सोमवार, 1 दिसंबर 2014

477. झाँकती खिड़की (पुस्तक - 67)

झाँकती खिड़की

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परदे की ओट से
इस तरह झाँकती है खिड़की
मानो कोई देख न ले
मन में आस भी और चाहत भी
काश! कोई देख ले।

परदे में हीरे-मोती हो, या हो कई पैबन्द
हर परदे की यही ज़िंदगानी है
हर झाँकती नज़रों में वही चाह
कच्ची हो, कि पक्की हो
हर खिड़की की यही कहानी है।

कौन पूछता है, खिड़की की चाह
अनचाहा-सा कोई
धड़धड़ाता हुआ पल्ला ठेल देता है
खिड़की बाहर झाँकना बंद कर देती है
आस मर जाती है
बाहर एक लम्बी सड़क है
जहाँ आवागमन है, ज़िन्दगी है
पर, खिड़की झाँकने की सज़ा पाती है
अब वह न बाहर झाँकती है
न उम्र के आईने को ताकती है।

- जेन्नी शबनम (1. 12. 2014)
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11 टिप्‍पणियां:

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना बुधवार 03 दिसम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

सहज साहित्य ने कहा…

बहन आपकी नूतन कल्पना ने खिड़की को भी साकार कर दिया ! बहुत भावपूर्ण कविता! खिड़की के बहाने बहुत गहरा दर्द उकेर दिया!12

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…

यही वो खिड़की है जहाँ जिंदगी निहाल हुई
वक्त की दहलीज पर बेबस निढाल हुई

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुर खूब .. एग अलग तरह की रचना ... खिडके और परदे के मन के भी भाव होते हैं ...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

एक विज्ञापन आता है टीवी पर - दीवारें बोल उठेंगीं! इस पूरी कविता को देखकर लगा कि पर्दों ने पर्दे में रखते हुये सारी बात कह दी!!
बहुत ख़ूबसूरत!!

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

खिड़की झाँकने की सज़ा पाती है
अब वह न बाहर झाँकती है
न उम्र के आइने को ताकती है।

वाह !! एक दम नवीन बिम्ब !!

अनुलता

Onkar ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बढ़िया

Unknown ने कहा…

bahut sunder va umda bhaaw ki rachna

Asha Joglekar ने कहा…

खिडकी का झांकना बाहर और वो पहरे,
आह किसने ये दरवाजे का तमाचा मुंह पर मारा।

बहुत अलग और खूबसूरत रचना।

Mahima Shree ने कहा…

बहुत ही भावपुर्ण अभिव्यक्ति