गुमसुम प्रकृति
(प्रकृति पर 10 सेदोका)
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1.
अपनी व्यथा
गुमसुम प्रकृति
किससे वो कहती
बेपरवाह
कौन समझे दर्द
सब स्वयं में व्यस्त।
2.
वन, पर्वत
सूरज, नदी, पवन
सब हुए बेहाल
लड़खड़ाती
साँसें सबकी डरी
प्रकृति है लाचार।
3.
कौन है दोषी?
काट दिए हैं वन
उगा कंक्रीट-वन
मानव दोषी
मगर है कहता -
प्रकृति अपराधी।
4.
दोषारोपण
जग की यही रीत
कोई न जाने प्रीत
प्रकृति तन्हा
किस-किस से लड़े
कैसे ज़खम सिले।
5.
नदियाँ प्यासी
दुनिया ने छीनी है
उसका मीठा पानी,
करो विचार
प्रकृति है लाचार
कैसे बुझाए प्यास।
6.
बाँझ निगोड़ी
कुम्हलाई धरती
नि:संतान मरती
सूखा व बाढ़
प्रकृति का प्रकोप
धरा बेचारी।
7.
सब रोएँगे
साँसें जब घुटेंगी
प्रकृति भी रोएगी,
वक्त है अभी
प्रकृति को बचा लो
दुनिया को बसा लो।
8.
विषैले नाग
ये कल कारखाना
ज़हर उगलते
साँसें उखड़ी
ज़हर पी-पी कर
प्रकृति है मरती।
9.
लहूलुहान
खेत व खलिहान
माँगता बलिदान
रक्त पिपासु
खुद मानव बना
धरा का खून पिया।
10.
प्यासी नदियाँ
प्यासी तड़पे धरा
प्रकृति भी है प्यासी,
छाई उदासी,
अभिमानी मानव
विध्वंस को आतूर।
- जेन्नी शबनम (23. 5. 2018)
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4 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-07-2018) को "चाँद पीले से लाल होना चाह रहा है" (चर्चा अंक-3047) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
बेहद सुंदर रचना
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