अँधेरा
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उम्र की माचिस में ख़ुशियों की तीलियाँ
एक रोज़ सारी जल गईं, डिबिया ख़ाली हो गई
मैं आधे पायदान पर खड़ी होकर
हर रोज़ ख़ाली डिब्बी में तीलियाँ ढूँढती रही
दीये और भी जलाने होंगे, जाने क्यों सोचती रही?
भ्रम में जीने की आदत गई नहीं
हर शब मन्नत माँगती रही, तीलियाँ तलाशती रही
पर डिब्बी ख़ाली ही रही, ज़िन्दगी निबटती-मिटती रही
जो दीये न जले, फिर जले ही नहीं
उम्र की सीढ़ियों पे अब अँधेरा है।
- जेन्नी शबनम (18. 1. 2018)
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