बुधवार, 29 दिसंबर 2010

198. एक टुकड़ा पल

एक टुकड़ा पल

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उस मुलाक़ात में
तुम दे गए, अपने वक़्त का एक टुकड़ा
और ले गए, मेरे वक़्त का एक टुकड़ा 

तुम्हारा वो टुकड़ा
मुझमें 'मैं' बनकर, समाहित हो गया
जो हर पहर मुझे
छुपाए रखता है, अपने सीने में  

ज़रा देर को भी वो
मुझसे अलग हो तो, मैं रो देती हूँ
एक वही है जो, जीना सिखाता है
तुम तो जानते हो न यह
और वह सब भी
जो मैं अपने साथ करती हूँ
या जो मेरे साथ होता है 

पर तुम वो मेरा टुकड़ा
कहाँ छोड़ आए हो?
जानती हूँ वो मूल्यवान नहीं
न ही तुमको इसकी ज़रूरत होगी
पर मेरे जीवन का सबसे अनमोल है
मेरे वक़्त का वो टुकड़ा 

याद है तुमको
वह वक़्त जो हमने जिया
अंतिम निवाला जो तुमने, अपने हाथों से खिलाया
और उस ऊँचे टीले से उतरने में
मैं बेख़ौफ़ तुम्हारा हाथ थाम कूद गई थी 

आलिंगन की इजाज़त
न मैंने माँगी, न तुमने चाही
हमारी साँसें और वक़्त
दोनो ही तेज़ी से दौड़ गए
और हम देखते रहे,
वो तुम्हारी गाड़ी की सीट पर
आलिंगनबद्ध मुस्कुरा रहे थे 

जानती हूँ
वह सब बन गया है तुम्हारा अतीत
पर इसे विस्मृत न करना मीत
मेरे वक़्त को साथ न रखो
पर दूर न करना ख़ुद से कभी
जब मिलो किसी महफ़िल में
तब साथ उसे भी ले आना
वहीं होगा तुम्हारा वक़्त मेरे साथ 

हमारे वक़्त के टुकड़े
गलबहियाँ किए वहीं होंगे
मैं सिफ टुकुर-टुकुर देखूँगी
तुम भले न देखना
पर वापसी में मेरे वक़्त को
ले जाना अपने साथ
अगली मुलाक़ात के इंतज़ार में
मैं रहूँगी
तुम्हारे उसी, वक़्त के टुकड़े के साथ 

- जेन्नी शबनम (29. 12. 2010)
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सोमवार, 27 दिसंबर 2010

197. तुम्हारी आँखों से देखूँ दुनिया

तुम्हारी आँखों से देखूँ दुनिया

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चाह थी मेरी
तीन पल में सिमट जाए दूरियाँ
हसरत थी
तुम्हारी आँखों से देखूँ दुनिया 

बाहें थाम, चल पड़ी साथ
जीने को खुशियाँ
बंद सपने मचलने लगे
मानो खिल गई, सपनों की बगिया 

शिलाओं के झुरमुट में
अवशेषों की गवाही
और थाम ली तुमने बहियाँ
जी उठी मैं फिर से सनम
जैसे तुम्हारी साँसों से
जीती हों वादियाँ 

उन अवशेषों में छोड़ आए हम
अपनी भी कुछ निशानियाँ
जहाँ लिखी थी इश्क़ की इबारत
वहाँ हमने भी रची कहानियाँ 

मिलेंगे फिर कभी
ग़र ख़्वाब तुम सजाओ
रहेंगी न फिर मेरी वीरानियाँ
बिन कहे ही तय हुआ
साथ चलेंगे हम
यूँ ही जीएँगे सदियाँ 

- जेन्नी शबनम (18. 12. 2010)
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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

196. जादू की एक अदृश्य छड़ी

जादू की एक अदृश्य छड़ी

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तुम्हारे हाथ में रहती है
जादू की एक अदृश्य छड़ी
जिसे घुमाकर करते हो
अपनी मनचाही हर कामना पूरी
और रचते हो अपने लिए स्वप्निल संसार 

उसी छड़ी से छूकर
बना दो मुझे वह पवित्र परी
जिसे तुम अपनी कल्पनाओं में देखते हो
और अपने स्पर्श से प्राण फूँकते हो 

फिर मैं भी हिस्सा बन जाऊँगी
तुम्हारे संसार का
और जाना न होगा मुझे, उस मृत वन में
जहाँ हर पहर ढूँढती हूँ मैं, अपने प्राण 

- जेन्नी शबनम (13.12.2010)
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रविवार, 12 दिसंबर 2010

195. मेरे साथ-साथ चलो

मेरे साथ-साथ चलो

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तुम कहते हो तो चलो
पर एक क़दम फ़ासले पर नहीं
मेरे साथ-साथ चलो,
मुझे भी देखनी है वो दुनिया
जहाँ तुम पूर्णता से रहते हो 


तुमने तो महसूस किया है
जलते सूरज की नर्म किरणें
तपते चाँद की शीतल चाँदनी
तुमने तो सुना है
हवाओं का प्रेम गीत 
नदियों का कलरव
तुमने तो देखा है
फूलों की मादक मुस्कान 
जीवन का इन्द्रधनुष 

तुम तो जानते हो
शब्दों को कैसे जगाते हैं और
मनभावन कविता कैसे रचते हैं,
यह भी जान लो मेरे मीत
जो बातें अनकहे मैं तुमसे कहती हूँ
और जिन सपनों की मैं ख़्वाहिशमंद हूँ 

मैं भी जीना चाहती हूँ, उन सभी एहसासों को
जिन्हें तुम जीते हो और मेरे लिए चाहते हो
पर एक क़दम फ़ासले पर नहीं
मेरे साथ-साथ चलो 

- जेन्नी शबनम (12. 12. 2010)
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194. हार (क्षणिका)

हर हार मुझे और हराती है

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आज मैं ख़ाली-ख़ाली-सी हूँ, अपने अतीत को टटोल रही
तमाम चेष्टा के बाद भी बिखरने से रोक न पायी
नहीं मालूम जीने का हुनर क्यों न आया?
अपने सपनों को पालना क्यों न आया?
जानती हूँ मेरी विफलताओं का आरोप मुझ पर ही है
मेरी हार का दंश मुझे ही झेलना है
पर मेरे सपनों की परिणति, पीड़ा तो देती है न!
हर हार, मुझे और हराती है

- जेन्नी शबनम (9. 12. 2010)
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गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

193. तुम्हारा कहा क्या टाला मैंने

तुम्हारा कहा क्या टाला मैंने

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तुम कहते हो हँसती रहा करो
दुनिया ख़ूबसूरत है जिया करो
कभी आकर देख भी जाओ
तुम्हारा कहा क्या टाला मैंने?

हँसती ही रहती हूँ हर मुनासिब वक़्त
सभी पूछते हैं मैं क्यों इतना हँसती हूँ
नहीं देखा किसी ने मुझे मुर्झाए हुए
अपने किसी भी दर्द पर रोते हुए

पर अब थक गई हूँ
अक्सर आँखें नम हो जाती हैं
शायद हँसी की सीमा ख़त्म हो रही या
ख़ुद को भ्रमित करने का साहस नहीं रहा

पर तुम्हारा कहा अब तक जिया मैंने
हर वादा अब तक निभाया मैंने
एक बार आकर देख जाओ
तुम्हारा कहा क्या टाला मैंने

- जेन्नी शबनम (8. 12. 2010)
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मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

192. चहारदीवारी का चोर दरवाज़ा

चहारदीवारी का चोर दरवाज़ा 

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ज़िन्दगी और सपनों के चारों तरफ़ 

ऊँची चहारदीवारी 

जन्म लेते ही तोहफ़े में मिलती है

तमाम उम्र उसी में क़ैद रहना

शायद मुनासिब है और ज़रूरत भी

पिता-भाई और पति-पुत्र का कड़ा पहरा

फिर भी असुरक्षित, अपने ही क़िले में।


चहारदीवारी में एक मज़बूत दरवाज़ा होता है

जिससे सभी अपने एवं रिश्ते 

ससम्मान और साधिकार प्रवेश पाते हैं

लेकिन उनमें कइयों की आँखें 

सबके सामने निर्वस्त्र कर जाती हैं

कुछ को मौक़ा मिला और ज़रा-सा छूकर तृप्त

कइयों की आँखें लपलपातीं हैं

और भेड़िए-से टूट पड़ते हैं

ख़ुद को शर्मसार होने का भय

फिर स्वतः क़ैद हो जाती है ज़िन्दगी।


चहारदीवारी में एक चोर दरवाज़ा भी होता है

जहाँ से मन का राही प्रवेश पाता है

कई बार वही पहला साथी 

सबसे बड़ा शिकारी निकलता है

प्रेम की आड़ में भूख मिटा, भाग खड़ा होता है

ठगे जाने का दर्द छुपाए, कब तक तनहा जिए

वक़्त का मरहम, दर्द को ज़रा-सा कम करता है

फिर कोई राही प्रवेश करता है

क़दम-क़दम फूँककर चलना सीख जाने पर भी

नया आया हमदर्द

बासी गोश्त कह, छोड़कर चला जाता है।


यक़ीन टूटता है, सपने फिर सँवरने लगते हैं

चोर दरवाज़े पर उम्मीद भरी नज़र टिकी होती है

फिर कोई आता है और रिश्तों में बाँध

तमाम उम्र को साथ ले जाता है

नहीं मालूम क्या बनेगी

महज़ एक साधन 

जो जिस्म, रिश्ता और रिवाज का फ़र्ज़ निभाएगी

या चोर दरवाज़े पर टकटकी लगाए

अपने सपनों को उसी राह वापस करती रहेगी

या कभी कोई और प्रवेश कर जाए

तो उम्मीद से ताकती

नहीं मालूम, वह गोश्त रह जाएगी या जिस्म

फिर एक और दर्द

चोर दरवाज़ा ज़ोर से सदा के लिए बन्द।


चहारदीवारी के भीतर

जिस्म से ज़्यादा और कुछ नहीं

चोर दरवाज़े से भी कोई रूह तक नहीं पहुँचता है

आख़िर क्यों?


-जेन्नी शबनम (नवम्बर 1990)
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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

191. न आओ तुम सपनों में

न आओ तुम सपनों में

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क्यों आते हो सपनों में बार-बार
जानते हो न मेरी नियति
क्यों बढ़ाते हो मेरी मुश्किलें
जानते हो न मेरी स्थिति

विषमताएँ मैंने ख़ुद नहीं ओढ़ी जानेमन
न कभी चाहा कि ऐसा जीवन पाऊँ
मैंने तो अपनी परछाई से भी नाता तोड़ लिया
जीवन के हर रंग से मुँह मोड़ लिया

कुछ सवाल होते हैं
पर अनपूछे
जवाब भी होते हैं
पर अनकहे
समझ जाओ न मेरी बात
बिन कहे मेरी हर बात

न दिखाओ दुनिया की रंगीनी
रहने दो मुझे मेरे जागते जीवन में
मुमकिन नहीं कि तुम्हें सपने में देखूँ
न आया करो मेरे हमदम मेरे सपनों में

- जेन्नी शबनम (3. 12. 2010)
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बुधवार, 1 दिसंबर 2010

190. अपनों का अजनबी बनना

अपनों का अजनबी बनना

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समीप की दो समानान्तर राहें
कहीं-न-कहीं किसी मोड़ पर मिल जाती हैं
दो अजनबी साथ हों 
तो कभी-न-कभी अपने बन जाते हैं 

जब दो राह 
दो अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े फिर?
दो अपने साथ रहकर अजनबी बन जाएँ फिर?

सम्भावनाओं को नष्टकर नहीं मिलती कोई राह
कठिन नहीं होता, अजनबी का अपना बनना
कठिन होता है, अपनों का अजनबी बनना

एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़ एक पल की घटना
पलभर में अजनबी अपना बन जाता है
लेकिन अपनों का अजनबी बनना, धीमे-धीमे होता है

व्यथा की छोटी-छोटी कहानी होती है
पल-पल में दूरी बढ़ती है
बेगानापन पनपता है 
फ़िक्र मिट जाती है
कोई चाहत नहीं ठहरती है

असम्भव हो जाता है
ऐसे अजनबी को अपना मानना

-जेन्नी शबनम (1.12.2010)
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रविवार, 14 नवंबर 2010

189. कैसा लगता होगा

कैसा लगता होगा

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कैसा लगता होगा
जब किसी घर में
अम्मा-बाबा संग 
बिटिया रहती है
कैसा लगता होगा
जब अम्मा कौर-कौर 
बिटिया को खिलाती है
कैसा लगता होगा
जब बाबा की गोद में 
बिटिया इतराती है

क्या जानूँ वो एहसास
जाने कैसा लगता होगा
पर सोचती हूँ हमेशा
बड़ा प्यारा लगता होगा
अम्मा-बाबा की बिटिया का
सब कुछ वहाँ कितना
अपना-अपना-सा होता होगा

बहुत मन करता है
एक छोटी बच्ची बन जाऊँ
ख़ूब दौडूँ-उछलूँ-नाचूँ   
बेफ़िक्र हो शरारत करूँ
ज़रा-सी चोट पर
अम्मा-बाबा की गोद में
जा चिपक उनको चिढ़ाऊँ

सोचती हूँ
अगर ये चमत्कार हुआ तो
बन भी जाऊँ बच्ची तो
अम्मा-बाबा कहाँ से लाऊँ?
जाने कैसे थे, कहाँ गए वो?
कोई नहीं बताता, क्यों छोड़ गए वो?

यहाँ सब यतीम
कौन किसको समझाए
आज तो बहुत मिला प्यार सबका
रोज़-रोज़ कौन जतलाए
यही है जीवन 
समझ में अब आ ही जाए

न मैं बच्ची बनी
न बनूँगी किसी की अपनी
हर शब यूँ ही तन्हा
इसी दर पर गुज़र जाएगी
रहम से देखती आँखें सबकी
मेरी ख़ाली हथेली की दुआ ले जाएगी

- जेन्नी शबनम (14. 11. 2010)
(बाल दिवस पर एक यतीम बालिका की मनोदशा)
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शनिवार, 13 नवंबर 2010

188. रचती हूँ अपनी कविता (क्षणिका)

रचती हूँ अपनी कविता

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दर्द का आलम यूँ ही नहीं होता लिखना
ज़ख़्म को नासूर बना होता है दर्द जीना
कैसे कहूँ, कब किसके दर्द को जिया
या अपने ही ज़ख़्म को छील, नासूर बनाया
ज़िन्दगी हो या कि मन की परम अवस्था
स्वयं में पूर्ण समा, फिर रचती हूँ अपनी कविता 

- जेन्नी शबनम - (12. 11. 2010)
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बुधवार, 10 नवंबर 2010

187. आदमी और जानवर की बात

आदमी और जानवर की बात

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रौशन शहर, चहकते लोग
आदमी की भीड़, अपार शोर
शुभ आगमन की तैयारी पूरी
रात्रि पहर घर आएगी समृद्धि 

पर जाने क्या हुआ कल रात
वे रोते-भौंकते रहे, सारी रात
बेदम होते रहे, कौन समझे उनकी बात
आदमी तो नहीं, जो कह सकें अपनी बात 

कल के दिन न मिले, कोई अशुभ सन्देश
शुभ दिन में श्वान का रोना, है अशुभ संकेत
पास की कोठी का मालिक झल्लाता रहा पूरी रात
जाने कैसी विपत्ति आए, हे प्रभु! करना तुम निदान 

पेट के लिए हो जाए, आज का कुछ तो जुगाड़
सुबह से सब शांत, वे निकल पड़े लिए आस
कोठी का मालिक अब जाकर हुआ संतुष्ट
शायद आपदा किसी और के लिए, है बड़ा ख़ुश 

अमावास की रात, सजी दीपों की क़तार
हर तरफ़ पटाखों की गूँजती आवाज़
भय से आक्रान्त, वे लगे चीखने-भौंकने
नहीं समझ, वे किससे अपना डर कहें 

जा दुबके, उसी बुढ़िया के बिस्तर में
जहाँ वे मिल-बाँट खाते-सोते वर्षों से
दुलार से रोज़ उनको सहलाती थी बुढ़िया
सुन पटाखे की तेज गूँज, कल ही मर गई थी बुढ़िया 

कौन आज उनको चुप कराए
कौन आज कुछ भी खाने को दे
आज कचरा भी तो नहीं कहीं
ख़ाली पेट, चलो आज यूँ ही सही 

ममतामयी हाथ कल से निढाल पसरा
ख़ौफ़ है और उस खोह में मातम पसरा
आदमी नहीं, वह थी उनकी-सी ही उनकी जात
वह समझती थी, आदमी और जानवर की बात 

जब कोई पत्थर मारकर उनको करता ज़ख़्मी
एक दो पत्थर खाकर पगली बुढ़िया उनको बचाती
अब तो सब ख़त्म
कल ले जाएँगे यहाँ से आदमी उसको
वे मरें, तो जहाँ फेंकते उनको 
वहाँ कल फेंक देंगे बुढ़िया को 

- जेन्नी शबनम (5. 11. 2010)
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गुरुवार, 4 नवंबर 2010

186. जागता-सा कोई एक पहर जारी है (तुकांत)

जागता-सा कोई एक पहर जारी है

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रात बीती और तमन्ना जागने लगी, ये दहर जारी है
क़यामत से कब हो सामना, सोच में वो क़हर जारी है 

मुख़ातिब होते रहे, हर रोज़, फिर भी हँस न सके हम
ज़ख़्म घुला तड़पते रहे, फैलता बदन में ज़हर ज़ारी है 

शिकायत की उम्र बीती, अब सुनाने से क्या फ़ायदा
जल-जलकर दहकता है मन, ताव की लहर जारी है  

उजाला चहुँ ओर पसरा, जाने आफ़ताब है या बिजली
रात या दिन पहचान नहीं हमें, जलता शहर जारी है 

ख़ामोशी की ज़बाँ समझे जो, उससे क्या कहे 'शब'
शेष नहीं फिर भी, जागता-सा कोई एक पहर जारी है 
...............................
दहर - काल / संसार
...............................

- जेन्नी शबनम (4. 11. 2010)
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शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

185. किसी बोल ने चीर तड़पाया (तुकांत)

किसी बोल ने चीर तड़पाया

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पोर-पोर में पीर समाया
किसने है ये तीर चुभाया  

मन का हाल नहीं पूछा और
पूछा किसने धीर चुराया  

गूँगी इच्छा का मोल ही क्या
गंगा का बस नीर बताया  

नहीं कभी कोई राँझा उसका
फिर भी सबने हीर बुलाया 

न भूली शब्दों की भाषा 'शब'
किसी बोल ने चीर तड़पाया 

- जेन्नी शबनम (29. 10. 2010)
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गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

184. पहला और आख़िरी वरदान

पहला और आख़िरी वरदान

***

वह हठी ये क्या कर गया
विष माँगा, वह अमृत चखा गया
एक बूँद अमृत, हलक़ में उतार गया
आह! ये कैसा ज़ुल्म कर गया। 

उस दिन कहा था उसने 
वक़्त को ललकारा तुमने
मृत्यु माँगी असमय तुमने
इसलिए है ये शाप
सदा जीवित रहो तुम  
अमरता का है तुमको वरदान 

अब तो निर्भय जीवन
अविराम, चलायमान जीवन
जीवित रहना है, जाने और कितनी सदी 
कभी नहीं होगी मृत्यु 
कभी न मिलेगी मुक्ति
तड़प-तड़पकर जीना, शायद तब तक
नष्ट न हो समस्त क़ायनात तब तक 

लाख करूँ प्रार्थना
अब नहीं कोई तोड़
चख भी लें जो अमृत
तो सम्भव नहीं, होना मृत 

ख़ौफ़ बढ़ता जा रहा
ये मैंने क्या कर लिया?
क्यों उसके छल में आ गई?
क्यों चख लिया अमृत?
क्यों माँगा था विष?
क्यों वक़्त से पहले मृत्यु चाही?
क्यों? क्यों? क्यों?

जानती थी, वह देवदूत है
दे रहा मुझे, पहला और आख़िरी वरदान है
फिर क्यों अपने लिए 
ज़िन्दगी नहीं, मैंने मौत माँग ली 

माँगना था, तो प्रेमपूर्ण दुनिया माँगती
जब तक जियूँ, बेफ़िक्र जियूँ
सभी अपनों का प्रेम पाऊँ
कोई दुःखी न हो, सर्वत्र सुख हो, आनन्द हो 

चूक मेरी, भूल मेरी
ज़िन्दगी नहीं, मृत्यु की चाह की
अब मृत्यु नहीं, बस जीना है
कभी शाप-मुक्त नहीं होना है 
सब चले जाएँगे, मेरा कोई न होगा 
न शाप-मुक्त करने वाला कोई होगा 

-जेन्नी शबनम (28.10.2010)
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बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

183. देव

देव

***

देव! देव! देव!
तुम कहाँ हो, क्यों चले गए?
एक क्षण को न ठिठके तुम्हारे पाँव
अबोध शिशु पर क्या ममत्व न उमड़ा
क्या इतनी भी सुध नहीं, कैसे रहेगी ये अपूर्ण नारी
कैसे जिएगी, कैसे सहन करेगी संताप
अपनी व्यथा किससे कहेगी
शिशु जब जागेगा, उसके प्रश्नों का क्या उत्तर देगी
वह तो फिर भी बहल जाएगा
अपने निर्जीव खिलौनों में रम जाएगा 

बताओ न देव!
क्या कमी थी मुझमें
किस धर्म का पालन न किया
स्त्री का हर धर्म निभाया
तुम्हारे वंश को भी बढ़ाया
फिर क्यों देव, यों छोड़ गए
अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा किससे कहूँ देव?
बीती हर रात्रि की याद, क्या नाग-सी न डसेगी
जब तुम बिन ये अभागिन तड़पेगी?

जाना था, चले जाते
मैं राह नहीं रोकती देव
बस जगाकर व कहकर जाते
एक अन्तिम आलिंगन, एक अन्तिम प्रेम-शब्द
अन्तिम बार तुमको छू तो लेती
एक अन्तिम बार अर्धांगनी तुम्हारी, तुमसे लिपट तो लेती
उन क्षणों के साथ सम्पूर्ण जीवन सुख से जी लेती 

आह! देव!
एक बार कहकर तो देखते
साथ चल देती, छोड़ सब कुछ संग तुम्हारे
तुम्हारी ही तरह मैं भी बन जाती एक भिक्षुणी 

ओह! देव!
अब जो आओगे
मैं तुम्हारी प्रेम-प्रिया नहीं रहूँगी
न तुम आलिंगन करोगे
मैं अपनी पीड़ा में समाहित
एक अभागिन परित्यक्ता
तुम्हारे चरणों में लोटती
एक असहाय नारी 

संसार के लिए तुम बन जाओगे महान
लेकिन नहीं समझ पाए एक स्त्री की वेदना
चूक गए तुम पुरुष धर्म से
सुन रहे हो न!
देव! देव! देव!

-जेन्नी शबनम (20.10.2010)
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शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

182. नहीं होता अभिनन्दन (क्षणिका)/ nahin hota abhinandan (kshanikaa)

नहीं होता अभिनन्दन

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सहज जीवन मन का बंधन
पार होने की चाह निराशा और क्रंदन
अनवरत प्रयास विफलता और रुदन
असह्य प्रतिफल नहीं होता अभिनन्दन

- जेन्नी शबनम (15. 10. 2010)
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nahin hota abhinandan

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sahaj jivan mann ka bandhan
paar hone kee chaah niraasha aur krandan
anwarat prayaas vifalta aur rudan
asahya pratifal nahin hota abhinandan.

- Jenny Shabnam (15. 10. 2010)
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रविवार, 10 अक्टूबर 2010

181. रूह का सफ़र

रूह का सफ़र

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इस जीवन के बाद
एक और जीवन की चाह,
रूहानी इश्क़ का ख्व़ाब
है न अजब यह ख़याल!

क्या पता क्या हो
रूह हो या कि सब समाप्त हो
कहीं ऐसा न हो
शरीर ख़त्म हो और रूह भी मिट जाए
या फिर ऐसा हो
शरीर नष्ट हो और रूह रह जाए
महज़ वायु समान,
एहसास तो मुक़म्मल हो
पर रूह बेअख़्तियार हो 

कैसी तड़प होगी, जब सब दिखे पर हों असमर्थ
सामने प्रियतम हो, पर हों छूने में विफल
कितनी छटपटाहट होगी
तड़प बढ़ेगी और रूह होगी विह्वल

बारिश हो और भींग न पाएँ
भूख हो और खा न पाएँ
इश्क़ हो और कह न पाएँ
जाने क्या-क्या न कर पाएँ

सशक्त शरीर, पर होते हम असफल
रूह तो यूँ भी होती है निर्बल
जो है अभी ही कर लें पूर्ण
किसी शायद पर नहीं यक़ीन सम्पूर्ण

फिर भी, जो न मिल सका
उम्मीद से जीवन सजा लें 
शायद हो इस जन्म के बाद
रूह के सफ़र की नयी शुरुआत

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2010)
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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

180. अपने पाँव / apne paanv

अपने पाँव

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क्या बस इतना ही
और सब ख़त्म!
एक क़दम भी नहीं
और सफ़र का अंत!

उम्मीद नहीं अब चल पाऊँगी
पहुँच पाऊँगी दुनिया के उस
अंतिम छोर तक
जिसे निहारती रही अनवरत वर्षों
सोचती थी
कभी तो फ़ुर्सत मिलेगी
और जा पहुँचूँगी अपने पाँव से
वहाँ उस छोर पर
जहाँ सीमा समाप्त होती है
दुनिया की

अब नहीं जा सकूँगी कभी
बस निहारती रहूँगी
धुँधली नज़रों से
जहाँ तक भी जाए निगाह
चाहे समतल ज़मीन हो
या फिर स्वप्निल आकाश

क़दम तो न बढ़ेंगे
पर नज़र थम-थमकर
साफ़ हो जायेगी,
फिर शायद निहारूँ
उस जहाँ को
जहाँ कभी नहीं पहुँच सकूँगी
न चल सकूँगी कभी
अपने पाँव

- जेन्नी शबनम (8. 10. 2010)
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apne paanv

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kya bas itna hi
aur sab khatm!
ek kadam bhi nahin
aur safar ka ant!

ummid nahin ab chal paaungi
pahunch paaungi duniya ke us
antim chhor tak
jise niharati rahi anavarat varshon
sochti thee
kabhi to fursat milegi
aur ja pahunchungi apne paanv se
vahaan us chhor par
jahaan seema samaapt hotee hai
duniya kee.

ab nahin ja sakungi kabhi
bas nihaarti rahungi
dhundhli nazron se
jahaan tak bhi jaaye nigaah
chaahe samtal zameen ho
ya phir swapnil aakaash.

kadam to na badhenge
par nazar tham-tham kar
saaf ho jaayegi
fir shaayad nihaaroon
us jahaan ko
jahan kabhi nahi pahunch sakungi
na chal sakungi kabhi
apne paanv.

- Jenny Shabnam (8. 10. 2010)
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मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

179. स्याह अँधेरों में न जाना तुम / syaah andheron mein na jana tum

स्याह अँधेरों में न जाना तुम

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वो कहता
जाने क्यों कहता?
स्याह अँधेरों में
न जाना तुम
उदासी कभी भी
न ओढ़ना तुम
भोर की लालिमा-सी
सदा दमकना तुम

कैसे समझाएँ?
क्या बतलाएँ?
उजाले से दिल कितना घबराता है
चेहरे की चुप्पी में
हर अनकहा दिख जाता है
ख़ुशी ठहरती नहीं
मन तो बहुत चाहता है

मैंने कोई वादा न किया
उसने कसम क्यों न दिया?
अब तय किया है
तक़दीर के किस्से
उजालों में दफ़न होंगे
दिल में हों अँधेरे मगर
क़तार दीयों के सजेंगे
उजाले ही उजाले चहुँ ओर
'शब' के अँधेरे
किसी को न दिखेंगे

- जेन्नी शबनम (21. 9. 2010)
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syaah andheron mein na jana tum

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wo kahta
jaane kyon kahta?
syaah andheron mein
na jana tum
udaasi kabhi bhi
na odhna tum
bhor ki laalima si
sada damakna tum.

kaise samjhaayen?
kya batlaayen?
ujaale se dil kitana ghabraata hai,
chehre ki chuppi mein
har ankaha dikh jata hai
khushi thaharti nahin
mann to bahut chaahta hai.

maine koi vada na kiya
usne kasam kyon na diya?
ab taye kiya hai
par taqdir ke kisse
ujaalon mein dafan honge
dil mein hon andhere magar
qataar diyon ke sajenge
ujaale hi ujaale chahun ore
'shab' ke andhere
kisi ko na dikhenge.

- Jenny Shabnam (21. 9. 2010)
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बुधवार, 29 सितंबर 2010

178. हँसी / Hansi (आशु कविता)

ऑरकुट पर अपनी दूसरी प्रोफाइल बनाते वक़्त यह रचना लिखी मैं बोलती गई और मेरा बेटा टाइप करता गया, क्योंकि एक शब्द भी टाइप करने में मैं बहुत वक़्त ले रही थी; उन दिनों अपने बेटे से ऑरकुट और टाइपिंग दोनों सीख रही थी पहली प्रोफाइल पर एक ऐसी घटना हुई कि उसे हटाना पड़ा लेकिन इस त्वरित (instant) कविता का जन्म हुआ अब लिखती तो शायद कुछ परिवर्तन ज़रुर होता, पर उस दिन आशु कविता पहली बार लिखी तो उसमें बदलाव करने का मन नहीं किया  कविता यथावत प्रस्तुत है

हँसी

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हँसी पे मत जाओ
बड़ी मुसीबत होती है
एक हँसी के वास्ते आँसुओं से मिन्नत
हज़ार करनी होती है 

जज़्ब न हो जाते आँसू जब तक
बड़ी मुश्किल होती है
एक हँसी के वास्ते तरक़ीबें
हज़ार करनी होती हैं

दिखे न मुस्कुराहट जब तक
बड़ी जद्दोज़हद करनी होती है
एक हँसी के वास्ते हँसी की ओट में ग़म 
हज़ार छुपानी होती है 

खिलखिलाती हँसी भी अजीब होती है
बड़ी दिक्कत से टिकी होती है
एक हँसी के वास्ते रब से दुआएँ
हज़ार करनी होती है 

हँसी पे मत जाओ
बड़ी ख़तरनाक भी होती है
एक हँसी के वास्ते जंग सौ
हज़ार गुनाह कराती है 

हँसी पे मत जाओ
बहुत रुलाती बड़ी बेवफा होती है
एक हँसी के वास्ते मौत
हज़ार मरनी होती है 

हँसी ख़ुदा की नेमत होती है
जिसे मिलती बड़ी तकदीर होती है
एक हँसी के वास्ते सौ फूल खिलाती
हज़ार ग़म भूलाती है 

- जेन्नी शबनम (18. 8. 2008)
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Hansi

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Hansi pe mat jaao
badi musibat hoti hai
Ek hansi ke waaste aansuon se minnat
hazaar karni hoti hai.

Jazb na ho jate aansoo jabtak
badi mushkil hoti hai
Ek hasi ke waste tarkibein
hazaar karni hoti hain.

Dikhe na muskuraahat jabtak
badi jaddozehad karni hoti hai
Ek hasi ke waste hansi ki oat me gham 
hazaar chhupaani hoti hai.

Khilkhilati hasi bhi ajeeb hoti hai
badi dikkat se tiki hoti hai
Ek hasi ke waste rab se duaayen
hazaar karni hoti hai.

Hansi pe mat jaao
badi khatarnaak bhi hoti hai
Ek hansi ke waaste jung sou
gunaah hazaar karaati hai.

Hansi pe matt jaao
bahut rulaati badi bewafa hoti hai
Ek hansi ke waaste mout
hazaar marni hoti hai.

Hansi khuda ki nemat hoti hai
jise milti badi takdeer hoti hai
Ek hansi ke waaste sou phool khilaati
gam hazaar bhoolati hai.

- Jenny Shabnam (18. 8. 2008)
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रविवार, 26 सितंबर 2010

177. दम्भ हर बार टूटा / dambh har baar toota (क्षणिका)

दम्भ हर बार टूटा

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रिश्ते बँध नहीं सकते, जैसे वक़्त नहीं बँधता
पर रिश्ते रुक सकते हैं, वक़्त नहीं रुकता
फिर भी कुछ तो है समानता
न दिखें पर दोनों साथ हैं चलते 
नहीं मालूम दूरी बढ़ी, या फ़ासला न मिटा
पर कुछ तो है, साथ होने का दम्भ हर बार टूटा 

- जेन्नी शबनम (8. 9. 2010)
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dambh har baar toota

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rishte bandh nahin sakte, jaise waqt nahin bandhta
par rishte ruk sakte hain, waqt nahin rukta
fir bhi kuchh to hai samaanta
na dikhen par donon saath hain chalte
nahin maloom doori badhi, yaa faasla na mita
par kuchh to hai, saath hone ka dambh har baar toota.

- Jenny Shabnam (8. 9. 2010)
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बुधवार, 22 सितंबर 2010

176. पलाश के बीज / गुलमोहर के फूल / palaash ke beej / gulmohar ke phool (पुस्तक - 21)

पलाश के बीज / गुलमोहर के फूल

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याद है तुम्हें
उस रोज़ चलते-चलते
राह के अंतिम छोर तक
पहुँच गए थे हम
सामने एक पुराना-सा मकान
जहाँ पलाश के पेड़
और उसके ख़ूब सारे, लाल-लाल बीज
मुट्ठी में बटोरकर हम ले आए थे
धागे में पिरोकर, मैंने गले का हार बनाया
बीज के ज़ेवर को पहन, दमक उठी थी मैं
और तुम बस मुझे देखते रहे
मेरे चेहरे की खिलावट में, कोई स्वप्न देखने लगे
कितने खिल उठे थे न हम!

अब क्यों नहीं चलते
फिर से किसी राह पर
बस यूँ ही, साथ चलते हुए
उस राह के अंत तक
जहाँ गुलमोहर के पेड़ों की क़तारें हैं
लाल-गुलाबी फूलों से सजी राह पर
यूँ ही बस...!
फिर वापस लौट आऊँगी
यूँ ही ख़ाली हाथ
एक पत्ता भी नहीं
लाऊँगी अपने साथ 

- जेन्नी शबनम (20. 9. 2010)
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palaash ke beej / gulmohar ke phool

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yaad hai tumhen
us roz chalte-chalte
raah ke antim chhor tak
pahunch gaye they hum
saamne ek puraana-sa makaan
jahaan palaash ke ped
aur uske khoob saare, laal-laal beej
mutthi mein batorkar hum le aaye they
dhaage mein pirokar, maine gale ka haar banaaya
beej ke zevar ko pahan, damak uthi thi main
aur tum bas mujhe dekhte rahe
mere chehre ki khilaavat mein, koi swapn dekhne lage
kitne khil uthe they na hum!

ab kyon nahin chalte
fir se kisi raah par
bas yun hi, saath chalte huye
us raah ke ant tak
jahaan gulmohar ke pedon ki qataaren hain
laal-gulaabi phoolon se saji raah par
yun hi bas...!
fir waapas lout aaoongi
yun hi khaali haath
ek patta bhi nahin
laaungi apne sath.

- Jenny Shabnam (20. 9. 2010)
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सोमवार, 20 सितंबर 2010

175. प्रिय है मुझे मेरा पागलपन / priye hai mujhe mera pagalpan

प्रिय है मुझे मेरा पागलपन

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क़ुदरत की बैसाखी मिली
मैं जी सकूँ ये क़िस्मत मेरी
इसीलिए ख़ुद से ज़्यादा 
प्रिय है मुझे मेरा पागलपन 
कुछ भी कर लूँ, माफ़ न करो
नहीं स्वीकार, कोई एहसान मुझे 
सच कहते हो, मैं पागल हूँ
होना भी नहीं मुझे, तुम्हारी दुनिया जैसा
मैं हूँ भली, अपने पागलपन के साथ 
कहते हो तुम
छोड़ आओगे मुझको, किसी पागलखाने में
आज अब राज़ी हूँ
इस दुनिया को छोड़, उस दुनिया में जाने को,
चलो पहुँचा दो मुझे
प्रिय है मुझे मेरा पागलपन!

- जेन्नी शबनम (7. 9. 2010)
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priye hai mujhe mera pagalpan

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qudrat ki baisaakhi mili
main ji sakun ye qismat meri,
isiliye khud se jyaada
priye hai mujhe mera pagalpan.
kuchh bhi kar loon, maaf na karo
nahin svikaar, koi yehsaan mujhe
sach kahte ho, main pagaal hun
hona bhi nahin mujhe, tumhaari duniya jaisa
main hun bhali, apne pagalpan ke saath.
kahte ho tum
chhod aaoge mujhko, kisi pagalkhaane mein
aaj ab raazi hun
is duniya ko chhod, us duniya mein jaane ko,
chalo pahuncha do mujhe
priye hai mujhe mera pagalpan!

- Jenny Shabnam (7. 9. 2010)
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बुधवार, 15 सितंबर 2010

174. मन भी झुलस जाता है (क्षणिका) / mann bhi jhulas jata hai (kshanikaa)

मन भी झुलस जाता है

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मेरे इंतिज़ार की इंतिहा देखते हो
या अपनी बेरुख़ी से ख़ुद ख़ौफ़ खाते हो
नहीं मालूम क्यों हुआ, पर कुछ तो हुआ है
बिना चले ही क़दम थम कैसे गए?
क्यों न दी आवाज़ तुमने?
हर बार लौटने की, क्या मेरी ही बारी है?
बार-बार वापसी, नहीं है मुमकिन
जब टूट जाता है बंधन, फिर रूठ जाता है मन
पर इतना अब मान लो, इंतज़ार हो या वापसी
जलते सिर्फ पाँव ही नहीं, मन भी झुलस जाता है 

- जेन्नी शबनम (13. 9. 2010)
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man bhi jhulas jata hai

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mere intizaar ki intihaan dekhte ho
ya apni berukhi se khud khouf khaate ho
nahin maalum kyon hua, par kuchh to hua hai
bina chale hi qadam tham kaise gaye?
kyon na dee aawaaz tumne?
har baar loutne ki, kya meri hi baari hai?
baar-baar wapasi, nahin hai mumkin
jab toot jata hai bandhan, phir ruth jata hai mann
par itna ab maan lo, intzaar ho yaa vaapasi
jalte sirf paanv hi nahin, man bhi jhulas jata hai.

- Jenny Shabnam (13. 9. 2010)
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मंगलवार, 14 सितंबर 2010

173. अज्ञात शून्यता / agyaat shoonyata (पुस्तक - 109)

अज्ञात शून्यता

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एक शून्यता में प्रवेश कर गई हूँ
या कि मुझमें शून्यता प्रवाहित हो गई है,
थाह नहीं मिलता 
किधर खो गई हूँ
या जान-बुझकर खो जाने दी हूँ स्वयं को

कँपकँपाहट है और डर भी
बदन से छूट जाना चाहते, मेरे अंग सभी,
हाथ में नहीं आता कोई ओस-कण
थर्रा रहा काल, कदाचित महाप्रलय है!

मुक्ति की राह है
या फिर कोई भयानक गुफ़ा,
क्यों खींच रहा मुझे
जाने कौन है उस पार?
शून्यता है पर, संवेदनशून्यता क्यों नहीं?
नहीं समझ मुझे, यह क्या रहस्य है
मेरा या मेरी इस
अज्ञात शून्यता का 

- जेन्नी शबनम (14. 9. 2010)
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agyaat shoonyata

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ek shoonyata mein pravesh kar gai hun
ya ki mujhmein shoonyata pravaahit ho gai hai,
thaah nahin milta 
kidhar kho gai hun
ya jaan-bujhkar kho jaane dee hun svayam ko.

kanpkanpaahat hai aur dar bhi
badan se chhut jana chaahte, mere ang sabhi,
haath mein nahin aataa koi os-kan,
tharra raha kaal, kadaachit mahapralay hai!

mukti ki raah hai
ya fir koi bhayaanak gufa,
kyon kheench raha mujhe
jaane koun hai us paar?
shoonyata hai par, samvedanshunyata kyon nahin?
nahin samajh mujhe, yeh kya rahasya hai
mera ya meri is
agyaat shoonyata ka.

- Jenny Shabnam (14. 9. 2010)
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मंगलवार, 7 सितंबर 2010

172. नज़्म को ठुकरा दिए वो / nazm ko thukra diye wo (तुकांत)

नज़्म को ठुकरा दिए वो

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सवाल-ए-वस्ल पर, मुस्कुरा दिए वो
हर बार हमें रुलाके, बिखरा दिए वो

शायरी में नज़्म कहके, सजाया हमें
अब इस नज़्म को ही, ठुकरा दिए वो

जाएँगे कहाँ, मालूम ही कब है हमको
गुज़रे एहसास को भी, बिसरा दिए वो

पूछने की इजाज़त, मिली ही कब हमें
कभी फ़ासला न सिमटे, पहरा दिए वो 

दर्द की बाबत, 'शब' से न पूछना कभी
वस्ल हो कि हिज्र, ज़ख़्म गहरा दिए वो 

- जेन्नी शबनम (7. 9. 2010)
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nazm ko thukra diye wo

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savaal-e-vasl par, muskura diye wo
har baar hamen rulake, bikhra diye wo.

shaayari mein nazm kahke, sajaaya hamen
ab is nazm ko hi, thukra diye wo.

jaayenge kahaan, maaloom hi kab hai hamako
guzre ehsaas ko bhi, bisra diye wo.

puchhne ki ijaazat, mili hi kab hamein
kabhi faasla na simte, pahra diye wo.

dard ki baabat, 'shab' se na puchhna kabhi
wasl ho ki hijra, zakhm gahra diye wo.

- Jenny Shabnam (7. 9. 2010)
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रविवार, 5 सितंबर 2010

171. मेरी दुनिया / meri duniya (क्षणिका)

मेरी दुनिया

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यथार्थ से परे, स्वप्न से दूर
क्या कोई दुनिया होती है?
शायद मेरी दुनिया होती है 
एक भ्रम अपनों का, एक भ्रम जीने का
कुछ खोने और पाने का
विफलताओं में आस बनाए रखने का
नितांत अकेली मगर भीड़ में खोने का 
यह लाज़िमी है, ऐसी दुनिया न बनाऊँ तो जिऊँ कैसे

- जेन्नी शबनम (4. 9. 2010)
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meri duniya

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yathaarth se parey, swapn se door
kya koi duniya hoti hai?
shaayad meri duniya hotee hai.
ek bhram apnon ka, ek bhram jine ka
kuchh khone aur paane ka
vifaltaaon mein aas banaaye rakhne ka
nitaant akeli magar bheed mein khone ka.
yah lazimi hai, aisi duniya na banaaun, to jiyun kaise.

- Jenny Shabnam (4. 9. 2010)
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शनिवार, 4 सितंबर 2010

170. अंतिम पड़ाव अंतिम सफ़र / antim padaav antim safar

अंतिम पड़ाव अंतिम सफ़र

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जाने कैसा भटकाव था, या कि कोई पड़ाव था
नहीं मालूम क्या था, पर न जाने क्यों था
मुमकिन कि वहीं ठहर गई, या शायद राह ही ख़त्म हुई 

दरख़्त के साए में, कुछ पौधे भी मुरझा जाते हैं
कौन कहे कि चले जाओ, सफ़र के नहीं हमराही हैं
वक़्त की मोहताज़ नहीं, पर वक़्त से कब हारी नहीं?

चलो भूल जाओ काँटों को, ज़ख्म समेट लो
सिर पर ताज हो, और पाँव में छाले हों
हँसते ही रहना फिर भी, शायद यह अभिशाप हो

वादा किए हो, मन में हँसी भर दोगे
उम्मीद ख़त्म हुई ही कहाँ
अब भी इंतज़ार है,
कोई एक हँसी, कोई एक पल
वो एक सफ़र, जो पड़ाव था
शायद रुक जाएँ, हम दोनों वहीं,
उसी जगह गुज़र जाए
पहला और अंतिम सफ़र 

- जेन्नी शबनम (3. 9. 2010)
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antim padaav antim safar

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jaane kaisa bhatkaav tha, ya ki koi padaav tha
nahin maloom kya tha, par na jaane kyon tha
mumkin ki vahin thahar gai, ya shaayad raah hi khatm hui.

darakht ke saaye mein, kuchh poudhe bhi murjha jaate hain
koun kahe ki chale jaao, safar ke nahin humraahi hain
vakt kee mohtaaz nahin, par vaqt se kab haari nahin?

chalo bhool jaao kaanton ko, zakhm samet lo
sir par taaj ho, aur paanv mein chhaale hon
hanste hi rahna fir bhi, shaayad yah abhishaap ho.

vaadaa kiye ho, mann mein hansi bhar doge
ummid khatm hui hi kahaan
ab bhi intzaar hai,
koi ek hansi, koi ek pal
wo ek safar, jo padaav tha
shaayad ruk jaayen, hum dono vahin,
usi jagah guzar jaaye
pahla aur antim safar.

- Jenny Shabnam (3. 9. 2010)
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शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

169. छोटी-सी चिड़िया / chhoti-see chidiya

छोटी-सी चिड़िया

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स्वरचित घोंसले में अपने
दाना-पानी जोड़, जीवन भर का
थी निश्चिन्त, छोटी-सी चिड़िया

सोचा, अब चैन से जी लूँ ज़रा
मन-सा एक साथी पा
थी ख़ुशहाल, छोटी-सी चिड़िया

पहले झंझावत में ही, घोंसला टूटा
उड़ गया साथी, उसके मन का
रह गई अकेली, छोटी-सी चिड़िया 

सपने टूटे, अपने छूटे
न दाना, न ठिकाना
हुई बदहाल, छोटी-सी चिड़िया 

साँसें अटकी, राहें तकती
कोई तो बटोही, पार लगाए
हुई अशक्त, छोटी-सी चिड़िया 

ख़ुद से रूठी, साँसें उड़ गई
ख़त्म हुई, उसकी कहानी
सभी भूले, छोटी-सी चिड़िया 

- जेन्नी शबनम (28. 8. 2010)
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chhoti-see chidiya

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swarachit ghosle mein apne
dana paani jod, jivan bhar ka
thee nishchint, chhoti-see chidiya.

sochi, ab chain se ji lun zara
mann sa ek saathi paa
thee khush.haal chhoti-see chidiya.

pahle jhanjhaawat mein hi, ghonsla toota
ud gaya saathi, uske mann ka
rah gai akeli, chhoti-see chidiya.

sapne toote, apne chhute
na daana, na thikaana
hui bad.haal chhoti-see chidiya.

saansein atki, raahein takti
koi to batohi, paar lagaaye
hui ashakt, chhoti-see chidiya.

khud se roothi, saansein ud gai
khatm hui, uski kahaani
sabhi bhoole, chhoti-see chidiya.

- Jenny Shabnam (28. 8. 2010)
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बुधवार, 1 सितंबर 2010

168. क्या मैं आज़ाद हूँ / Kya main aazaad hoon

क्या मैं आज़ाद हूँ

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"क्या मैं आज़ाद हूँ?"
यह प्रश्न अनुत्तरित है
और एहसास अन्तस् की अव्यक्त पीड़ा
महज़ सीमित हैं 
संविधान के पन्नों में सिमटी आज़ादी और स्वतंत्रता
हम जीवित इन्सानों की हर आज़ादी पर
है अंकुश का आघात बड़ा

सबने कहा, सबसे सुना
कहते ही रहे हैं हम सदा
मैं आज़ाद हूँ, वह आज़ाद है, हम आज़ाद हैं
पर दिखी नहीं कभी इन्सानों की आज़ादी
उनकी चेतना और मन की आज़ादी
हर इन्सान को
अपने धर्म, संस्कार, परम्परा और रिश्तों में
घुटता पाया क़ैदी

क़ौमों और सियासत की जंग में
हर आम इन्सान है जकड़ा
जज़्बात और धर्म पर पहरा
मन की अभिव्यक्ति पर पहरा
तसलीमा और मक़बूल जैसों पर
देशद्रोही और फ़तवा का क़हर है बरपा
दुश्मनों की क्या बात करें
दोस्तों को ज़बह करते देखना भी है सदमा

धर्मों और रिवाजों पर बलि चढ़ते
हम मूक संस्कारों को हैं देखते
अस्मत और क़िस्मत को लुटते-बचते
हर लम्हा हम कितना हैं तड़पते
रात को चैन की नींद सो सकें
हम अपने घरों में ख़ौफ़ से हैं गुज़रते
देश के प्रहरी मुल्कों से ज़्यादा
अपने घर को आतंक से बचाने में
रात जागते, जान हैं गँवाते

एक रोटी के वास्ते नीलाम होती है संतान
और बन्धक बनता है इन्सान 
एक रोटी के वास्ते वतन त्यागता
धर्म बदलता और बदलता अपना ईमान है इन्सान 
एक रोटी के वास्ते कचरे से जानवरों संग
जूठन बटोरता भूखा-लाचार है इन्सान 
एक रोटी के वास्ते 
अपनों के ख़ून का प्यासा बन जाता है इन्सान

न पूछना है, न कहना है
"क्या मैं आज़ाद हूँ"
क़ुबूल नहीं हमें ये आज़ादी
कुछ कर गुज़रना है कि हम मान सकें
''मैं आज़ाद हूँ!''

-जेन्नी शबनम (5.10.2008)
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Kya main aazaad hoon

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"Kya main aazaad hoon?"
yeh prashna anuttarit hai
aur ehsaas antas ki avyakt peeda
mahaz seemit hain 
samvidhaan ke pannon mein simtee aazaadi aur swatantrata
hum jiwit insaano ki har aazaadi par
hai ankush ka aaghaat bada.

Sabne kaha, sabse suna
kahte hi rahe hain hum sada
mai aazaad hoon, wah aazaad hai, hum aazaad hain
par dikhi nahi kabhi insaano ki aazaadi
unki chetna aur mann ki aazaadi
har insaan ko
apne dharm, sanskar, parampara aur rishton mein
ghutata paya qaidi.

Qaumo aur siyasat ki jung mein
har aam insaan hai jakda
jazbaat aur dharm par pahra
mann ki abhivyakti par pahra
Taslima aur Maqbool jaison par
deshdrohi aur fatwa ka qahar hai barpa
dushmano ki kya baat karen
doston ko zabah karte dekhna bhi hai sadma.

Dharmon aur riwajon per bali chadhte
hum mook sanskaron ko hain dekhte
asmat aur qismat ko lut.te-bachate
har lamha hum kitna hain tadapte
raat ko chain ki neend so saken
hum apne gharon mein khauff se hain guzarte
desh ke prahari mulkon se zyada
apne ghar ko aatank se bachane mein
raat jagte, jaan hain ganwaate.

Ek roti ke waste neelaam hoti hai santaan 
aur bandhak banta hai insaan
ek roti ke waste watan tyagta
dharm badalta aur badalta apna iimaan hai insaan
ek roti ke waste kachre se jaanvaro sang
joothan batorta bhukha-laachaar hai insaan
ek roti ke waste 
apno ke khoon ka pyasa ban jata hai insaan.

Na puchhna hai, na kahna hai 
"kya main aazaad hun"
qubool nahi hamein ye aazaadi
kuchh kar gujarna hai ki hum maan saken 
"main aazaad hun!"

-Jenny Shabnam (5.10.2008)
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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

167. देह, अग्नि और आत्मा... जाने कौन चिरायु / Deh, Agni aur Aatma... jaane koun chiraayu (पुस्तक- नवधा)

देह, अग्नि और आत्मा... जाने कौन चिरायु

***

जलती लकड़ी पर जल डाल दें
अग्नि बुझ जाती है और धुआँ उठता है
राख शेष रह जाती है और कुछ अधजले अवशेष बचते हैं
अवशेष को जब चाहें जला दें, जब चाहें बुझा दें

क्या हमारे मन की अग्नि को कोई जल बुझा सकता है
क्या एक बार बुझ जाने पर अवशेष को फिर जला सकते हैं
क्यों बच जाती है सिर्फ़ देह और साँसें
आत्मा तो मर जाती है, जबकि कहते कि आत्मा अमर है

नहीं समझ पाई अब तक, क्यों होता है ऐसा
आत्मा अमर है फिर मर क्यों जाती
क्यों नहीं सह पाती क्रूर वेदना या कठोर प्रताड़ना
क्यों बुझा मन फिर जलता नहीं।  

नहीं-नहीं! बहुत अवसाद है शायद
इन्सान की तुलना अग्नि से?
नहीं-नहीं! कदापि नहीं!
अग्नि तो पवित्र होती है
हम इन्सान ही अपवित्र होते हैं
शायद... इसीलिए...।
 
देह, अग्नि और आत्मा जाने कौन चिरायु?
कौन अमर? कौन...?

-जेन्नी शबनम (22.8.2010)
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Deh, Agni aur Aatma... jaane koun chiraayu

***

Jalti lakdi par jal daal den 
agni bujh jaati hai aur dhuaan uthta hai
raakh shesh rah jaati hai aur kuchh adhjale avshesh bachte hain
avshesh ko jab chaahen jalaa den, jab chaahen bujha deyn.

Kya hamaare mann ki agni ko koi jal bujha sakta hai
kya ek baar bujh jaane par avshesh ko phir jalaa sakte hain
kyon bach jaati hai sirf deh aur saansen
aatma to mar jaati hai, jabki kahte ki aatma amar hai.

nahin samajh paayi ab tak, kyon hota hai aisa
aatma amar hai phir mar kyon jaati
kyon nahin sah paati krur vedna ya kathor prataadna
kyon bujhaa mann phir jalta nahin.

nahin-nahin! bahut avsaad hai shaayad
insaan ki tulna agni se?
nahin-nahin! kadaapi nahin!
agni to pavitra hoti hai
hum insaan hi apavitra hote hain 
shaayad... isiliye... 

Deh, Agni aur Aatma jaane koun chiraayu?
koun amar? koun..?

- Jenny Shabnam (22.8.2010)
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रविवार, 22 अगस्त 2010

166. इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं / ikanni duanni aur main chalan mein nahin (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 43)

इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं

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वो गुल्लक फोड़ दी
जिसमें एक पैसे दो पैसे, मैं भरती थी,
तीन पैसे और पाँच पैसे भी थे, थोड़े उसमें
दस पैसे भी कुछ, बचाकर रखी थी उसमें,
सोचती थी, ख़ूब सारे सपने ख़रीदूँगी इससे
इत्ते ढेर सारे पैसों में तो, ढेरों सपने मिल जाएँगे 

बचपन की ये अनमोल पूँजी
क्या यादों से भी चली जाएगी?
अपनी उसी चुनरी में बाँध दी
जिसे ओढ़ पराये देश आई थी,
अपने इस कुबेर के ख़जाने को टीन की पेटी 
जो मेरी माँ से मिली थी, उसमें छुपा लाई थी,
साथ में उन यादगार लम्हों को भी
जब एक-एक पैसे, गुल्लक में डालती थी,
सोचती थी, ख़ूब सारा सपना खरीदूँगी
जब इस घर से उस घर चली जाऊँगी।

अब क्या करूँ इन पैसों का?
मिटटी के गुल्लक के टूटे टुकड़ों का?
पैसों का अम्बार और गुल्लक के छोटे-छोटे लाल टुकड़े
बार-बार अँचरा के गाँठ खोल निहारती हूँ,
इकन्नी-दुअन्नी में भी कहीं सपने बिकते हैं
जब चाह पालती हूँ, ख़ुद से हर बार पूछती हूँ,
नहीं ख़रीद पाई मैं, आज तक एक भी सपना
बचपन का जोगा पैसा
अब चलन में जो नहीं रहा।

चलन में तो, मैं भी न रही अब
पैसों के साथ ख़ुद को, बाँध ही दूँ अब
चलन से मैं भी उठ गई, और ये पैसे भी मेरे
अच्छा है, एक साथ दोनों चलन में न रहे
गुल्लक और पैसे, मेरे सपनों की यादें हैं
एक ही चुनरी में बँधे, सब साथ जीते हैं
उस टीन की पेटी में, हिफ़ाज़त से सब बंद है
मेरे पैसे, मेरे सपने, गुल्लक के टुकड़े और मैं।
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पेटी - बक्सा
जोगा - इकत्रित / संजोया
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- जेन्नी शबनम (20. 08. 2010)
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ikanni-duanni aur main chalan mein nahin

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vo gullak phod di
jismein ek paise do paise, main bhartee thee
teen paise aur paanch paise bhi they, thode usmen
dus paise bhi kuchh, bachaakar rakhi thi usmen,
sochti thi, khoob saare sapne kharidungi isase
itte dher saare paison men to, dheron sapne mil jayenge.

bachpan ki ye anmol punji
kya yaadon se bhi chali jaayegi?
apni usi chunri men baandh di
jise odh paraaye desh aai thi,
apne is kuber ke khajane ko teen kee peti 
jo meri maa se mili thee, usmein chhupa laayee thee,
saath mein un yaadgaar lamhon ko bhi
jab ek-ek paise, gullak mein daalti thee,
sonchti thee, khoob saara sapna kharidungi
jab is ghar se us ghar chali jaaungi.

ab kya karun is paiso ka?
mitti ke gullak ke toote tukdon ka?
paison ka ambaar aur gullak ke chhote chhote laal tukade
baar baar anchraa ke gaanth khol niharati hun,
ikanni-duanni mein bhi kahin sapne bikate hain
jab chaah paalti hun, khud se har baar puchhti hun,
nahin kharid paai main, aaj tak ek bhi sapnaa
bachpan ka joga paisa
ab chalan men jo nahin raha.

chalan mein to, main bhi na rahi ab,
paison ke sath khud ko, baandh hi dun ab
chalan se main bhi uth gaee, aur ye paise bhi mere
achchha hai, ek sath donon chalan mein na rahe
gullak aur paise, mere sapnon ki yaadein hain
ek hin chunri men bandhe, sab saath jite hain
us teen kee peti mein, hifaazat se sab band hai
mere paise, mere sapne, gullak ke tukde aur main.

- Jenny Shabnam (20. 8. 2010)
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मंगलवार, 17 अगस्त 2010

165. जीवन की अभिलाषा / jivan ki abhilasha

जीवन की अभिलाषा

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कोई अनजाना
जो है अनदेखा
सुन लेता समझ लेता
लिख जाता पढ़ जाता
कह देता वह सब
जो मेरे मन ने था चाहा 
भला कैसे होता है यह संभव?
संवेदनाएँ अलग-अलग होती हैं क्या?
नहीं आया अब तक मुझे
अनदेखे को देखना
अनपढ़े को पढ़ना
अनकहे को लिखना
अनबुझे को समझना
क्षण-क्षण का अस्वीकार क्यों?
जीवन को परखना न आया क्यों?
निर्धारित पथ का अनुपालन ही उचित क्यों?
विस्मित हूँ, विफल नहीं
स्तब्ध हूँ, अधैर्य नहीं
उलझन है पर रहस्य नहीं
पथ है पर साहस नहीं
अविश्वास स्वयं पर क्यों?
कामना फिर अक्षमता क्यों?
हर डोर हाथ में फिर दूर क्यों?
समय और डगर की भाषा
ले आएगी सम्मुख मेरे
एक दिन निःसंदेह
जीवन की हर अभिलाषा

- जेन्नी शबनम (17. 8. 2010)
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jivan ki abhilasha

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koi anjaana
jo hai andekha
sun leta samajh leta
likh jaata padh jaata
kah deta wah sab
jo mere mann ne tha chaaha.
bhalaa kaise hota hai yah sambhav?
samvednaayen alag-alag hoti hain kya?
nahin aaya ab tak mujhe
andekhe ko dekhna
anpadhe ko padhna
ankahe ko likhna
anbujhe ko samajhna.
kshan-kshan ka asvikaar kyon?
jivan ko parakhna na aaya kyon?
nirdhaarit path ka anupaalan hi uchit kyon?
vismit hun, vifal nahin
stabdh hun, adhairya nahin,
uljhan hai par rahasya nahin
path hai par saahas nahin.
avishvaas svayam par kyon?
kaamna fir akshamta kyon?
har dor hath men fir door kyon?
samay aur dagar ki bhaasha
le aayegi sammukh mere
ek din nihsandeh
jivan ki har abhilaasha.

- Jenny Shabnam (17. 8. 2010)
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सोमवार, 9 अगस्त 2010

164. काँटा भी एक चुभा देगा / kaanta bhi ek chubha dega

काँटा भी एक चुभा देगा

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हौले से काँटा भी एक चुभा देगा
हाथ में जब कोई फूल थमा देगा,

आह निकले तो हाथ थाम लेगा
फिर धीमे से वो ज़ख़्म चूम लेगा,

कह देगा तेरे वास्ते ही तो गया था
कई दरगाह से दुआ माँग लाया था,

तेरी ही दुआ के फूल तुझे दिया हूँ
चुभ गया काँटा तो क्या दोषी मैं हूँ?

इस छल का नहीं होता कोई जवाब
न बचता फिर करने को कोई सवाल,

ये सिलसिला यूँ ही तो नहीं चलता है
जीवन किसी के साथ बँध जो जाता है

- जेन्नी शबनम (8. 8. 2010)
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kaanta bhi ek chubha dega

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houle se kaanta bhi ek chubha dega
haanth men jab koi phool thamaa dega,

aah nikle to haath thaam lega
phir dhime se vo zakhm choom lega,

kah dega tere vaaste hi to gaya tha
kai dargaah se dua maang laaya tha,

teri hi dua ke phool tujhe diya hun
chubh gaya kaanta to kya doshi main hun?

is chhal ka nahin hota koi jawaab
na bachta phir karne ko koi sawaal,

ye silsila yun hi to nahin chalta hai
jivan kisi ke saath bandh jo jaata hai.

- Jenny Shabnam (8. 8. 2010)
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163. मैं कितनी पागल हूँ न / main kitni paagal hun na

मैं कितनी पागल हूँ न

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मैं कितनी पागल हूँ न!
तुम्हारा हाल भी नहीं पूछी
और तपाक से माँग कर बैठी -
एक छोटा चाँद ला दो न
अपने संदूक में रखूँगी
रोज़ उसकी चाँदनी निहारुँगी

मैं कितनी पागल हूँ न!
पर तुम भी तो बस...
कहाँ समझे थे मुझे
चाँद न सही चाँदी का ही चाँद बनवा देते
मेरी न सही ज्योतिष की बात मान लेते,
सुना है चाँद और चाँदी दोनों पावन है
उनमें मन को शीतल करने की क्षमता है

देखो न मेरा पागलपन!
मैं कितना तो गुस्सा करती हूँ
जब तुम घर लौटते हो
और मेरे लिए एक कतरा वक़्त भी नहीं लाते हो
न मेरे पसंद की कोई चीज़ लाते हो
पर ज़रूरत तो सब पूरी करते हो
फिर भी मेरी छोटी-छोटी माँग
कभी ख़त्म नहीं होती है
क्या करूँ मैं पागल हूँ न!

पहले तो तुम्हारे पास सब होता था
पर अब न वक़्त है न चाँद न चाँदी
अब नहीं माँगूँगी कभी, पक्का वादा है मेरा
माँगने से क्या होता है
संदूक तो भर चूका है, अब मेरे पास भी जगह नहीं
ज़ेहन में अब चाँद और चाँदी नहीं
सभी माँग ख़त्म हो रही है
बस वक़्त का एक टुकड़ा है, जो मेरे पास बचा है
मान गई हूँ अपना सच
सच में
मैं कितनी पागल हूँ!

- जेन्नी शबनम (मई, 2000)
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main kitni paagal hun na

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main kitni paagal hun na!
tumhara haal bhi nahin puchhi
aur tapaak se maang kar baithee -
ek chhota chaand la do na
apne sandook men rakhungi
roz uski chandni nihaarungi.

main kitni paagal hun na!
par tum bhi to bas...
kahaan samajhe theye mujhe
chand na sahi chaandi ka hin chaand banawa dete
meri na sahi jyotish ki baat maan lete,
suna hai chaand aur chaandi dono paawan hai
unmen mann ko shital karne ki kshamta hai.

dekho na mera pagalpan!
main kitna to gussa karti hun
jab tum ghar loutate ho
aur mere liye ek katra waqt bhi nahin late ho
na mere pasand ki koi chiz laate ho
par zarurat to sab puri karte ho
phir bhi meri chhoti-chhoti maang
kabhi khatm nahin hoti hai
kya karun main paagal hun na!

pahle to tumhaare paas sab hota tha
par ab na waqt hai na chaand na chaandi
ab nahin maangugi kabhi, pakka waada hai mera
mangne se kya hota hai
sandook to bhar chuka hai, ab mere paas bhi jagah nahin
zehan men ab chaand aur chaandi nahin,
sabhi maang khatm ho rahi hai
bas waqt ka ek tukda hai, jo mere paas bachaa hai
maan gai hun apnaa sach
sach mein
main kitni paagal hun!

- Jenny Shabnam (may, 2000)
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शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

162. रूठे मन हमें मनाने पड़ते (तुकांत) / ruthe mann humen manaane padte (tukaant)

रूठे मन हमें मनाने पड़ते

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लम्हों की मानिंद, सपने भी पुराने पड़ते
ख्व़ाब देखें, रूठे मन हमें मनाने पड़ते 

जहाँ-जहाँ क़दम पड़े, हमारी चाहतों के
सोए हर शय, हमें ही है जगाने पड़ते 

तूफ़ान का रूख़ मोड़ देंगे, जब भी सोचे
ख़ुद में हौसला, ख़ुद हमें ही लाने पड़ते 

तन्हाईयों की बाबत, जब पूछा सबने
अपने हर अफ़साने, हमें सुनाने पड़ते 

लोग पूछते, आज नज़्म में कौन बसा है
रोज़ नए मेहमान, 'शब' को बुलाने पड़ते

- जेन्नी शबनम (3. 8. 2010)
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ruthe mann humen manaane padte

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lamhon ki manind, sapne bhi puraane padte
khwaab dekhen, ruthe mann humen manaane padte.

jahaan jahaan kadam pade, humaari chaahaton ke
soye har shay, humen hi hai jagaane padte.

tufaan ka rukh mod denge, jab bhi soche
khud men housla, khud humen hi laane padte.

tanhaaiyon ki baabat, jab puchha sabne
apne har afsaane, humen sunaane padte.

log puchhte, aaj nazm men koun basa hai
roz naye mehmaan, 'shab' ko bulaane padte.

- Jenny Shabnam (3. 8. 2010)
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

161. हमारे शब्द / humaare shabd

हमारे शब्द

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शब्दों के सफ़र में
हम दोनों ही हुए लहूलुहान,
कोई पिघलता सीसा
या खंजर की धार
बस कर ही देना है वार 

आर पार कर दे रही
हमारे बोझिल रिश्तों को
हमारे शब्दों की कटार 

किसके शब्दों में तीव्र नोक?
ढूँढते रहते दोषी कौन?

प्रहार की ताक लगाए
मौका चुकने नहीं देना
बस उड़ेल देना है खौलते शब्द 

पार पा जाना है
तमाम बंधन से
पर नहीं जा सके कभी,
साथ जीते रहे
धकेलते रहे
एक दूसरे का क़त्ल करते रहे
हमारे शब्द

- जेन्नी शबनम (2. 8. 2010)
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humaare shabd

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shabdon ke safar mein
hum donon hi huye lahuluhaan,
koi pighalta shisha
ya khanjar ki dhaar
bas kar hin dena hai waar.

aar paar kar de rahi
hamaare bojhil rishton ko
hamaare shabdon ki kataar.

kiske shabdon mein tivrr nok?
dundhte rahte doshi koun?

prahaar ki taak lagaaye
mouka chukne nahin dena
bas udel dena hai khoulate shabd.

paar pa jaana hai
tamaam bandhan se
par nahin ja sake kabhi,
saath jite rahe
dhakelate rahe
ek dusare ka qatl karte rahe
humaare shabd.

- Jenny Shabnam ( 2. 8. 2010)
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रविवार, 1 अगस्त 2010

160. ले चलो संग साजन / le chalo sang saajan

(सावन के माह में वियोगी मनःस्थिति की रचना, जिसकी नायिका वर्षों से अपने प्रियतम का इंतज़ार कर रही है)

ले चलो संग साजन

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काटे नहीं कटत
अब मोरा जीवन,
कासे कहूँ होत
बिकल मोरा मन

समझें नाहीं
वो हमरी बतिया,
सुन भी लें तो
मोहे आये निंदिया

बीत गई उमर
सारी बाट जोहे,
जाने कब जागे
मन में प्रीत तोरे

अबके जो आवो
ले चलो संग साजन,
बीतत नहीं एक घड़ी
बिन तोरे साजन

- जेन्नी शबनम (1. 8. 2010)
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(saawan ke maah mein viyogi manah-sthiti kee rachna, jiski naayika varshon se apne priyatam ka intzaar kar rahi hai)

le chalo sang saajan

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kaate nahin katat
ab mora jiwan,
kaase kahun hot
bikal mora mann.

samjhein naahin
wo humri batiya,
sun bhi lein to
mohe aaye nindiya.

beet gai umar
saari baat johe,
jaane kab jaage
mann mein preet tore.

abke jo aao
ley chalo sang saajan,
beetat naahin ek ghadi
bin tore saajan.

- Jenny Shabnam (1. 8. 2010)
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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

159. शापित हूँ मैं / shaapit hun main

शापित हूँ मैं

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शापित हूँ मैं
सिर्फ खोना है
हारने के लिए जीना है 

अवांछित हूँ मैं
सिर्फ क्रंदन है 
एहसास है पर बंधन है 

नियति का मज़ाक हूँ मैं
ठूंठ बदन है 
पर फूल खिल गये हैं

नहीं उगने दूँगी कोई फूल
भले ये ज़मीन बंज़र कहलाए
काट डालूँगी अपनी ही जड़
कभी कोई छाँव न पाए
कतर डालूँगी हर सोच
जो मुझमें उम्मीद जगाए 

नियति की हार नहीं होगी
मेरी जीत कभी नहीं होगी
मैं शापित हूँ!

हाँ! शापित हूँ मैं!

- जेन्नी शबनम (27. 7. 2010)
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shaapit hun main

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shaapit hun main
sirf khona hai
haarne ke liye jina hai.

avaanchhit hun main
sirf krandan hai
yehsaas hai par bandhan hai.

niyati ka majaaq hun main
thunth badan hai
par phul khil gaye hain.

nahin ugne dungi koi phul
bhale ye zameen banjar kahlaaye
kaat daalungi apni hin jad
kabhi koi chhanv na paaye
qatar daalungi har soch
jo mujhmen ummid jagaaye.

niyati ki haar nahin hogi
meri jeet kabhi nahin hogi
main shaapit hun!

haan! shaapit hun main!

- jenny shabnam (27. 7. 2010)
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सोमवार, 26 जुलाई 2010

158. विदा अलविदा / vida alvida

विदा अलविदा

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कुछ लम्हे साथ जीती, ये कैसी ख़्वाहिश होती
दूर भी तो न हुई कभी, फिर ये चाह क्यों होती 

ख़त में सुने उनके नग़्में, पर धुन पराई है लगती
वो निभाते उम्र के बंधन, ज़िन्दगी यूँ नहीं ढलती 

इश्क में मिटना लाज़िमी, क्यों है ये दस्तूर ज़रूरी
इश्क में जीना ज़िन्दगी, कब जीता कोई ज़िन्दगी

विदा अलविदा की कहानी, रोज़ कहते वो मुँह-ज़बानी
कल अलविदा मैं कह गई, फिर समझे वो इसके मानी 

हिज्र की एक रात न आई, न वस्ल ने लिखी कहानी
'शब' ओढ़ती रोज़ चाँदनी, पर रात अमावास की होती 

- जेन्नी शबनम (19. 7. 2010)
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vida alvida

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kuchh lamhe saath jiti, ye kaisi khwaahish hoti
door bhi to na hui kabhi, phir ye chaah kyon hoti.

khat mein sune unke nagmein, par dhun paraai hai lagti
vo nibhaate umrra ke bandhan, zindagi yun nahin dhalti.

ishq mein mitna laazimi, kyon hai ye dastoor zroori
ishq mein jina zindagi, kab jita koi zindagi.

vida alvida ki kahaani, roz kahte vo moonh-zabaani
kal alvida main kah gai, phir samjhe vo iske maani.

hijrra ki ek raat na aai, na vasl ne likhi kahaani
'shab' odhti roz chaandni, par raat amaavas ki hoti.

- Jenny Shabnam (19. 7. 2010)
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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

157. किस किस के दर्द को चखती 'शब' (तुकांत) / kis kis ke dard ko chakhti 'shab' (tukaant)

किस-किस के दर्द को चखती 'शब'

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वाह वाही से अब दम घुटता है
सच सुनने को मन तरसता है 

छवि बनाऊँ जो पसंद ज़माने को
मुखौटे ओढ़-ओढ़ मन तड़पता है 

उनकी सरपरस्ती मुझे भाती नहीं
अपने पागलपन से दिल डरता है 

आसमान तो सबको मिला भरपूर
पर आसरा सबको नहीं मिलता है 

अपने आँसुओं से प्यास बुझती नहीं
मेरी अँजुरी में जल नहीं ठहरता है 

सब पूछते मैं इतनी रंज क्यों रहती हूँ
भूखे बच्चों को देख सब्र नहीं रहता है 

किस-किस के दर्द को चखती 'शब'
ज़माने को कुछ भी कब दिखता है 

- जेन्नी शनम (21. 07. 2010)
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kis-kis ke dard ko chakhti 'shab'

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waah waahi se ab dam ghutata hai
sach sunane ko man tarasta hai.

chhavi banaaun jo pasand zamaane ko
mukhoute odh-odh man tadapta hai.

unki sarparasti mujhe bhaati nahin
apne pagalpan se dil darta hai.

aasmaan to sabko mila bharpur
par aasra sabko nahin milta hai.

apne aansuon se pyaas bujhti nahin
meri anjuri mein jal nahin thaharta hai.

sab puchhte main itni ranj kyon rahti hun
bhukhe bachchon ko dekh sabrr nahin rahta hai.

kis-kis ke dard ko chakhti 'shab'
zamaane ko kuchh bhi kab dikhta hai.

- Jenny Shabnam (21. 7. 2010)
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रविवार, 18 जुलाई 2010

156. न बीतेंगे दर्द के अंतहीन पल / na beetenge dard ke antaheen pal (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 32)

न बीतेंगे दर्द के अंतहीन पल

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स्मृति की गहरी खाई में, फिर उतर आई हूँ 
न चाहूँ फिर भी, वक़्त बेवक़्त पहुँच जाती हूँ 
कोई गहरी टीस, सीने में उभरती है 
कोई रिसता घाव, रह-रहकर याद दिलाता है

मानस पटल पर अंकित, कोई अभिशापित दृष्य
अतीत के विचलित, वक़्त का हर परिदृष्य
दर्द की अकथ्य दास्तान, जो रहती अदृष्य

दुःस्वप्नों की तमाम परछाइयाँ, पीछा करती हैं 
कैसे हर रिश्ता अचानक, पराया बन बैठा 
सभी की निगाहों में, तरस और दया का बोध 
बिचारी का वो संबोधन, जो अब भी बेध जाता है मन

आज ख़ुद से फिर पूछ बैठी - 
किसे कहते हैं बचपन? क्या किसी के न होने से सब ख़त्म? 
एक और सवाल ख़ुद से - 
क्या सच में कुँवारी बाला मदमस्त चहकती है? 
मैं चहकना क्यों भूली? 
बार-बार पूछती - 
क्यों हमारे ही साथ? कौन बचाएगा गिद्ध दृष्टि से? 
कई सवाल अब भी - 
क्यों उम्र और रिशतों के मायने बदल जाते हैं? 
क्यों मझधार में छोड़ सब पार चले जाते हैं? 

न रुका न माना न परवाह, चाहे संसार हो या वक़्त 
मैं भी नहीं रुकी, हर झंझावत पार कर गई
पर वो टीस और बिचारी के शब्द 
फ़फोले की तरह अक्सर सीने में उभर आते हैं
यूँ बीत तो गए, खौफ़ के वर्ष, पर 
उफ़! न बीतेंगे दर्द के अंतहीन पल!

- जेन्नी शबनम (18. 7. 2010)
(पिता की पुण्यतिथि)
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na beetenge dard ke antaheen pal

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smriti ki gahri khaai mein, fir utar aai hun
na chaahun fir bhi, waqt bewaqt pahunch jaati hun
koi gahri tees, sine mein ubharti hai
koi rista ghaav, rah-rahkar yaad dilaata hai.

maanas patal par ankit, koi abhishaapit drishya
ateet ke vichalit, vaqt ka har paridrishya,
dard ki akathya daastan, jo rahti adrishya. 

duhswapnon ki tamaam parchhaaiyan, pichha karti hain
kaise har rishta achaanak, paraaya ban baitha
sabhi ki nigaahon mein, taras aur daya ka bodh
bichaari ka wo sambodhan, jo ab bhi bedh jata hai mann. 

aaj khud se fir puchh baithi -
kise kahte hain bachpan? kya kisi ke na hone se sab khatm?
ek aur sawaal khud se -
kya sach mein kunwaari baala madmast chahakti hai?
main chahakna kyon bhooli?
baar baar puchhti -
kyon humaare hi saath? koun bachaayega giddh drishti se?
kayee sawaal ab bhi -
kyon umra aur rishton ke maayane badal jaate hain?
kyon majhdhaar mein chhod sab paar chale jaate hain?

na ruka na maana na parawaah, chaahe sansaar ho ya waqt
main bhi nahin ruki, har jhanjhaawat paar kar gai
par wo tees aur bichaari ke shabd
fafole ki tarah aksar sine mein ubhar aate hain
yun beet to gaye, khouf ke varsh, par
uf! na beetenge dard ke antaheen pal!

- jenny shabnam (18. 7. 2010)
(pita kee punyatithi)
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