गुरुवार, 4 अगस्त 2016

522. चलो चलते हैं

चलो चलते हैं

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सुनो साथी!  
चलो चलते हैं नदी के किनारे ठण्डी रेत पर
पाँव को ज़रा ताज़गी दे वहीं ज़रा सुस्ताएँगे
अपने-अपने हिस्से का अबोला दर्द रेत से बाँटेंगे  
न तुम कुछ कहना न हम कुछ पूछेंगे  
अपने-अपने मन की गिरह ज़रा-सी खोलेंगे।
 
मन की गाथा  
जो हम रचते हैं काग़ज़ के सीने पर  
सारी-की-सारी पोथियाँ वहीं बहा आएँगे  
अँजुरी में जल ले संकल्प दोहराएँगे  
और अपने-अपने रास्ते पर बढ़ जाएँगे। 
  
सुनो साथी!  
चलते हैं नदी के किनारे  
ठण्डी रेत पर वहीं ज़रा सुस्ताएँगे    

-जेन्नी शबनम (4.8.2016)  
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4 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

Sashakt Bhavabhivyakti.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-08-2016) को "धरा ने अपना रूप सँवारा" (चर्चा अंक-2427) पर भी होगी।
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हरियाली तीज और नाग पञ्चमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

विरम सिंह ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 7 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

मौन अपने में जितना समेट लेता है -वाणी उसे व्यक्त करने में असमर्थ रह जाती है,अुनभूति के चरम क्षणों में शब्द कहाँ !