परवरिश
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कहीं पथरीली कहीं कँटीली
यथार्थ की ज़मीन बंजर होती है
जहाँ ख़्वाहिशों के फूल उगाना
न सहज होता है न सरल
परन्तु फूल उगाना लाज़िमी है
और उसकी ख़ुशबू का बसना भी,
यही जीवन का नियम है
और इसी में जीवन की सुन्दरता है।
वक़्त आ चुका है
जब तुम अपनी ज़मीन पर
सपनों से सींचकर
ख़्वाहिशों के फूल खिलाओ
अपनी दुनिया सँवारो
और अपनी पहचान बनाओ।
मुझे नहीं मालूम
वक़्त के कैनवस पर
हमारे सम्बन्ध की तस्वीर कैसी बनेगी
मेरी तक़दीर कैसी होगी।
आशंकाओं के बादल घुमड़ते रहते हैं मुझमें
बढ़ती उम्र के साथ अशक्त होने का डर सताता है मुझे
अकेलेपन का ख़ौफ़ अभी से डराता है मुझे
यूँ जबकि साथ ही तो रहते हैं हम।
वह भी तो मेरी ही तरह माँ थी
जिसने हर वो जतन किए होंगे
जो संतान की परवरिश के लिए लाज़िमी है
पर कुछ तो कमी रह गई
जाने क्यों संवेदनशून्यता आ गई
तमाम आरज़ुओं के साथ
दरवाज़े को पथराई आँखों से देखती
अपनों की राह अगोरती वह माँ
छह माह की मृत कंकाल बन गई।
मुमकिन है तुम भी मुझे बिसरा दो
वक़्त के साथ हमारे रिश्ते भूल जाओ
वे सारे पल भी भूल जाओ
जब उँगली पकड़कर तुम्हें चलना सिखाया
हाथ पकड़कर तुम्हें लिखना सिखाया
शब्द-शब्द जोड़कर बोलना सिखाया।
तुम्हें तो याद ही है
मैंने बहुत बार बेवजह तुम्हें मारा है
दूसरों का ग़ुस्सा तुमपर निकाला है
लेकिन तुम यह नहीं जानते
जब-जब तुम्हें मारा मैंने
हर उस रात तुम्हें पकड़कर रोकर गुज़ारी मैंने।
कई बार तुम्हारे हाथों को ज़ोर से झिड़का है
जब एक ही शब्द को बार-बार लिखना सिखाती थी
और तुम सही-सही लिख नहीं पाते थे
हर उस रात तुम्हारी नन्ही हथेली को लेकर
तमाम रात रोकर गुज़ारी मैंने।
कामों की भीड़ में तुम्हें खिलाना
उफ़! कितना बड़ा काम था
कई बार तुम्हें खाने के लिए मारा है मैंने
और हर उस दिन मेरे मुँह में निवाला न जा सका
भले सारा काम निपटा लिया मैंने।
तुम्हारी हर एक ज़िद
कम में ही सही, पर पूरी की मैंने
एक पल को भी कभी
तुम्हें अकेला न छोड़ा मैंने।
हाँ! यह ज़रूर है
मेरे पास उन सभी लम्हों का
कोई सुबूत नहीं है
न मेरे प्यार का, न मेरे व्यवहार का
न उस वक़्त का, न उन हालातों का।
तुम अपनी कचहरी में
चाहो तो मुझ पर मुक़दमा करो
चाहो तो सज़ा दो
मुझ पर इल्ज़ाम है-
पाप किया मैंने
तुम्हें क्यों मारा मैंने
तुम्हें ठीक से न पाला मैंने।
पाप-पुण्य का फ़ैसला
तुम ही करो
मैं बस ख़ामोश हूँ।
वक़्त की कोख में
मेरे अन्त की तस्वीर बन रही होगी
आत्मा के लिए राह बिछ रही होगी
नहीं मालूम सिर्फ़ काँटे ही मिलेंगे या फूल भी
पर जिस राह से भी गुज़रूँगी
जहाँ भी पहुँचूँगी
बस दुआ ही करूँगी।
जानते हो न
माता कभी कुमाता नहीं होती।
-जेन्नी शबनम (22. 6. 2018)
(पुत्र के 25 वें जन्मदिन पर)
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9 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 24 जून 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-06-2018) को "तालाबों की पंक" (चर्चा अंक-3011) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूबसूरत कविता
सुखद आशीर्वचन ,गहन रचना !! बेटे को बहुत बधाई एवं ढेर सारा प्यार व आशीर्वाद !!
बहुत सुंदर एक माँ के मन की भावपूर्ण अभिव्यक्ति... वाह्ह👌
बहुत सुंदर
सुन्दर ।
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २५ जून २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति मेरा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
निमंत्रण
विशेष : 'सोमवार' २५ जून २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला में आपका परिचय आदरणीय 'प्रबोध' कुमार गोविल जी से करवाने जा रहा है। जिसमें ३३४ ब्लॉगों से दस श्रेष्ठ रचनाएं भी शामिल हैं। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
माँ माँ रही ही ... कुमाता होने का सोच नहीं सकती ...
काश हर किसी में ये अंश रहे ...
गहरी रचना ....
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