गुरुवार, 3 सितंबर 2020

683. परी

परी

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दुश्वारियों से जी घबराए   
जाने क़यामत कब आ जाए   
मेरे सारे राज़, तुम छुपा लो जग से   
मेरा उजड़ा मन, बसा लो मन में।   
पूछे कोई कि तेरे मन में है कौन   
कहना कि एक थी परी, ग़ुलाम देश की रानी   
अपने परों से उड़कर, जो मेरे सपने में आई   
किसी से न कहना, उस परी की कहानी   
जो एक रोज़ मिली तुमको, डरती हुई   
खोकर आज़ादी तड़पती हुई।   
लहू से लथपथ, जीवन से विरक्त   
किसी ने छला था, बड़ा उसका मन   
पंख थे दोनों उसके कतरे हुए   
आँखें थीं बंद, पर आँसू लुढ़कते रहे   
होठों पे चुप्पी और सिसकी थमती नहीं   
उफ़! बदहवास, बड़ी थी बदहाल   
उसके मन में थे ढेरों मलाल   
कह गई मुझसे वो अपना हाल   
जीवन बीता था बनकर सवाल   
ले लिया वादा कि लेना न नाम।   
परी थी वो, मगर थी ग़ुलाम   
अपनों ने छीने थे सारे अरमान   
साँसों पर बंदिश, सपनों पर पहरे   
ऐसे में भला, कोई कैसे जीए?   
ज़ख़्मी तन और घायल मन   
फ़ना हो गई, हर राज़ कहकर   
रह गई मेरे मन में कहानी बनकर   
सच उसका, मुझे कहना नहीं   
वो दे गई, ये कैसी मज़बूरी।   
हाँ! सच है, वो परी न थी   
न किसी के सपनों की रानी   
वह थी थकी-हारी, टूटी एक नारी   
जो सदा रही सबके लिए बेमानी   
नहीं है कोई अब उसकी निशानी।   
ओह! उसने कहा था राज़ न खोलना   
उसकी इज़्ज़त अपने तक रखना,   
ना-ना वो थी परी,ग़ुलाम देश की रानी   
अपने परों से उड़कर, जो मेरे सपने में आई।   

- जेन्नी शबनम (3. 9. 2020)
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