फ़र्ज़ की किस्त
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लाल, पीले, गुलाबी
सपने बोना चाहती थी
जिन्हें तुम्हारे साथ
उन पलों में तोडूँगी
जब सारे सपने खिल जाएँ
और ज़िन्दगी से हारे हुए हम
इसके बेहद ज़रूरतमंद हों।
पल-पल ज़िन्दगी बाँटना चाहती थी
सिर्फ़ तुम्हारे साथ
जिन्हें तब जियूँगी
जब सारे फ़र्ज़ पूरे कर
हम थक चुके हों
और हम दूसरों के लिए
बेकाम हो चुके हों।
हर तजरबे बतलाना चाहती थी
ताकि समझ सकूँ दुनिया को
तुम्हारी नज़रों से
जब मुश्किल घड़ी में
कोई राह न सूझे
हार से पहले एक कोशिश कर सकूँ
जिससे जीत न पाने का मलाल न हो।
जानती हूँ
चाहने से कुछ नहीं होता
तक़दीर में विफलता हो तो
न सपने पलते हैं
न ज़िन्दगी सँवरती है
न ही तजरबे काम आते हैं।
निढ़ाल होती मेरी ज़िन्दगी
फ़र्ज़ अदा करने के क़र्ज़ में
डूबती जा रही है
और अपनी सारी चाहतों से
फ़र्ज़ की किस्त
मैं तन्हा चुका रही हूँ।
- जेन्नी शबनम (18. 9. 2012)
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20 टिप्पणियां:
काफी हद तक सही हैं आप...मगर तकदीर बदलते देर कहाँ लगती हैं...
संजोये रखना चाहिए सपनों को....जाने कब डूबती ज़िन्दगी किनारे लग जाए.....नाव खेते रहें बस..
सादर
अनु
LAJAWAAB KAVITA KE LIYE AAPKO BADHAAEE.
हृदयस्पर्शी उत्कृष्ट
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1. अपने ब्लॉग पर फोटो स्लाइडर लगायें
'फ़र्ज़ की किश्त' कविता मन को पूरी तरह भिगो गई । हर पंक्ति में सरसता , जीवन का गहरा अनुभव , वह भी अवसाद से परिपूर्ण । इतना सुन्दर और सार्थक लिखने के लिए बहुत बधाई जेन्नी जी । ये पंक्तियाँ तो बहुत ही मार्मिक हैं
-निढ़ाल होती मेरी ज़िंदगी
फ़र्ज़ अदा करने के क़र्ज़ में
डूबती जा रही है
और अपनी सारी चाहतों से
फ़र्ज़ की किश्त
मैं तन्हा चुका रही हूँ !
वाह बहुत भावपूर्ण रचना..
निढ़ाल होती मेरी ज़िंदगी
फ़र्ज़ अदा करने के क़र्ज़ में
डूबती जा रही है
और अपनी सारी चाहतों से
फ़र्ज़ की किश्त
मैं तन्हा चुका रही हूँ,,,,
अहसासों की लाजबाब प्रस्तुति......
RECENT P0ST फिर मिलने का
रचना बहुत आवेग लिए है सुन्दर है लेकिन भाग्यवादी दर्शन और अवसाद से संसिक्त भी है .कर्तव्य तो भावना से भी बड़ा होता है .फर्ज़ अंजाम दिया फिर मलाल कैसा ,कर्ज़ कैसा ....
जानती हूँ
चाहने से कुछ नहीं होता
तकदीर में विफलता हो तो
न सपने पलते हैं
न ज़िंदगी सँवरती है
न ही तजुर्बे काम आते हैं !
निढ़ाल होती मेरी ज़िंदगी
फ़र्ज़ अदा करने के क़र्ज़ में
डूबती जा रही है
और अपनी सारी चाहतों से
फ़र्ज़ की किश्त
मैं तन्हा चुका रही हूँ !
Ati sundar
Ati sundar
बहुत ही सुंदर भाव।
बधाई।
............
हिन्दी की सबसे दुर्भाग्यशाली पुस्तक!
उत्कृष्ट प्रस्तुति आज बुधवार के चर्चा मंच पर ।।
काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया इस रचना ने... बहुत ही भावपूर्ण रचना!
जानती हूँ
चाहने से कुछ नहीं होता
तकदीर में विफलता हो तो
न सपने पलते हैं
न ज़िंदगी सँवरती है
न ही तजुर्बे काम आते हैं !...सच है
अंतिम पंक्तियां मन को छूती हुई ... उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
सपनों को उगायेंगे हम क्यूँ ज़िन्दगी से हारें
हर फ़र्ज़ निभाएंगे पल पल ज़िन्दगी को वारें
ये मुश्किल घडी हों फिर भी हम हौसला रखेंगे
तन्हा कहाँ तनहाइयाँ लिखा तकदीर बदल देंगे
आपको पढ़ना सदा अच्छा लगता लेकिन आप पर लिखना बड़ा कठिन लगता है इसीलिए विचार करना पड़ता है . आप जीवन के बहुत करीब लिखती हैं .
I slept and dreamt that life was beauty ..
I woke and found that life was duty ...
aise hii jeevan beet jata hai ..
bahut sundar likha hai ..!!
जानती हूँ चाहने से कुछ नहीं होता तकदीर में विफलता हो तो न सपने पलते हैं न ज़िंदगी सँवरती है न ही तजुर्बे काम आते हैं !
निढ़ाल होती मेरी ज़िंदगी फ़र्ज़ अदा करने के क़र्ज़ में डूबती जा रही है और अपनी सारी चाहतों से फ़र्ज़ की किश्त मैं तन्हा चुका रही हूँ !
शायद जीना इसी का नाम है बहुत ही सुंदर सार्थक एवं गहन भाव अभिव्यक्ति .....
लाल पीले गुलाबी
सपने बोना चाहती थी
जिन्हें तुम्हारे साथ
उन पलों में तोडूँगी
जब सारे सपने खिल जाएँ
और जिन्दगी से हारे हुए हम
इसके बेहद ज़रूरतमंद हों !
जो सोचता है ,सोचता रह जाता है ,अवसाद में चला जाता है ,यहाँ तो बहुत एक्शन है ,सोच के लिए अवकाश कैसा .भाग्यवादी दर्शन कैसा ,फर्ज़ तो सुख से भरता है ,भावना से बड़ा होता है कर्तव्य फिर ये अवसाद क्यों इस रचना का प्रति पाद्य क्यों ?
ram ram bhai
मंगलवार, 18 सितम्बर 2012
कमर के बीच वाले भाग और पसली की हड्डियों (पर्शुका )की तकलीफें :काइरोप्रेक्टिक समाधान
wah....bahot khoobsurat....
यही आलम सबका है... एक और सुन्दर अभिव्यक्ति पढने को मिली..
सादर
मधुरेश
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