखी त्योहार    
भैया के पास   

5.   
मन की पीड़ा   
भैया से कैसे कहें?   
राखी तू बता    

6.   
कह न पाई   
व्याकुल बहना,   
राखी निभाना   

7.   
संदेशा भेजो   
मचलती बहना   
आएगा भैया   

8.   
बहना रोए   
प्रेम का धागा लिये,   
रिश्ते दरके   

9.   
सावन आया   
नैनों से नीर बहे   
नैहर छूटा    

10.   
मन में पीर   
मत होना अधीर   
आज है राखी   

11.   
भाई न आया   
पर्वत-सा ये मन   
फूट के रोया    

12.   
राखी का थाल   
बहन का दुलार   
राह अगोरे    

13.   
रेशमी धागा   
जोड़े मन का नाता   
नेह बढ़ाता   

14.   
सूत है कच्चा   
जोड़ता नाता पक्का   
आशीष देता    

15.   
रक्षा-कवच   
बहन ने है बाँधी   
राखी जो आई   

- जेन्नी शबनम (18. 8. 2016)   
____________________

सोमवार, 15 अगस्त 2016

524. जय भारत (स्वतंत्रता दिवस पर 10 हाइकु) पुस्तक 79, 80

जय भारत

*******   

1.   
तिरंगा झूमा    
देख जश्ने-आज़ादी,   
जय भारत!   

2.   
मुट्ठी में झंडा   
पाई-पाई माँगता  
देश का लाल।    

3.   
भारत माता  
सरेआम लुटती,   
देश आज़ाद।    

4.   
जिन्हें सौंपके   
मर मिटे थे बापू,   
देश लूटते।    

5.   
महज़ नारा   
हम सब आज़ाद,   
सोच ग़ुलाम   

6.   
रंग भी बँटा   
हरा व केसरिया   
देश के साथ    

7.   
मिटा न सका   
प्राचीर का तिरंगा   
मन का द्वेष    

8.   
सबकी चाह-  
अखंड हो भारत,   
देकर प्राण   

9.   
लगाओ नारे   
आज़ाद है वतन   
अब न हारे   

10.   
कैसे मनाए   
आज़ादी का त्यौहार,   
भूखे लाचार    

- जेन्नी शबनम (14. 8. 2016)
____________________

सोमवार, 8 अगस्त 2016

523. उसने फ़रमाया है (तुकांत)

उसने फ़रमाया है   

*******   

ज़िल्लत का ज़हर कुछ यूँ वक़्त ने पिलाया है   
जिस्म की सरहदों में ज़िन्दगी दफ़नाया है। 

सेज पर बिछी कभी भी जब लाल सुर्ख कलियाँ   
सुहागरात की चाहत में मन भरमाया है। 

हाथ बाँधे ग़ुलाम खड़ी हैं खुशियाँ आँगन में   
जाने क्यूँ तक़दीर ने उसे आज़ादी से टरकाया है। 

हज़ार राहें दिखतीं किस डगर में मंज़िल किसकी   
डगमगाती क़िस्मत से हर इंसान घबराया है।    

'शब' के सीने में गढ़ गए हैं इश्क़ के किस्से  
कहूँ कैसे कोई ग़ज़ल जो उसने फ़रमाया है।    

- जेन्नी शबनम (8. 8. 2016)
____________________

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

522. चलो चलते हैं

चलो चलते हैं

*******  

सुनो साथी!  
चलो चलते हैं
नदी के किनारे ठंडी रेत पर
पाँव को ज़रा ताज़गी दे वहीं ज़रा सुस्ताएँगे
अपने-अपने हिस्से का अबोला दर्द  
रेत से बाँटेंगे  
न तुम कुछ कहना  
न हम कुछ पूछेंगे  
अपने-अपने मन की गिरह ज़रा-सी खोलेंगे  
मन की गाथा  
जो हम रचते हैं काग़ज़ के सीने पर  
सारी की सारी पोथियाँ वहीं बहा आएँगे  
अँजुरी में जल ले संकल्प दोहराएँगे  
और अपने-अपने रास्ते पर बढ़ जाएँगे  
सुनो साथी!  
चलते हैं नदी के किनारे  
ठंडी रेत पर वहीं ज़रा सुस्ताएँगे    

- जेन्नी शबनम (4. 8. 2016)  
_____________________


मंगलवार, 2 अगस्त 2016

521. खिड़की मर गई है (क्षणिका)

खिड़की मर गई है 

*******  

खिड़की बंद हो गई, वह बाहर नहीं झाँकती
आसमान और ताज़ी हवा से नाता टूट गया  
सूरज दिखता नही पेड़ पौधे ओट में चले गए
बेचारी खिड़की उमस से लथपथ घुट रही है
मानव को कोस रही है
खिड़की अब अँधेरों से भी नाता तोड़ चुकी है
खिड़की सदा के लिए बंद हो गई है  
गोया खिड़की मर गई है।  

- जेन्नी शबनम (2. 8. 2016)
___________________

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

520. अजब ये दुनिया (चोका - 8)

अजब ये दुनिया   

*******  

यह दुनिया  
ज्यों अजायबघर
अनोखे दृश्य  
अद्भुत संकलन  
विस्मयकारी  
देख होते हत्प्रभ !  
अजब रीत  
इस दुनिया की है  
माटी की मूर्ति  
देवियाँ पूजनीय  
निरपराध  
बेटियाँ हैं जलती  
जो है जननी  
दुनिया ये रचती !  
कहीं क्रंदन  
कहीं गूँजती हँसी  
कोई यतीम  
कोई है खुशहाल  
कहीं महल  
कहीं धरा बिछौना  
बड़ी निराली  
गज़ब ये दुनिया !  
भूख से मृत्यु  
वेदना है अपार  
भरा भण्डार  
संपत्ति बेशुमार  
पर अभागा  
कोई नहीं अपना  
सब बेकार !  
धरती में दरार  
सूखे की मार  
बहा ले गया सब  
तूफानी जल  
अपनी आग में ही  
जला सूरज  
अपनी रौशनी से  
नहाया चाँद  
हवा है बहकती  
आँखें मूँदती  
दुनिया चमत्कार  
रूप-संसार !  
हम इंसानों की है  
कारगुजारी  
हरे-घने जंगल  
हुए लाचार  
कट गए जो पेड़,  
हुए उघार  
चिड़िया बेआसरा  
पानी भी प्यासा  
चेत जाओ मानव !  
वरना नष्ट  
हो जाएगी दुनिया  
मिट जाएगी  
अजब ये दुनिया  
गजब ये दुनिया !  

- जेन्नी शबनम (28. 7. 2016)  

___________________________

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

519. भरोसा (क्षणिका)

भरोसा

*******

ढेरों तकनीक हैं, भरोसा जताने और तोड़ने की
सारी की सारी इस्तेमाल में लाई जाती हैं  
पर भरोसा जताने या तोड़ने के लिए
लाज़िमी है कि भरोसा हो।

- जेन्नी शबनम (21. 7. 2016)
_______________________

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

518. मैं स्त्री हूँ (पुस्तक 63)

मैं स्त्री हूँ 

*******  

मैं स्त्री हूँ  
मुझे ज़िंदा रखना उतना ही सहज है जितना सहज  
मुझे गर्भ में मार दिया जाना  
मेरा विकल्प उतना ही सरल है जितना सरल  
रंग उड़े वस्त्र को हटाकर नया परिधान खरीदना  
मैं उतनी ही बेज़रूरी हूँ  
जिसके बिना, दुनिया अपूर्ण नहीं मानी जाती  
जबकि इस सत्य से इंकार नहीं कि  
पुरुष को जन्म मैं ही दूँगी  
और हर पुरुष अपने लिए स्त्री नहीं   
धन के साथ मेनका चाहता है।    

मैं स्त्री हूँ  
उन सभी के लिए, जिनके रिश्ते के दायरे में नहीं आती  
ताकि उनकी नज़रें, मेरे जिस्म को भीतर तक भेदती रहें  
और मैं विवश होकर  
किसी एक के संरक्षण के लिए गिड़गिड़ाऊँ  
और हर मुमकिन  
ख़ुद को स्थापित करने के लिए  
किस्त-किस्त में क़र्ज़ चुकाऊँ। 
   
मैं स्त्री हूँ  
जब चाहे भोगी जा सकती हूँ  
मेरा शिकार, हर वो पुरुष करता है  
जो मेरा सगा भी हो सकता है, और पराया भी  
जिसे मेरी उम्र से कोई सरोकार नहीं  
चाहे मैंने अभी-अभी जन्म लिया हो  
या संसार से विदा होने की उम्र हो  
क्योंकि पौरुष की परिभाषा बदल चुकी है। 
   
मैं स्त्री हूँ  
इस बात की शिनाख़्त, हर उस बात से होती है  
जिसमें स्त्री बस स्त्री होती है  
जिसे जैसे चाहे इस्तेमाल में लाया जा सके  
मांस का ऐसा लोथड़ा  
जिसे सूँघकर, बौखलाया भूखा शेर झपटता है  
और भागने के सारे द्वार  
स्वचालित यन्त्र द्वारा बंद कर दिए जाते हैं
   
मैं स्त्री हूँ  
पुरुष के अट्टहास के नीचे दबी, बिलख भी नहीं सकती  
मेरी आँखों में तिरते आँसू, बेमानी माने जा सकते हैं  
क्योंकि मेरे अस्तित्व के एवज़ में, एक पूरा घर मुझे मिल सकता है  
या फिर, ज़िंदा रहने के लिए, कुछ रिश्ते और चंद सपने  
चक्रवृद्धि ब्याज से शर्त और एहसानों तले घुटती साँसें।    
क्योंकि  
मैं स्त्री हूँ।    

- जेन्नी शबनम (7. 7. 2016)
___________________

बुधवार, 29 जून 2016

517. अनुभव (क्षणिका)

अनुभव  

*******  
   
दोराहे, निश्चित ही द्वन्द्व पैदा करते हैं  
एक राह छलावा का, दूसरा जीवन का  
इनमें कौन सही  
इसका पता दोनों राहों पर चलकर ही होता है  
फिर भी, कई बार अनुभव धोखा दे जाता है  
और कोई पूर्वाभास भी नहीं होता   

- जेन्नी शबनम (29. 6. 2016)  
____________________

शनिवार, 18 जून 2016

516. मन-आँखों का नाता (5 सेदोका)

मन-आँखों का नाता  
(5 सेदोका)
*******  

1.
गहरा नाता  
मन-आँखों ने जोड़ा  
जाने दूजे की भाषा,  
मन जो सोचे -  
अँखियों में झलके  
कहे संपूर्ण गाथा !  

2.
मन ने देखे  
झिलमिल सपने  
सारे के सारे अच्छे,  
अँखियाँ बोलें -  
सपने तो सपने  
नहीं होते अपने !  

3.  
बावरा मन  
कहा नहीं मानता  
मनमर्ज़ी करता,  
उड़ता जाता  
आकाश में पहुँचे  
अँखियों को चिढ़ाए !  

4.  
आँखें ही होती  
यथार्थ हमजोली  
देखे अच्छी व बुरी  
मन बावरा  
आँखों को मूर्ख माने  
धोखा तभी तो खाए !  

5.  
मन हवा-सा  
बहता ही रहता  
गिरता व पड़ता,  
अँखियाँ रोके
गुपचुप भागता  
चाहे आसमाँ छूना !  

- जेन्नी शबनम (18. 6. 2016)

_____________________________

गुरुवार, 16 जून 2016

515. तय नहीं होता (तुकांत)

तय नहीं होता

*******  

कोई तो फ़ासला है जो तय नहीं होता  
सदियों का सफ़र लम्हे में तय नहीं होता   

अजनबी से रिश्तों की गवाही क्या  
महज़ कहने से रिश्ता तय नहीं होता 

गगन की ऊँचाइयों पर सवाल क्यों  
यूँ शिकायत से रास्ता तय नहीं होता   

कुछ तो दरमियाँ दूरी रही अनकही-सी  
उम्र भर चले पर फ़ासला तय नहीं होता  

तक़दीर मिली मगर ज़रा तंग रही  
कई जंग जन्मों में तय नहीं होता   

बाख़बर भ्रम में जीती रही 'शब' हँसके  
मन की गुमराही से जीवन तय नहीं होता   

- जेन्नी शबनम (16. 6. 2016)  
____________________

शनिवार, 4 जून 2016

514. सूरज नासपिटा (चोका - 7)

सूरज नासपिटा   

*******

सूरज पीला  
पूरब से निकला  
पूरे रौब से  
गगन पे जा बैठा,  
गोल घूमता  
सूरज नासपिटा  
आग बबूला  
क्रोधित हो घूरता,  
लावा उगला  
पेड़-पौधा जलाए  
पशु-इंसान  
सब छटपटाए  
हवा दहकी  
धरती भी सुलगी  
नदी बहकी  
कारे बदरा ने ज्यों  
ली अँगड़ाई  
सावन घटा छाई  
सूरज चौंका  
''मुझसे बड़ा कौन?  
मुझे जो ढँका'',  
फिर बदरा हँसा  
हँस के बोला -  
''सुनो, सावन आया  
मैं नहीं बड़ा  
प्रकृति का नियम  
तुम जलोगे  
जो आग उगलोगे  
तुम्हें बुझाने  
मुझे आना ही होगा'',  
सूरज शांत  
मेघ से हुआ गीला  
लाल सूरज  
धीमे-धीमे सरका  
पश्चिम चला  
धरती में समाया  
गहरी नींद सोया !  

- जेन्नी शबनम (20. 5. 2016)  

_________________________

शुक्रवार, 20 मई 2016

513. इश्क़ की केतली

इश्क़ की केतली

*******  

इश्क़ की केतली में  
पानी-सी औरत 
और चाय पत्ती-सा मर्द  
जब साथ-साथ उबलते हैं
चाय की सूरत  
चाय की सीरत  
नसों में नशा-सा पसरता है  
पानी-सी औरत का रूप  
बदल जाता है चाय पत्ती-से मर्द में  
और मर्द घुलकर  
दे देता है अपना सारा रंग  
इश्क़ ख़त्म हो जाए  
मगर हर कोशिशों के बावजूद  
पानी-सी अपनी सीरत   
नहीं बदलती औरत  
मर्द अलग हो जाता है  
मगर उसका रंग खो जाता है  
क्योंकि इश्क़ की केतली में  
एक बार  
औरत मर्द मिल चुके होते हैं।  

- जेन्नी शबनम (20. 5, 2016)
_____________________


रविवार, 8 मई 2016

512. माँ (मातृ दिवस पर 5 हाइकु) पुस्तक 79

माँ

*******   

1.  
छोटी-सी परी  
माँ का अँचरा थामे  
निडर खड़ी   

2.  
पराई कन्या  
किससे कहे व्यथा  
लाचार अम्मा   

3.  
पीड़ा भी पाता  
नेह ही बरसाता  
माँ का हृदय    

4.  
अम्मा की गोद  
छूमंतर हो जाता  
सारा ही सोग   

5.  
अम्मा लाचार  
प्यार बाँटे अपार  
देख संतान   

- जेन्नी शबनम (8. 5. 2016)
___________________


रविवार, 1 मई 2016

511. कैसी ये तक़दीर (क्षणिका)

कैसी ये तक़दीर

*******  

बित्ते भर का जीवन कैसी ये तक़दीर
नन्ही-नन्ही हथेली पर भाग्य की लकीर
छोटी-छोटी ऊँगलियों में चुभती है हुनर की पीर
बेपरवाह दुनिया में सब ग़रीब सब अमीर
आख़िर हारी आज़ादी बँध गई मन में ज़ंजीर
कहाँ कौन देखे दुनिया मर गए सबके ज़मीर 

- जेन्नी शबनम (1. 5. 2016)
_______________________

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

510. दहक रही है ज़िन्दगी (तुकांत)

दहक रही है ज़िन्दगी  

*******  

ज़िन्दगी के दायरे से भाग रही है ज़िन्दगी  
ज़िन्दगी के हाशिये पर रुकी रही है ज़िन्दगी    

बेवज़ह वक़्त से हाथापाई होती रही ताउम्र  
झंझावतों में उलझकर गुज़र रही है ज़िन्दगी   

गुलमोहर की चाह में पतझड़ से हो गई यारी  
रफ़्ता-रफ़्ता उम्र गिरी ठूँठ हो रही है ज़िन्दगी   

ख़्वाब और फ़र्ज़ का भला मिलन यूँ होता कैसे  
ज़मीं मयस्सर नहीं आस्माँ माँग रही है ज़िन्दगी   

सब कहते उजाले ओढ़के रह अपनी माँद में  
अपनी ही आग से लिपट दहक रही है ज़िन्दगी   

- जेन्नी शबनम (4. 4. 2016)
___________________

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

509. अप्रैल फ़ूल (क्षणिका)

अप्रैल फ़ूल   

*******

आईने के सामने रह गई मैं भौचक खड़ी  
उस पार खड़ा वक़्त ठठाकर हँस पड़ा  
बेहयाई से बोला-  
तू आज ही नहीं बनी फ़ूल   
उम्र के गुज़रे तमाम पलों में  
तुम्हें बनाया है अप्रैल फ़ूल    

- जेन्नी शबनम (1. 4. 2016)  
___________________ 

गुरुवार, 24 मार्च 2016

508. फगुआ (होली के 10 हाइकु) पुस्तक 78

फगुआ  

*******  

1.  
टेसू चन्दन  
मंद-मंद मुस्काते  
फगुआ गाते   

2.  
होली त्योहार  
बचपना लौटाए  
शर्त लगाए   

3.  
रंगों का मेला  
खोया दर्द-झमेला,  
नया सवेरा   

4.  
याद दिलाते  
मन के मौसम को  
रंग-अबीर   

5.  
फगुआ बुझा,  
रास्ता अगोरे बैठा  
रंग ठिठका   

6.  
शूल चुभाता  
बेपरवाह रंग,  
बैरागी मन   

7.  
रंज औ ग़म  
रंग में नहाकर  
भूले धरम    

8.    
जाने क्या सोचा 
मेरा हाल न पूछे  
पावन रंग     

9.  
रंग बिखरा  
सिमटा न मुट्ठी में  
मन बिखरा   

10.  
रंग न सका  
होली का सुर्ख़ रंग  
फीका ये मन    

- जेन्नी शबनम (23. 3. 2016) 
____________________

शुक्रवार, 18 मार्च 2016

507. पगडंडी और आकाश (पुस्तक - 22)

पगडंडी और आकाश 

******  

एक सपना बुन कर  
उड़ेल देना मुझ पर मेरे मीत  
ताकि सफ़र की कठिन घड़ी में  
कोई तराना गुनगुनाऊँ,  
साथ चलने को न कहूँगी  
पगडंडी पर तुम चल न सकोगे  
उस पर पाँव-पाँव चलना होता है  
और तुमने सिर्फ़ उड़ना जाना है   

क्या तुमने कभी बटोरे हैं  
बग़ीचे से महुआ के फूल  
और अंजुरी भर-भर  
ख़ुद पर उड़ेले हैं वही फूल  
क्या तुमने चखा है  
इसके मीठे-मीठे फल  
और इसकी मादक ख़ुशबू से  
बौराया है तुम्हारा मन?  
क्या तुमने निकाले हैं  
कपास से बिनौले  
और इसकी नर्म-नर्म रूई से  
बनाए हैं गुड्डे गुड्डी के खिलौने  
क्या तुमने बनाई है  
रूई की छोटी-छोटी पूनियाँ  
और काते हैं, तकली से महीन-महीन सूत? 
 
अबके जो मिलो तो सीख लेना मुझसे  
वह सब, जो तुमने खोया है  
आसमान में रहकर 
  
इस बार के मौसम ने बड़ा सताया है मुझको  
लकड़ी गीली हो गई, सुलगती नहीं  
चूल्हे पर आँच नहीं, जीवन में ताप नहीं  
अबकी जो आओ, तो मैं तुमसे सीख लूँगी  
ख़ुद को जलाकर भाप बनना  
और बिना पंख आसमान में उड़ना 
  
अबकी जो आओ  
एक दूसरे का हुनर सीख लेंगे  
मेरी पगडंडी और तुम्हारा आसमान  
दोनों को मुट्ठी में भर लेंगे  
तुम मुझसे सीख लेना  
मिट्टी और महुए की सुगंध पहचानना  
मैं सीख लूँगी  
हथेली पर आसमान को उतारना  
तुम अपनी माटी को जान लेना  
और मैं उस माटी से  
बसा लूँगी एक नयी दुनिया  
जहाँ पगडंडी और आकाश  
कहीं दूर जाकर मिल जाते हों   

- जेन्नी शबनम (18. 3. 2016)  
____________________

मंगलवार, 8 मार्च 2016

506. तू भी न कमाल करती है

तू भी न कमाल करती है  

*******  

ज़िन्दगी तू भी न कमाल करती है!  
जहाँ-तहाँ भटकती फिरती  
ग़ैरों को नींद के सपने बाँटती  
पर मेरी फ़िक्र ज़रा भी नहीं  
सारी रात जागती-जागती  
तेरी बाट जोहती रहती हूँ  

तू कहती-  
फ़िक्र क्यों करती हो  
ज़िन्दगी हूँ तो जश्न मनाऊँगी ही  
मैं तेरी तरह बदन नहीं  
जिसका सारा वक़्त   
अपनों की तीमारदारी में बीतता है  
तूझे सपने देखने और पालने की मोहलत नहीं  
चाहत भले हो मगर साहस नहीं  
तू बस यूँ ही बेमक़सद बेमतलब जिए जा  
मैं तो जश्न मनाऊँगी ही  

मैं ज़िन्दगी हूँ  
अपने मनमाफ़िक जीती हूँ  
जहाँ प्यार मिले वहाँ उड़के चली जाती हूँ  
तू और तेरा दर्द मुझे बेचैन करता है  
तूझे कोई सपने जो दूँ  
तू उससे भी डर जाती है   
''ये सपने कोई साज़िश तो नहीं''  
इसलिए तुझसे दूर बहुत दूर रहती हूँ  
कभी-कभी जो घर याद आए  
तेरे पास चली आती हूँ  

ज़िन्दगी हूँ  
मिट तो जाऊँगी ही एक दिन  
उससे पहले पूरी दुनिया में उड़-उड़कर  
सपने बाँटती हूँ  
बदले में कोई मोल नहीं लेती  
सपनों को जिलाए रखने का वचन लेती हूँ  
सुकून है मैं अकारथ नहीं हूँ  

उन्मुक्त उड़ना ही ज़िन्दगी है  
मैं भी उड़ना चाहती हूँ बेफ़िक्र अपनी ज़िन्दगी की तरह 
हर रात तमाम रात सर पर सपनों की पोटली लिए  
मन चाहता है आसमान से एक बार में पूरी पोटली  
खेतों में उड़ेल दूँ  
सपनों के फल  
सपनों के फूल  
सपनों का घर  
सपनों का संसार  
खेतों में उग जाए  
और... मैं...!  

चल तन और सपन मिल जाए  
चल ज़िन्दगी तेरे साथ हम जी आएँ  
बहुत हुई उनकी बेगारी जिनको मेरी परवाह नहीं  
बस अब तेरी सुनूँगी गीत ज़िन्दगी के गाऊँगी  

तू दुनिया सुन्दर बनाती है  
सपनों को उसमें सजाती है  
जीने का हौसला बढ़ाती है  
ज़िन्दगी तू भी न कमाल करती है!  

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2016)  
(महिला दिवस)
______________________

सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

505. मुक्ति का मार्ग (20 हाइकु) पुस्तक 76,77

मुक्ति का मार्ग 

*******  

1.  
मुक्ति का मार्ग  
जाने कहाँ है गुम  
पसरा तम   

2.  
कैसी तलाश  
भटके मारा-मारा  
मन-बंजारा  

3.  
बहुत देखा-  
अपनों का फ़रेब  
मन कसैला

4.  
मन यूँ थका,  
ज्यों वक़्त के सीने पे  
दर्द हो रुका  

5.  
सफ़र लम्बा  
न साया, न सहारा  
जीवन तन्हा  

6.  
उम्र यूँ बीती,  
जैसे जेठ की धूप  
तन जलाती

7.  
उम्र यूँ ढली  
पूरब से पश्चिम  
किरणें चलीं  

8.  
उम्मीदें लौटीं  
चौखट है उदास  
बची न आस  

9.  
मेरा आकाश
मुझसे बड़ी दूर
है मग़रूर।

10.  
चुकता किए  
उधार के सपने  
उऋण हुए  

11.  
जीवन-भ्रम  
अनवरत क्रम  
न होता पूर्ण  

12.  
बचा है शेष-  
दर्द का अवशेष,  
यही जीवन   

13.  
मन की आँखें  
ज़िन्दगी की तासीर  
ये पहचाने  

14.  
नही ख़बर  
होगी कैसे बसर  
क्रूर ज़िन्दगी   

15.  
ये कैसा जीना  
ख़ामोश दर्द पीना  
ज़हर जैसा  

16.  
जीवन-मर्म  
दर्द पीकर जीना  
मानव जन्म   

17.  
मन-तीरथ  
अकारथ ये पथ  
मगर जाना   

18.  
ताक पे पड़ी  
चिन्दी-चिन्दी ज़िन्दगी  
दीमक लगी  

19.  
स्वाँग रचता  
यह कैसा संसार  
दर्द अपार !  

20.  
मिलता वर  
मुट्ठी में हो अम्बर  
मन की चाह   

- जेन्नी शबनम (29. 2. 2016)  
____________________

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

504. अर्थहीन नहीं

अर्थहीन नहीं...  

******  

जी चाहता है  
सारे उगते सवालों को  
ढेंकी में कूटकर  
सबकी नज़रें बचाकर  
पास के पोखर में फ़ेंक आएँ  
ताकि सवाल पूर्णतः नष्ट हो जाए  
और अपने अर्थहीन होने पर  
अपनी ही मुहर लगा दें  
या फिर हर एक को  
एक-एक गड्ढे में दफ़न कर  
उस पर एक-एक पौधा रोप दें  
जितने पौधे उतने ही सवाल  
और जब मुझे व्यर्थ माना जाए  
तब एक-एक पौधे की गिनती कर बता दें  
कि मेरे ज़ेहन की उर्वरा शक्ति कितनी थी  
मैं अर्थहीन नहीं थी!  

- जेन्नी शबनम (16. 2. 2016)  
_____________________ 


मंगलवार, 26 जनवरी 2016

503. आज का सच

आज का सच

***

थोप देते हो अपनी हर वह बात     
जो तुम चाहते हो कि मानी जाए   
बिना ना-नुकुर, बिना कोई बहस
चाहते हो कि तुम्हारी बात मानी जाए। 
   
तुम हमेशा सही हो, बिल्कुल परफ़ेक्ट   
तुम ग़लत हो ही नहीं सकते    
तुम्हारे सारे समीकरण सही हैं   
न भी हों, तो कर दिए जाते हैं। 
   
किसका मजाल, जो तुम्हें ग़लत कह सके   
आख़िर मिल्कियत तुम्हारी  
हुकूमत तुम्हारी  
हर शय ग़ुलाम 
पंचतत्व तुम्हारे अधीन   
हवा, पानी, मिट्टी, आग, आकाश   
सब तुम्हारी मुट्ठी में। 
  
इतना भ्रम, इतना अहंकार  
मन करता है, तुम्हें तुम्हारा सच बताऊँ     
जान न भी बख़्शो, तो भी कह ही दूँ-  
जो है सब झूठ  
बस एक सच, आज का सच  
''जिसकी लाठी उसकी भैंस!'' 

-जेन्नी शबनम (26.1.2016)
(गणतंत्र दिवस)
___________________