कैनवस
***
एक कैनवस कोरा-सा
जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग
पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे
रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के पंख
और चाहा कि जी लूँ अपनी सारी हसरतें
उस कैनवस में घुसकर।
आज वर्षों बाद वह कैनवस
रंगों से भरा हुआ, उमंगों से सजा हुआ चहक रहा था
उसके रंगों में एक नया रंग भी दमक रहा था
मेरे भरे हुए रंगों से एक नया रंग पनप गया था।
उसमें दिख रहे थे मेरे सपने
उसके पंख अब कोमल नहीं थे
उम्र और समझ की कठोरता थी उसमें
आकाश को पाने और ज़मीन को नापने का हुनर था उसमें।
अब यही जी चाहता है
वह कैनवस मेरे सपनों के रंग को बसा रहने दे
उसमें और भर ले, अपने सपनों के रंग
चटख-चटख, प्यारे-प्यारे, गुलमोहर-से
जो अडिग रहते पतझर में
मढ़ ले कुछ ऐसे नक्षत्र
जो हर मौसम में उसे ऊर्जा दे
गढ़ ले ऐसे शब्द, जो भावनाओं की धूप में दमकता रहे
बसा ले धरा और क्षितिज को अपनी आत्मा में
जिससे सफलताओं के उत्सव में आजीवन खिलता रहे।
आज चाहती हूँ, कहूँ उस कैनवस से-
तमाम कुशलता से रँग लो
अपने सपनों का कैनवस।
-जेन्नी शबनम (22.6.2014)
(पुत्र के 21वें जन्मदिन पर)
___________________