सब जानते हो तुम
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तुम्हें याद है
हर शाम क्षितिज पर
जब एक गोल नारंगी फूल टँगे देखती
रोज़ कहती-
ला दो न
एक दिन तुम वाटर कलर से बड़े से कागज पे
मुस्कुराता सूरज बना हाथों में थमा दिए
एक रोज़ तुमसे कहा-
आसमान से चाँद-तारे तोड़के ला दो
प्रेम करने वाले तो कुछ भी करने का दावा करते हैं
तुम आसमानी साड़ी ख़रीद लाए
जिसमें छोटे-छोटे चाँद-तारे टँके हुए थे
मानो आसमान मेरे बदन पर उतर आया हो
और उस दिन तो मैंने हद कर दी
तुमसे कहा-
अभी के अभी आओ
छुट्टी लो भले तनख्वाह कटे
तुम गाड़ी चलाओगे मुझे जाना है
कहीं दूर
बस यूँ ही
बेमक़सद
हम चल पड़े और एक छोटे से ढाबे पे रुककर
मिट्टी की प्याली में दो-दो कप चाय
एक-एक कर पाँच गुलाबजामुन चट कर डाली
कैसे घूर रहा था ढाबे का मालिक
तुम भी गज़ब हो
क्यों मान लेते हो मेरी हर ज़िद?
शायद पागल समझते हो न मुझे?
हाँ, पागल ही तो हूँ
उस रोज़ नाराज़ हो गई
और तुम्हें बता भी दिया कि क्यों नाराज़ हूँ
तुम्हारी बेरुखी
या किसी और के साथ तुम्हारा होना मुझे सहन नहीं
मुझे मनाना भी तो ख़ूब आता है तुम्हें
नकली सूरज हो या असली रँग
सब जानते हो तुम!
- जेन्नी शबनम (16. 1. 2016)
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6 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना, "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 18 जनवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-01-2016) को "देश की दौलत मिलकर खाई, सबके सब मौसेरे भाई" (चर्चा अंक-2225) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आहा! अपनों का यह जानना ही तो छीन लेता है मन हमारा, हमसे ही।
इसलिए सत्य कहा है ''प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय
बहुत सुन्दर ...
प्रेम में दूसरे को जाना नहीं तो प्रेम कहाँ ...
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