बुधवार, 26 अगस्त 2009

80. आँखों में इश्क़ भर क्यों नहीं देते हो (तुकान्त)

आँखों में इश्क भर क्यों नहीं देते हो

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दावा करते तुम, आँखों को मेरी पढ़ लेते हो
फिर दर्द मेरा तुम, समझ क्यों नहीं लेते हो? 

बारहा करते सवाल, मेरी आँखों में नमी क्यों है
माहिर हो, जवाब ख़ुद से पूछ क्यों नहीं लेते हो? 

कहते हो कि समंदर-सी, मेरी आँखें गहरी है
लम्हा भर उतरकर, नाप क्यों नहीं लेते हो? 

तुम्हारे इश्क़ की तड़प, मेरी आँखों में बहती है
आकर लबों से अपने, थाम क्यों नहीं लेते हो? 

हम रह न सकेंगे तुम बिन, जानते तो हो
फिर आँखों में मेरी, ठहर क्यों नहीं जाते हो? 

ज़ाहिर करती मेरी आँखें, तुमसे इश्क़ है
बड़े बेरहम हो, क़ुबूल कर क्यों नहीं लेते हो?

मेरे दर्द की तासीर, सिर्फ़ तुम ही बदल सकते हो
फिर मेरी आँखों में इश्क़, भर क्यों नहीं देते हो?

वक़्त का हिसाब न लगाओ, कहते हो सदा
'शब' की आँखों से, कह क्यों नहीं देते हो?

- जेन्नी शबनम (19. 8. 2009)
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मंगलवार, 18 अगस्त 2009

79. हम दुनियादारी निभा रहे (तुकान्त)

हम दुनियादारी निभा रहे

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एक दुनिया, तुम अपनी चला रहे
एक दुनिया, हम अपनी चला रहे 

ख़ुदा तुम सँवारो दुनिया, बहिश्त-सा
महज़ इंसान हम, दुनियादारी निभा रहे 

हवन-कुंड में कर अर्पित, प्रेम-स्वप्न
रिश्तों से, घर हम अपना सजा रहे 

समाज के क़ायदे से, बग़ावत ही सही
एक अलग जहाँ, हम अपना बसा रहे 

अपने कारनामे को देखते, दीवार में टँगे
जाने किस युग से, हम वक़्त बीता रहे 

सरहद की लकीरें बँटी, रूह इंसानी है मगर
तुम सँभलो, पतवार हम अपनी चला रहे 

शब्द ख़ामोश हुए या ख़त्म, कौन समझे
'शब' से दुनिया का, हम फ़ासला बढ़ा रहे 

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बहिश्त - स्वर्ग / जन्नत 
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- जेन्नी शबनम (17. 8. 2009)
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मंगलवार, 11 अगस्त 2009

78. यही अर्ज़ होता है (तुकान्त)

यही अर्ज़ होता है

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मजरूह सही, ये दर्द-ए-इश्क़ का तर्ज़ होता है
तजवीज़ न कीजिए, इंसान बड़ा ख़ुदगर्ज़ होता है 

आप कहते हैं कि हर मर्ज़ की दवा, है मुमकिन
इश्क़ में मिट जाने का जुनून, भी मर्ज़ होता है 

दोस्त न सही, दुश्मन ही समझ लीजिए हमको
दुश्मनी निभाना भी, दुनिया का एक फर्ज़ होता है 

आप मनाएँ हम रूठें, बड़ा भला लगता हमको
आप जो ख़फ़ा हो जाएँ तो, बड़ा हर्ज़ होता है 

खुशियाँ मिलती हैं ज़िन्दगी-सी, किस्तों में मगर
हँसकर उधार साँसे लेना भी, एक कर्ज़ होता है 

वो करते हैं हर लम्हा, हज़ार गुनाह मगर
मेरी एक गुस्ताख़ी का, हिसाब भी दर्ज़ होता है 

इश्क़ से महरूम कर, दर्द बेहिसाब न देना 'शब' को
हर दुश्वारी में साथ दे ख़ुदा, बस यही अर्ज़ होता है
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मजरूह - घायल / ज़ख्मी
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- जेन्नी शबनम (11. 8. 2009)
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गुरुवार, 6 अगस्त 2009

77. काश! हम ज़ंजीर बने न होते

काश! हम ज़ंजीर बने न होते

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नहीं मालूम कब
हम प्रेम पथिक से, लौह-ज़ंजीर बनते चले गए
वक़्त और ज़िन्दगी की भट्ठी में
हमारे प्रेम की अक्षुण्ण सम्पदा जल गई
और ज़ंजीर की एक-एक कड़ी की तरह
हम जुड़ते चले गए।  

कभी जिस्म और रूह का कुँवारापन
तो कभी हमारा मौन प्रखर-प्रेम कड़ी बना
कभी रिश्ते की गाँठ और हमारा अनुबंध
कभी हमारी मान-मर्यादा और रीति-नीति
तो कभी समाज और कानून कड़ी बना।  

कभी हम फूलों से, एक दूसरे का दामन सजाते रहे
और उसकी ख़ुशबू में हमारा कस्तूरी देह-गंध कड़ी बना
कभी हम कटु वचन-बाणों से एक दूसरे को बेधते रहे
कि ज़ख़्मी क़दम परिधि से बाहर जाने का साहस न कर सके
और आनन्द की समस्त संभावनाओं का मिटना एक कड़ी बना

वक़्त और ज़िन्दगी के साथ, हम तो न चल सके
मगर हमारी कड़ियों की गिनती रोज़-रोज़ बढ़ती गई
हम दोनों, दोनों छोर की कड़ी को मज़बूती से थामे रहे
हर रोज़, एक-एक कड़ी जोड़ते रहे और दूर होते रहे
ये छोटी-छोटी कड़ियाँ मिलकर बड़ी ज़ंजीर बनती गई

काश! हम ज़ंजीर बने न होते
हमारे बीच कड़ियों के टूटने का भय न होता
मन, यूँ लौह-सा कठोर न बनता
हमारा जीवन, यूँ सख़्त कफ़स न बनता
बदनुमा का इल्ज़ाम, एक दूसरे पर न होता

प्रेम के धागे से बँधे सिमटे होते
एक दूसरे की बाहों में संबल पाते
उन्मुक्त गगन में उड़ते फिरते
हम वक़्त के साथ क़दम मिलाते
उम्र का पड़ाव वक़्त की थकान बना न होता

ख़ुशी यूँ बेमानी नहीं, इश्क बन गया होता
हम बेपरवाह, बेइंतिहा मोहब्बत के गीत गाते
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा, रूमानी बन गया होता
हम इश्क़ के हर इम्तहान से गुज़र गए होते
काश! हम ज़ंजीर बने न होते

- जेन्नी शबनम (3. 8. 2009)
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